— अरमान अंसारी —
बेतिया से दिल्ली आते समय ट्रेन में शाहिल और उसके अब्बा से मुलाकात हुई। शाहिल की उम्र तेरह-चौदह साल की है।कोविड की तालाबंदी के पहले, शाहिल पूर्वी चंपारण, मोतिहारी के एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाई कर रहा था। तालाबंदी के कारण स्कूल बंद हो गए, उसकी पढ़ाई छूट गई।जब कोविड का प्रभाव कम हुआ, दुबारा स्कूल खुले तो स्कूल ने बहुत सारी रकम फीस के रूप में जमा करने की मांग की।शाहिल के पिता मजदूरी करके घर का खर्च चलाते हैं। वे उतनी सारी रकम एकसाथ जमा नहीं कर सके। पिता ने शाहिल का नाम सरकारी स्कूल में लिखवा दिया। शाहिल ने स्कूल जाना शुरू कर दिया। मोतिहारी के जिस सरकारी विद्यालय में शाहिल की पढ़ाई दुबारा शुरू हुई थी, उसमें शिक्षकों की संख्या इतनी कम है कि शिक्षकों द्वारा बच्चों को पढ़ाने की बात तो दूर, वे कक्षा में बच्चों को कुछ कार्य देकर उन्हें व्यस्त भी नहीं कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में बच्चे आपस में मारपीट करना शुरू कर दिए। पूरे माहौल का प्रभाव शाहिल पर पड़ा।उसके पिता कहते हैं, अब शाहिल का मन पढ़ने में नहीं लगता, इसलिए इसे नोएडा ले जा रहा हूँ, वहाँ कार के किसी गैराज में लगा दूंगा, जहां कुछ काम-धंधा सीख लेगा। थोड़ी आमदनी होगी तो मुझे भी सहारा मिलेगा।
शाहिल का संबंध मुस्लिम समाज के पसमांदा तबके से है जिसकी बात प्रधानमंत्री ने भी की है। यदि वह पढ़ पाता तो उसके परिवार में शिक्षा पानेवाली उसकी पहली पीढ़ी ही होती।शिक्षा के कारण शाहिल और उसके परिवार के जीवन में क्या-क्या बदलाव आता, अब इसकी कल्पना ही की जा सकती है। यह कहानी मात्र शाहिल की नहीं है, उसके जैसे बहुत सारे बच्चों की है। कोरोना काल में तालाबंदी के कारण बहुत सारे माता-पिता के काम धंधे बंद हो गए या उनकी नौकरी चली गई। कोरोना का प्रभाव कम हुआ तो स्कूल खुले। बहुत सारे मां-बाप की वह आर्थिक स्थिति नहीं रही कि वे अपने बच्चों को फिर से निजी विद्यालयों में भेज सकें। इसके कारण बहुत सारे बच्चों की पढ़ाई छूट गई। उनमें ज्यादातर बच्चे काम-धंधे में लग गए। पढ़ाई से दूर हो गए। पढ़ाई की प्रक्रिया में उनकी वापसी होगी इसकी संभावना कम दिखाई पड़ती है।
इनमें सबसे ज्यादा परेशानी लड़कियों के साथ हुई है। हम सब जानते हैं कि भारतीय समाज पुरुषवादी मानसिकता से संचालित होता है। अभी भी लड़कियां पराये घर की वस्तु मानी जाती हैं। लड़कियों के मामले में ग्रामीण इलाकों में ज्यादातर मां-बाप की सोच पुरातन है। वे मानते हैं कि लड़की जितनी जल्दी अपने घर जाकर बस जाए उतना ही अच्छा। इस तमाम मानसिकता ने तालाबंदी के साथ मिलकर लड़कियों के जीवन में भारी बदलाव लाया, इससे ऐसा नुकसान हुआ है जिसकी भरपाई नहीं हो सकती है।
दूसरी घटना भी बिहार की है। इस घटना का वीडियो खूब वायरल हुआ, जिसमें एक सोनू नाम का लड़का जिसका संबंध मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के गांव से है, मुख्यमंत्री के सामने हाथ जोड़कर उनसे पढ़ने देने की अपील करता है और मुख्यमंत्री एक मासूम की तरह अधिकारियों से कह रहे हैं कि इसे कौन पढ़ने से रोक रहा है, पढ़ना चाहता है तो पढ़े ना! ये दोनों घटनाएं बिहार की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था की पोल खोलती हैं। क्या मुख्यमंत्री को छात्र-शिक्षक अनुपात पता नहीं हैं! जो शिक्षक शिक्षण-कार्य में लगे हुए हैं उनकी शिक्षण-गुणवत्ता का पता सरकार को नहीं है? अन्य दूसरे तरह के संसाधनों का विद्यालयों के पास घोर अभाव है। मुख्यमंत्री और उनकी सरकार को अवश्य यह सब पता होगा जिनकी वजह से गुणवत्तापूर्ण सार्वजनिक शिक्षा नहीं दी जा सकती है।
यह एक तल्ख सच्चाई है कि बिहार के विद्यालयों में पढ़ानेवाले ज्यादातर शिक्षक युवा हैं जो घर के आसपास के विद्यालयों में ही शिक्षण कार्य को अंजाम दे रहे हैं लेकिन उन शिक्षकों के बच्चे भी सरकारी विद्यालयों में पढ़ने नहीं जाते हैं। इसका मतलब है कि स्वयं शिक्षकों को अपने अध्यापन पर भरोसा नहीं है।
2015 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने अपने एक फैसले में राज्य सरकार को यह निर्देश दिया था कि, जिसको भी सरकारी खजाने से वेतन मिलता है वह अपने बच्चे को अनिवार्य रूप से सरकारी विद्यालय में पढ़ाए और राज्य सरकार इसकी व्यवस्था करे। यदि इस फैसले को लागू किया गया होता तो सार्वजनिक शिक्षा के क्षेत्र में अभूतपूर्व बदलाव आ जाता। जब सरकारी विद्यालयों में अधिकारियों, विधायकों, सांसदों, मंत्रियों के बच्चे पढ़ते तो सरकार, सरकारी विद्यालयों को प्रचुर मात्रा में संसाधन उपलब्ध कराती, शिक्षा की गुणवत्ता का पूरा ध्यान रखा जाता। जैसा कि विकसित दुनिया के तमाम देशों में होता है। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।
बिहार सरकार के मुखिया नीतीश कुमार की पृष्ठभूमि गांधी, लोहिया, जयप्रकाश वाली समाजवादी विचारधारा की रही है। उन्होंने अपने छात्र जीवन में यह नारा जरूर लगाया होगा : ‘राष्ट्रपति का बच्चा हो या हो चपरासी की संतान, सबको शिक्षा एक समान’। अब वे सरकार में हैं, सरकार के मुखिया हैं, अब उन्हें इस दिशा में ठोस काम करने की जरूरत है।
अपने एक कार्यकाल के दरम्यान नीतीश सरकार ने मुचकुंद दूबे के नेतृत्व में ‘समान शिक्षा आयोग’ का गठन किया था। आयोग ने अपनी रपट सरकार को सौंप दी। लेकिन सरकार ने उस रिपोर्ट पर क्या काम किया यह सरकार ही बता सकती है! वर्तमान में बिहार की शिक्षा व्यवस्था को देखने से तो नहीं लगता कि सरकार ने इस संदर्भ में कुछ ठोस काम किया है।
जहाँ तक बिहार में उच्च शिक्षा का प्रश्न है, बिहार के लगभग सभी विश्वविद्यालयों में पढ़ने-पढ़ाने की संस्कृति लगभग समाप्त हो चुकी है। विश्वविद्यालय और कॉलेज केवल नामांकन और परीक्षा के लिए इस्तेमाल किये जाते हैं।
हाल में बाबा साहेब भीमराव आम्बेडकर, बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर के सहायक प्रोफेसर ललन कुमार ने कॉलेज और विश्वविद्यालय में कक्षा न होने की बात कही थी। श्री ललन ने विश्वविद्यालय को उस धनराशि को लौटाने की पेशकश की थी जो उन्हें विश्वविद्यालय में अध्यापन के लिए प्रदान किया गया था। उनका कहना था कि जब कक्षा नहीं तो वेतन किस बात का? बाद में कॉलेज और विश्वविद्यालय प्रशासन के दबाव में प्राध्यापक ललन कुमार को अपनी बातों को बदलना पड़ा और उन्हें माफी मांगनी पड़ी। लेकिन यह तथ्य है कि है बिहार के कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पठन-पाठन अब बहुत कम होता है। इसके कई कारण हैं। सबसे महत्त्वपूर्ण कारकों में से एक है कॉलेज और विश्विद्यालयों में शिक्षकों का अभाव।
बिहार के विश्वविद्यालय और कॉलेज अरसे से शिक्षकों की कमी के शिकार हैं। छात्र नामांकन और परीक्षा फार्म भरने कॉलेज जाते हैं। यह आरोप लगता है कि छात्र कॉलेज नहीं आते हैं, यदि छात्र कॉलेज जाए भी तो उन्हें वहाँ कौन पढ़ाएगा?
कुछ अतिथि शिक्षकों की नियुक्ति सरकार ने की भी है तो वे ऊंट के मुँह जीरा के समान हैं। इस सब का प्रभाव पूरी शिक्षा व्यवस्था पर पड़ रहा है। बिहार के लगभग सभी विश्वविद्यालयों के सत्र 2 से 3 साल तक पीछे हैं। स्नातक की सामान्य डिग्री तीन साल में पूरी हो जानी चाहिए लेकिन इसे पूरा होने में छह साल या उससे ज्यादा वक़्त लग जाता है। इन तमाम कारणों से बिहार के विद्यार्थियों का पलायन बड़े पैमाने पर बढ़ा है।
राजनीति के क्षेत्र में बिहार ने एक नयी शुरुआत की है। अब समान विचार वाले दल सरकार में हैं। नयी सरकार के शिक्षामंत्री ने दिल्ली के शिक्षा मॉडल को अपनाने की बात कही है। मंत्री जी को दिल्ली के शिक्षा मॉडल का अंधानुकरण करने के बजाय ‘समान शिक्षा आयोग’ की रपट लागू करने की पहल करनी चाहिए। ‘समान स्कूल प्रणाली’ के बिना सबको गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं दी जा सकती। वहीं दिल्ली की शिक्षा व्यवस्था ‘समान स्कूल प्रणाली’ का विकल्प नहीं हो सकती, जिसकी सिफारिश कोठारी आयोग ने की थी।