— संजय गौतम —
प्रख्यात चित्रकार, साहित्यकार, रंगकर्मी, मूर्तिकार एवं कलाचिंतक अशोक भौमिक के प्रकाशित अप्रकाशित निबंधों का संग्रह है- भारतीय चित्रकला का सच। अशोक भौमिक की पहचान न सिर्फ अपने चित्रों के अनूठेपन एवं विशिष्टता के कारण है, बल्कि उन जनोन्मुख विचारों के लिए भी है, जिनके लिए वह संघर्ष करते रहे हैं, सक्रिय रहे हैं और पूरे देश में उनकी अलख जगाते रहे हैं। उन्होंने बाजार की चित्रकला के बरक्स जनता की चित्रकला पर जोर दिया है, भारतीय चित्रकला के धार्मिक कला में पर्यवसित हो जाने को रेखांकित किया है और चित्रकला को स्वतंत्र रूप से देखने, उसकी समझ बनाने और उसे लोकाभिमुखी बनाने को लेकर विचार प्रस्तुत किए हैं। इन्हीं बीज तत्त्वों को हम इस किताब में पल्लवित होते हुए देखते हैं।
अशोक भौमिक भारतीय चित्रकला की निरंतरता को लेकर प्रश्न उठाते हैं और यह रेखांकित करते हैं कि कोलकता में ‘द इंडियन सोसायटी आफ ओरियंटल आर्ट’ की स्थापना के माध्यम से ‘नव भारतीय कला’ को आगे बढ़ाने के जो प्रयास किए गए, उसकी परिणति हिंदू धार्मिक कला में हुई। अंग्रेजों द्वारा जानबूझ कर यह किया जा रहा था, जिससे बंगभंग का आधार मजबूत हो, “यहाँ यह कहने की जरूरत नहीं कि बीसवीं सदी के आरंभिक वर्षों में, चित्रकला का हिंदूकरण अकारण ही नहीं हो रहा था, ठीक इसी समय लार्ड कर्जन धर्म के आधार पर बंगाल को दो हिस्सों में बॉंटने का षड्यंत्र कर रहे थे और साहित्य, संगीत, रंगमंच में जहाँ इसके विरोध में रचनाकारों के स्वर मुखर हो रहे थे, वहीं चित्रकला के इस हिंदू रुझान ने अंग्रेजों की साजिश को कुछ हद तक सफल बनाया’ (पृ.20)। इस कार्य में अंग्रेजों के अलावा भारतीय चित्रकारों में अवनींद्रनाथ ठाकुर और नंदलाल बोस जैसे चित्रकार थे। इन चित्रकारों ने भारतीय चित्रकला के नैरंतर्य की खोज के लिए वैदिक काल से लेकर अजंता-एलोरा की गुफाओं तक के चित्रों का अध्ययन किया, लेकिन अशोक भौमिक के अनुसार यह निरंतरता इसलिए नहीं बन पाती, क्योंकि डेढ़ हजार वर्षों तक इन चित्रों के बारे में लोगों को पता ही नहीं था।
महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ‘द इंडियन सोसायटी ऑफ ओरियंटल आर्ट’ से जुड़े हुए कलाकारों ने जिस तरह के चित्रों को प्राथमिकता दी, जिस तरह के चित्र सबसे ज्यादा मात्रा में बनाए गए, उनसे रवींद्रनाथ ठाकुर के चित्र एकदम अलग हैं। सही मायने में रवींद्रनाथ ठाकुर ने भारतीय चित्रकला को संदर्भों एवं कथाओं से स्वायत्त किया। वह चित्र की कलाकार द्वारा व्याख्या करने की जरूरत नहीं समझते। उनसे जब किसी ने उनके चित्रों के बारे में पूछा, वे मौन रहे। उनका मानना था कि चित्र देखने, खुद समझने के लिए हैं और दर्शक को ऐसा ही करना चाहिए। उसे किसी व्याख्या की जरूरत नहीं पड़नी चाहिए। उल्लेखनीय है कि रवींद्रनाथ ठाकुर अपने जीवन के उत्तरार्ध यानी 1930 के आसपास चित्र रचना के क्षेत्र में आए। उन्होंने “अपने चित्रों के माध्यम से एक आधुनिक भारतीय चित्रकला का सूत्रपात किया और हजारों वर्षों से चली आ रही परंपरा की तनिक भी परवाह किए बगैर कला इतिहास में पहली बार आम आदमियों को अपने चित्रों में स्थान दिया। यही नहीं अपने जीवन के अंतिम दशक में बेहद सक्रियता के साथ उन्होंने हजारों चित्र बनाए पर उनके एक भी चित्र में किसी देवी देवता या राजपुरुष को स्थान नहीं मिला।……..साहित्यकार रवींद्रनाथ और चित्रकार रवींद्रनाथ का मूल्याकंन बिलकुल भिन्न दो ध्रुवों के व्यक्तियों के रूप में होना चाहिए।”(पृ122-123)
अशोक भौमिक ने बाजारोन्मुखी चित्रकला के तंत्र को न सिर्फ उजागर किया है, बल्कि उसकी भर्त्सना भी की है। 1947 में एफ.एन. सूजा, एम.एफ. हुसैन, एस.एच. रज़ा जैसे कलाकारों ने प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट ग्रुप बनाकर राष्ट्रीय अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अपना बाजार कायम किया और इनके चित्रों की बिक्री लाखों में हुई। इसका नकारात्मक असर समकालीन चित्रकला पर पड़ा, “वास्तव में कला के मानदंडों का निर्धारण केवल वे ही करने के हकदार होते हैं, जिनका जीवन-मरण कला से जुड़ा होता है, कला के बाजार से नहीं। युगों से धनी क्रेता या पृष्ठपोषक इसी मूल्याकंन को आधार मानते आए हैं और भारतीय समकालीन चित्रकला की दयनीय स्थिति इस मूल सिद्धांत की उपेक्षा के कारण ही हुई इसमें कोई संदेह नहीं।” (पृ.55)
इस किताब में इस बात की चर्चा भी विस्तार से की गई है कि भारतीय चित्रकला का एक बड़ा हिस्सा पौराणिक कथाओं, मिथकों, धार्मिक विश्वासों का चित्रण करनेवाला रहा है और अभी भी है। वस्तुत: देखा जाए तो यह चित्रण ही है, चित्रकला नहीं। हमेशा ही चित्रों में कथा खोजने का अभ्यासी मन चित्रों को देखने की सही समझ नहीं विकसित कर पाया। इसकी वजह से चित्रों की स्वतंत्र इयत्ता बनने में मुश्किल आई।
अपने चित्रों के माध्यम से जनचेतना को मुखर करनेवाले चित्रकारों सादेकैन, देवव्रत मुखोपाध्याय, सोमनाथ होर के चित्रों पर अलग-अलग अध्यायों में विस्तार से चर्चा की गई है और इनके योगदान को रेखांकित किया गया है। सादेकैन साहब ने एक बार खूबसूरत चेहरे के बारे में कहा था सारे दिन हाड़तोड़ मेहनत के बाद जब एक थका हुआ मजदूर आराम की नींद ले रहा होता है, तो मुझे उसका चेहरा सबसे खूबसूरत लगता है। (पृ.32) इस दृष्टिकोण से हम जनोन्मुख कलाकारों के सौंदर्य बोध का अनुभव कर सकते हैं और उनके चित्रों के विषय को भी समझ सकते हैं।
किताब में ‘युद्ध, अकाल और चित्रकला’, ‘विभाजन और भारतीय चित्रकला’, तथा ‘महात्मा गांधी और चित्रकला’ अध्यायों के माध्यम से बीसवीं शती में प्रगतिकामी भारतीय चित्रकला के साथ ही दुनिया के महत्त्वपूर्ण चित्रों का परिचय भी विस्तार से मिल जाता है। चित्रों को देते हुए उनका विश्लेषण किया गया है, जिससे पाठकों में चित्रों के प्रति एक समझ बनती है। इन अध्यायों में हम जार्ज क्लौसन, ओट्टो डिक्स, पाब्लो पिकासो, रवींद्रनाथ ठाकुर, जैनुल आबेदीन, चित्त प्रसाद, रामकिंकर बैज, अतुल बसु, कमरुल हसन, सोमनाथ होर, सुधीर खस्तगीर, गोवर्धन आश, सतीश गुजराल, के.के.हेब्बार, एन.एस.बेंद्रे, वी.प्रभा जैसे चित्रकारों के चित्रों को देखते हैं और अकाल की त्रासदी का अनुभव करते हैं।
महात्मा गाँधी पर देश और दुनिया में सर्वाधिक चित्र और मूर्तियां बनाई गईं। इन चित्रों में गांधी के अलग-अलग रंग उभरते हैं। भारतीय चित्रों में कई चित्रकारों ने गाँधी को धार्मिक प्रतीकों से जोड़ा है। विश्व के चित्रकारों ने अपनी दृष्टि से चित्र बनाए हैं। किताब में फेलिक्स टोपोल्सकी (1907-1989) का चित्र दिया गया है, जिसे उन्होंने 1946 में बनाया था। इस चित्र में उनकी हत्या का संकेत है। लेखक ने संदेह व्यक्त किया है कि चित्र बनाने का समय गलत अंकित हो सकता है। चित्रकला के बारे में महात्मा गांधी के विचार भी अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, ‘इसकी क्यों जरूरत हो कि चित्रकार खुद अपना चित्र मुझे समझाए। चित्र ही अपनी बात मुझ तक क्यों नहीं पहुंचा पाएं। मैंने वेटिकन में क्रास पर लटके ईसा की एक मूर्ति देखी, जिसे देख मैं स्तब्ध रह गया। बेलूर में एक प्रतिमा मुझे अलौकिक लगी, जिसने मुझसे खुद बातें कीं, बिना किसी समझाने वाले की मदद से।’ (पृ.195) यह बात रवींद्रनाथ ठाकुर की बात से मिलती-जुलती तो है ही, इससे चित्रों के प्रति महात्मा गांधी के आंतरिक लगाव का भी पता चलता है।
‘चित्रकला में लाइन’, ‘स्पेस’ और बिंदु’ नामक अध्याय में चित्रकला के तकनीकी पहलुओं की जानकारी उदाहरण के साथ दी गई है, इससे चित्रकला के व्याकरण से अपरिचित पाठकों को बहुत लाभ मिलेगा।
इस किताब को पढ़ते हुए हमारा परिचय भारतीय चित्रकला के इतिहास से तो होता ही है, विश्व के प्रमुख चित्रकारों की कृतियों के बारे में भी जान पाते हैं। चित्रकला का बाजार बनानेवाले चित्रकारों की सीमाओं का पता चलता है, भारतीय चित्रकला के धार्मिक बिंदुओं पर ढलने की सीमाएं सामने आती हैं तो युद्ध अकाल, महात्मा गांधी के परिप्रेक्ष्य में उनकी ताकत का भी अंदाजा लगता है। किताब में बाजारोन्मुखी अभिजात चित्रकला के बरक्स जनाभिमुखी कला का पक्ष मजबूती से रखा गया है। सबसे ज्यादा जोर चित्रकला की समझ के बारे में दिया गया है। इस विमर्श से चित्रों को देखने की दृष्टि बनती है और उसका विस्तार होता है। लेखक का उद्देश्य भी प्रकारांतर से यही है।
किताब – भारतीय चित्रकला का सच
लेखक – अशोक भौमिक
प्रकाशन – परिकल्पना, बी-7 सरस्वती कांप्लेक्स
सुभाष चौक, लक्ष्मीनगर, दिल्ली-110092
मोबा.9968084132
मूल्य – 375.00 मात्र