(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)
इस्लाम का उदय एक धार्मिक आंदोलन की अपेक्षा एक राजनीतिक आंदोलन के रूप में हुआ। अपने इतिहास के प्रारंभिक चरणों में उसने अरब के रेगिस्तान में रहनेवाली जनजातियों- बद्दुओं में एकता स्थापित की। उस लक्ष्य की प्राप्ति के बाद राजनीतिक और धार्मिक एकता के सिद्धांत के झंडे के नीचे रोम साम्राज्य के एशियाई और अफ्रीकी प्रांतों को लाया गया और उनमें व्याप्त प्राचीन सामाजिक व्यवस्था को नष्ट किया गया। इसके पहले का विद्रोह भ्रष्ट हो गया था। ईसाई धर्म ने अपना प्रारंभिक क्रांतिकारी स्वरूप छोड़ दिया था और वह सामाजिक विलयन (मठवाद) के सिद्धांत में फँस गया था और दूसरी ओर पतनोन्मुख साम्राज्यों का पोषक बन गया था। लेकिन सामाजिक संकट लगातार बना रहा और ईसाई धर्म के पतन से वह अधिक गंभीर हो गया। अरब व्यापारियों के कारवाँओं ने नई आशा और मुक्ति का संदेश दिया, जो भ्रष्ट, पतनोन्मुख रोम साम्राज्य के प्रभाव से मुक्त थे और वे अपनी लाभजनक स्थिति से समृद्धिशाली हो गए थे। इस्लाम के विद्रोह ने मानव-जाति को पतन के गर्त से बचा लिया।
इस्लाम के इतिहास के प्रसिद्ध आधिकारिक इतिहासकार ओकले ने अपनी पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ सरासिंस’ में हजरत मुहम्मद के लक्ष्य के संबंध में लिखा है- “उन्हें पूरा अरब राष्ट्र तेजी से विकास के ज्वार की स्थिति में मिला था, जिसमें ज्ञान और शक्ति प्राप्त करने की महत्त्वाकांक्षा थी। अरब के जन-साधारण में व्याप्त उत्तेजना ने हजरत मुहम्मद के लक्ष्य को उत्पन्न किया था और कुछ अन्य मसीहाओं को उनके जीवनकाल में ही उत्पन्न किया था।”
जो लोग इस्लाम के इतिहास का संक्षेप में यह कहकर उल्लेख करते हैं कि वह धर्मांध-दस्तों का नाटकीय अभियान था, जिसने कुरान और तलवार के विकल्प से लोगों को चकाचौंध कर दिया था और जो ‘अल्लाहो-अकबर’ का नारा लगाते थे, वे यह नहीं जानते थे अथवा जानकर उसे नजरअंदाज कर देते हैं कि हजरत मुहम्मद के बाद उनके उत्तराधिकारियों ने भौतिक और धार्मिक विजयों में अपने को लगाये रखा, वे लोग भी ‘अलारिक, अटीला, जेनसेरिक, चंगेज अथवा तेमूरलंग’ की तुलना में अधिक सभ्य और मानवीय गुणों से ओत-प्रोत थे। उनमें अपने लक्ष्य के प्रति निष्ठा और आत्मा की पवित्रता थी। उनकी निष्ठा को अंधविश्वास से चाहे बल मिला हो, लेकिन उनमें आडंबर नहीं था। उनका कट्टरपन उदारता और सामान्य ज्ञान से कम कठोर हो गया। उनकी महत्वकांक्षा में व्यक्तिगत स्वार्थ का अभाव था। ईश्वरीय प्रेम उनके लिए अपने लोभ को छिपाने का आवरण नहीं था।
इतिहास में बहुत कम व्यक्ति हैं जो इस्लाम के पहले खलीफा अबूबकर से अधिक भावनावादी, भक्त, ईमानदार और विनम्र हों। उन्होंने ‘अल्लाह की फौज’ को स्मरणीय आदेश दिया था- ‘ईमानदार रहो, बेईमान कभी उन्नति नहीं करता। बहादुर बनो, आत्मसमर्पण करने से अच्छा है कि युद्ध में वीरगति प्राप्त करो। दयावान बनो, बूढ़ों, औरतों और बच्चों की कभी हत्या मत करो। फलदार वृक्षों को, अनाज और पशुओं को नष्ट मत करो। दुश्मन को दिए गए अपने वचन का पालन करो। जो लोग संसार से अलग होकर रहते हैं उनको मत सताओ।‘ अल्लाह की सेना के सेनापतियों ने अपनी खलीफा के इन आदेशों का ईमानदारी से पालन किया और सच्चे अनुयायी के रूप में उनका आदर किया।
हर स्थान पर सरासेनी (अरब) आक्रमणकारियों का दबे हुए, प्रताड़ित और बेजेंटाइन साम्राज्य के भ्रष्टाचार से दुखी लोगों ने मुक्तिदाता के रूप में स्वागत किया। फारस के निरंकुश शासकों और ईसाई अंधविश्वासों से पीड़ित लोगों ने भी उनका स्वागत किया। हजरत मुहम्मद की क्रांतिकारी शिक्षाओं का कठोरता से पालन करते हुए उन्होंने अपने खलीफाओं के आदेशों का पालन किया। वे आदेश व्यावहारिक, उदार और सज्जनता से परिपूर्ण थे। सरासेनी आक्रमणकारियों को पराजित लोगों की सहानुभूति और समर्थन मिला। कोई भी विजेता, पराजित लोगों पर अपना स्थायी आधिपत्य तब तक स्थापित नहीं कर सकता जब तक कि पराजित लोगों का उन्हें सक्रिय सहयोग न मिले और उनमें सहनशीलता न हो।
दूसरे खलीफा हुए उमर, जिनकी अश्वारोही सेना ने फारस के साम्राज्य पर विजय प्राप्त की और एक ओर उनका अधिकार ओक्सस नदी के तट पर था तो दूसरी ओर उन्होंने रोम साम्राज्य के प्रसिद्ध नगर सिकंदरिया पर कब्जा कर लिया। उन्होंने स्वयं ऊँट की सवारी से यरुशलम पर अधिकार कर लिया। उनकी सेना का साज-समान और खाने-पीने का सामान ऊँटों पर लाद कर वहाँ पहुँच गया था। उस समय उनके पास मोटे ऊन का बना हुआ एक तंबू था, एक बोरे में अनाज और दूसरे बोरे में खजूरें थीं। पानी का एक लकड़ी का बँधना था और एक छोटी मसक में पानी था। इतिहासकार गिबन ने अरब के इस खलीफा की सादगी, न्यायप्रियता और सत्यनिष्ठा की प्रशंसा की है, जिसने फारस, मैसोपोटामिया, सीरिया, फिलस्तीन और मिस्र पर विजय प्राप्त की थी।
उसने लिखा है, “वे जहाँ-कहीं भी डेरा डालते थे, बिना किसी भेदभाव के लोगों को अपने पास बुलाते थे और उनके साथ नमाज अदा करते थे और उसके बाद अपनी सेना के सैनिकों को अपने ओजपूर्ण भाषण से उत्साहित करते थे। अपने अभियानों और तीर्थ-यात्राओं में वे न्यायपूर्ण प्रशासन करके अपनी सत्ता का प्रयोग करते थे। उन्होंने अरब लोगों में व्याप्त बहुपत्नीवाद की प्रथा को समाप्त किया और अपने अधीन क्षेत्रों से निर्दयता से लूट-खसोट करने की पद्धति समाप्त की। उन्होंने सरासेनी लोगों की विलासिता पर अंकुश लगाया और उनके पास एकत्र कीमती रेशमी वस्त्र लेकर उनके सामने ही उन्हें धूल में फेंक दिया।”
(दि डिक्लाइन एण्ड फाल ऑफ रोमन इम्पायर – गिबन)
खालिद, जिन्हें हजरत मुहम्मद ‘अल्लाह की तलवार’ के नाम से पुकारते थे, अरब सेना के महान योद्धा थे। उन्होंने अपनी वीरता से अरब को एकछत्र राज्य में परिणत किया और मैसोपोटामिया और सीरिया को इस्लाम के झंडे के नीचे ला दिया। मरते वक्त उनके पास केवल एक घोड़ा, अपने हथियार और एक गुलाम था। उस वीर पुरुष ने अपने यौवनकाल में यह घोषणा की थी कि सीरिया के स्वादिष्ट भोजन और संसार के सुखों के कारण नहीं, वरन धर्म के लिए, अपने खुदा और अपने रसूल के लिए मैंने अपना जीवन अर्पण किया है।
(अब्दुल फिदा नामक इतिहासकार द्वारा वर्णित)
मिस्र का विजेता ओमरू अपनी वीरता और शौर्य के साथ-साथ स्वयं एक कवि भी था। उसने खलीफा उमर को अपनी रिपोर्ट भेजी, उसमें एक स्थल पर कहा गया है, ‘इस देश के पशुपालकों की, जो जमीन की सतह को काला किये हुए हैं, तुलना मेहनती चींटियों के समूह से की जा सकती है और उन लोगों के आलस्य को उनके मालिकों के कोड़ों से दूर किया जाता है। लेकिन वे लोग, जो संपत्ति अथवा धन उत्पन्न करते हैं, उसका बँटवारा मजदूरों और मालिकों के बीच समान रूप से नहीं किया जाता है।’ वह दृष्टिकोण अपने समय से बहुत आगे का था। सभी देशों की प्राचीन सभ्यताओं में सामाजिक न्याय का विचार नहीं था। मेहनत करनेवाले लोग गुलाम अथवा शूद्र माने जाते थे और वे घृणा के पात्र समझे जाते थे और उनका शोषण किया जाता था। उन लोगों को मानव नहीं माना जाता था।
पहले खलीफा ने जिन आर्थिक सिद्धांतों को अपने निर्देशों में शामिल किया था उनमें अरब व्यापारियों के हितों के आधार पर पुराने सामाजिक विचार में क्रांतिकारी परिवर्तन किया था। उसमें कहा गया था कि जब मेहनतकश जनता की मेहनत की कमाई उसके पास रहेगी तो उससे व्यापार बढ़ेगा। उन्होंने फरोहाओं और पटोल्मी लोगों के राज्यों की प्रशंसा की थी और उन पर अरब विजय के बाद उन्होंने अपने सेनापतियों को उन असमानताओं को दूर करने का आदेश दिया था जिनसे उनके कवि-हृदय को चोट पहुँची थी। यूनानियों और रोम के शासकों ने सदियों से मिस्र को लूटा था, लेकिन अरबों के आधिपत्य के बाद वहाँ समृद्धि आयी थी।