प्रो युधिष्ठिर की प्राणाहुति

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— हरीश खन्ना —

दिल्ली विश्वविद्यालय को बने हुए सौ साल बीत चुके हैं। यह साल दिल्ली विश्वविद्यालय का शताब्दी वर्ष चल रहा है। इस बीच बहुत बड़े-बड़े विद्वान आए चले गए और उन्होंने अपना योगदान इस विश्वविद्यालय को बनाने में दिया। आज मैं एक ऐसे इंसान की सच्ची कहानी बताने जा रहा हूं जो आज दुनिया की नजरो में हो सकता है कि उतना बड़ा आदमी नहीं था, मगर उसने जो किया उसके सामने बड़े से बड़े व्यक्ति का योगदान भी बहुत कम होगा। ऐसा इंसान जिसने कभी सोचा नहीं था कि मैं जो कर रहा हूं, उसका नतीजा क्या निकलेगा।

यह कहानी मैं पहले भी अपने मित्रों को बता चुका हूं। मगर आज के सन्दर्भ में जब दिल्ली विश्वविद्यालय में शताब्दी वर्ष मनाया जा रहा है उस व्यक्ति को याद न करना बेईमानी होगी। वास्तव में ऐसे लोग ही विश्वविद्यालय की नींव के पत्थर हैं जिन्होंने अपने चरित्र, विद्वत्ता और बलिदान से इस विश्वविद्यालय का सिर ऊंचा किया।

“जल्दी करो जल्दी करो तूफान आ रहा है” सब लोग बोल रहे थे और तेजी से भाग रहे थे। धीरे-धीरे बर्फ गिर रही थी और तेज सर्द हवाएं चल रही थीं। प्रो.युधिष्ठिर जत्थे के अंत में चल रहे थे। उनके पीछे भी एक महिला धीरे धीरे आ रही थी।अचानक उन्हें पीछे से आवाज आई, लगा कोई गिरा है। वह भागकर गए और उस महिला को जो बर्फ में धंस गई थी, उसे खींचकर बाहर निकाला।

नहीं नहीं मैं अब नहीं चल सकती- वह धीरे से बुदबुदाई। उसके शरीर में जैसे जान ही नहीं थी। ठण्ड से उसका सारा शरीर नीला पड़ता जा रहा था। बुखार से वह तप रही थी। उसकी सांस फूल रही थी।

युधिष्ठिर जोर से बोले- उठो नहीं तो जम जाओगी। हिम्मत करो।

महिला ने थोड़ी हिम्मत दिखाई। पर उसके पांवों में तो जैसे जान ही नहीं थी। वह फिर बैठ गई।

युधिष्ठिर ने देखा जत्थे के सारे लोग आगे बढ़ गए। सबको अपनी जान की पड़ी थी। किसी को होश नहीं था।

युधिष्ठिर सहायता के लिए अन्य लोगों को पुकारने लगे पर कोई नहीं आया। सब लोग चिल्ला-चिल्लाकर बुलाने लगे- प्रोफेसर साहब जल्दी आओ। यहाँ बच नहीं पाओगे। यह मौत की घाटी है। यहां एक मिनट रुकने का मतलब है मौत।

मानसरोवर यात्रा में यह सबसे कठिन और दुर्गम जगह थी। रात के अँधेरे में उस रास्ते को पार करना होता था, सुबह होते ही सूर्य की रोशनी के साथ ठंडी हवाएं चलने लगती थीं। पारा तो हमेशा कम रहता था, बर्फ पर फिसलन ज्यादा हो जाती थी। इसलिए सुबह होने से पहले उस दर्रे से लोग जल्दी जल्दी निकल जाने की कोशिश करते थे। वहां एक मिनट रुकने का मतलब मौत।

युधिष्ठिर सोच में पड़ गए- क्या करूं? इस महिला को अकेले कैसे छोड़ दूँ? वैसे भी इस महिला के साथ कोई नहीं है। मैं तो इसे जानता भी नहीं हूँ कि यह कौन है। इस जत्थे की सदस्य है और नागपुर से आयी है, बस इतना सा ही परिचय है। नहीं नहीं, ऐसा कुछ नहीं होगा, मैं इसे अकेला नहीं छोड़ सकता। मेरी यात्रा का क्या अर्थ है अगर मैंने किसी जरूरतमंद की सहायता नहीं की।

युधिष्ठिर ने तत्काल हिम्मत करके उस महिला की बाजू को पकड़ा और कहा- उठो। महिला की आँखों में आंसू थे। वह लाचार थी, उठ नहीं सकती थी। उसने हाथ जोड़कर आभार के भाव में धीरे स्वर से कहा- आप मुझे छोड़ दें, मेरी वजह से अपनी जान जोखिम में न डालें।

युधिष्ठिर ने कहा- नहीं ऐसा कुछ नहीं है। आप हिम्मत करो उठो। पर महिला टस से मस नहीं हुई। उसमें जैसे जान ही नहीं थी। धीरे धीरे शिथिलता आने लगी। वह गुमसुम सी हो गई।कोई हलचल नहीं थी। महिला धीरे धीरे ठंडी पड़ गई थी। वह कुछ जवाब नहीं दे रही थी।

युधिष्ठिर ने उस ठिठुरती ठण्ड में चारों ओर देखा। सहायता के लिए चिल्लाये, शायद कोई सहायता के लिए आ जाए। पर दूर दूर तक कोई नहीं था। बर्फ की सफेद चादर बिछी हुई थी। उन्होंने आसमान की तरफ देखा और कहा- किस परीक्षा में डाल दिया प्रभु। इस महिला की रक्षा करो। प्रभु क्षमा करना, मैं इस महिला को नहीं बचा सकता।

युधिष्ठिर रोने लगे। लाचारी और असहाय अवस्था में सिर्फ आंसू निकल रहे थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। इसको अकेला कैसे छोड़ दूँ। अपनी जान बचा भी ली तो जिंदगी भर अपने को माफ नहीं कर सकूंगा। प्रो.युधिष्ठिर ने हिम्मत नहीं हारी।

नहीं, मैं ऐसा नहीं करूँगा। मैं इसे अकेला छोड़कर नहीं जा सकता।

वह जोर जोर से चिल्लाने लगे- कोई है, कोई है, सहायता करो।

उनकी आवाज घाटी में टकराकर वापिस आने लगी। कोई नहीं आया, न कोई इंसान न कोई भगवान। सब जा चुके थे।युधिष्ठिर बार बार उस महिला को पकड़कर उठाने की कोशिश करते पर वह तो जा चुकी थी। उन्होंने उसे किसी तरह पीठ पर लादा। पर हाँफने लगे। थोड़ी दूर तक उसे पीठ पर लादे आगे बढ़े। पर अफसोस, निढाल होकर गिर पड़े। उनकी अपनी सांस रुकने लगी। युधिष्ठिर की अपनी आवाज धीमी पड़ गई।शरीर ठंडा पड़ गया। कुछ बोलने की कोशिश की पर बोला नहीं गया। हाथ पांव ठंडे पड़ गए। दिमाग सुन्न हो गया। आसमान की तरफ देखा जैसे कह रहे हों प्रभु तेरी यह कैसी लीला है … युधिष्ठिर वहीं निढाल होकर उस महिला के पास पड़े रहे। उनकी अपनी साँस रुक गई। शरीर जमने लगा। हवा और बर्फ का एक तेज झोंका आया। सब शून्य हो गया। वहीं दोनों बर्फ में जम गए।

मैं नहीं जानता कि मोक्ष मिलता है या नहीं, पर मानसरोवर की यात्रा करने से मोक्ष मिलता है- ऐसी मान्यता है। प्रो.युधिष्ठिर ने एक अनजान महिला की जान बचाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसके लिए भगवान ने जरूर वहीं अपने प्रांगण में उनको मोक्ष प्रदान किया होगा ।

प्रो.युधिष्ठिर दिल्ली विश्वविद्यालय के अंग्रेजी विभाग में थे। यह बात 1983 के आसपास की है। वह कैलाश मानसरोवर की यात्रा के लिए निकले। उस वक्त यह यात्रा बहुत कठिन होती थी। बहुत दुर्गम रास्ते, भयंकर सर्दी, बर्फानी तूफान, शून्य से भी बहुत नीचे तापमान। कहीं फंस गए तो बचने के बहुत कम आसार। अभी भी यह बहुत कठिन यात्रा मानी जाती है पर अब बचाव के साधन और कई सुविधाएँ उपलब्ध हैं। फिर भी कई दुर्घटनाएं हो जाती हैं इसलिए सरकार सभी एहतियात के तौर पर कदम उठाती है।‌

दिल्ली के एक पुराने समाजवादी गाँधीवादी नेता थे श्री रूपनारायण जी, जो स्वतंत्रता सेनानी भी थे। अब इस दुनिया में नहीं हैं। मेरे प्राध्यापक बनने के बाद उन्होंने एक दिन मुझे कहा कि हरीश खन्ना, तुम्हारी यूनिवर्सिटी में प्रो.युधिष्ठिर नाम के एक व्यक्ति थे, क्या तुम जानते हो? मुझे याद आया एक सफेदपोश व्यक्ति हमेशा यूनिवर्सिटी में दिखलाई देते थे, शायद वही प्रो. युधिष्ठिर थे। उस वक्त मुझे ज्यादा जानकारी नहीं थी। मेरी अनभिज्ञता को देखते हुए उन्होंने यह घटना मुझे सुनाई।

सुनाते सुनाते बहुत भावुक हो गए और कहा कि एक अनजान महिला के लिए अपने प्राण उस व्यक्ति ने दे दिए और आज उसे कोई जानता तक नहीं। इस घटना के बारे में कहीं से जानकारी उन्होंने इकट्ठा की और कई मंत्रियों को भी पत्र लिखकर मांग की कि प्रो .युधिष्ठिर के नाम पर कोई हॉल या स्थान का नामकरण विश्वविद्यालय में किया जाए या उनके नाम पर चेयर शुरू की जाए ताकि लोग उनसे प्रेरणा ले सकें। उन दिनों जब मैं दिल्ली विश्वविद्यालय की एकेडेमिक कौंसिल का सदस्य बना तो मैंने इस घटना का जिक्र शून्यकाल में किया था और इस मांग को उठाया भी था। पर नतीजा उसका शून्य ही था। पत्थरों के इस शहर में किसी ने इस संवेदनशील व्यक्ति और घटना पर ध्यान नहीं दिया।

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