इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका – एम.एन. राय : तेरहवीं किस्त

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एम.एन. राय (21 मार्च 1887 - 25 जनवरी 1954)

(भारत में मुसलमानों की बड़ी आबादी होने के बावजूद अन्य धर्मावलंबियों में इस्लाम के प्रति घोर अपरिचय का आलम है। दुष्प्रचार और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति के फलस्वरूप यह स्थिति बैरभाव में भी बदल जाती है। ऐसे में इस्लाम के बारे में ठीक से यानी तथ्यों और ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य समेत तथा मानवीय तकाजे से जानना समझना आज कहीं ज्यादा जरूरी है। इसी के मद्देनजर हम रेडिकल ह्यूमनिस्ट विचारक एम.एन. राय की किताब “इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका” को किस्तों में प्रस्तुत कर रहे हैं। आशा है, यह पाठकों को सार्थक जान पड़ेगा।)

इस्लाम का दर्शन

रब का ज्ञान-युग करीब पाँच सौ वर्ष चला और उन दिनों यूरोपीय इतिहास में अंधकार युग था। उसी अवधि में भारत जमीन पर औंधा पड़ा हुआ था, उस समय ब्राह्मण प्रतिक्रिया का जोर था और बौद्ध धर्म का पतन हो गया था और वह भ्रष्ट हो चुका था। बाद में बौद्ध क्रांति के पतन के बाद भारत मुसलमान आक्रमणकारियों के सामने ढह गया।

अब्बासी, फातमी और ओमीनाई शासकों के अधीन क्रमशः ज्ञान और संस्कृति का विकास एशिया, उत्तरी अफ्रीका और स्पेन में हुआ। समरकंद और बुखारा से फैज और कोरडोवा तक अनेक विद्वानों ने ज्योतिष, गणित, भौतिक विज्ञान, रसायन विज्ञान, चिकित्सा और संगीत की शिक्षाएं ग्रहण कीं और उनका अध्यापन कार्य किया। यूनानी दर्शन का बहुमूल्य कोश ईसाई चर्चों की असहिष्णुता और पाखंड के कारण दबा पड़ा था। यदि अरब लोगों ने उसका उद्धार न किया होता तो वह नष्ट हो जाता और उससे कितना नुकसान होता, इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है।

ईसाईयों ने निरर्थक पवित्रता और पुण्यात्मा बनने के छल के आधार पर प्राचीन विज्ञान को अशुद्ध कहकर उसकी उपेक्षा की थी। अज्ञान के उस अहंकार के परिणामस्वरूप यूरोप के लोग मध्ययुगीन अंधकार में डूब गए और उनके उस पतन को रोकने का कोई उपाय नहीं था। प्राचीन यूनान के विचारकों के दैवी ज्ञान-ज्योति के पुनरुद्धार से अज्ञान और पाखंड, दुर्भावना और असहिष्णुता से उत्पन्न अहंकार समाप्त हुआ और यूरोप के निवासियों को भौतिक समृद्धि, बौद्धिक विकास और आध्यात्मिक मुक्ति का रास्ता मिला। यह कार्य अरब दार्शनिकों और वैज्ञानिकों ने पूरा किया और यूनानी पूर्वजों का ज्ञान आधुनिक विवेकवादियों तक पहुंचा। विज्ञान की शोध के क्षेत्र में रोजर बेकन अरबों का शिष्य था। हमवोल्ट के मतानुसार अरब लोगों को भौतिक विज्ञानों का संस्थापक समझना चाहिए, आज जिस अर्थ में उनका महत्त्व है उसके लिए अरब लोगों को श्रेय है’ – (एलेक्जैण्डर बानहम बोल्ट, कासमस, खंड – 2)। प्रयोग और गणना, नाप-तौल – ऐसे महान अस्त्र हैं जिनसे प्रगति का मार्ग प्रशस्त होता है और इनके द्वारा यूनान की वैज्ञानिक उपलब्धियों को आधुनिक युग से जोड़ा जा सकता है।

अलकाजी, अलहसन, अलफराकी, अबीसीना, अलगजाली, अबूबकर, अवेमपाक, अल फेटराजियम (इन अरब नामों का यूरोपीय भाषाओं के इतिहास में उल्लेख है) – इन सभी नामों को मानव-संस्कृति के इतिहास में अविस्मरणीय माना जाता है। महान अबेरोस ने आरिस्टॉटिल के ज्ञान को आधुनिक सभ्यता को प्रदान किया और ऐसा करके उसने यूरोप की मानव-जाति को धार्मिक पाखंड और निष्प्राण पाण्डित्य के पक्षाघाती प्रभाव से मुक्त किया। महान अरब विवेकावादियों ने, जो 12वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुए थे, सुल्तान अंदालूसिया के बौद्धिक संरक्षण में जो कार्य किया उसकी प्रशंसा करते हुए रोजर बेकन ने लिखा है :  ‘अबेरोस ने प्रकृति की व्याख्या प्रस्तुत की।’

ईसाई चर्च और तत्कालीन धार्मिक प्रभाव के विरुद्ध आध्यात्मिक विद्रोह का झंड़ा 13वीं और 14वीं शताब्दी में फहराया गया था। विवेकवादी विद्रोहियों ने प्राचीन यूनान के महान दार्शनिकों के वैज्ञानिक उपदेशों से प्रेरणा प्राप्त की थी और उनका ज्ञान उन्हें अरब विद्वानों, विशेष रूप से अबेरोस से मिला था। जस्टीनियन ईसाइयों की धर्मांधता ने ईसाई धर्म के पवित्र संसार से मूर्तिपूजकों के ज्ञान को निकाल बाहर किया था। उन लोगों को रोम साम्राज्य से भागकर फारस में शरण लेनी पड़ी थी, लेकिन वहाँ भी उन्हें पवित्रता के दावेदार लोगों की असहिष्णुता भोगनी पड़ी, जो धर्मभ्रष्ट शिक्षाओं के विरुद्ध थे। अततः अथीनियन (यूनानी) संस्कृति की विज्ञान की शिक्षाओं का बगदाद के अब्बासी खलीफाओं के दरबार में स्वागत किया गया। उन लोगों के ज्ञान का इतना आदर किया गया कि न तो उन्हें कुरान पर आस्था लाने के लिए बाध्य किया गया और न उन्हें तलवार के घाट ही उतारा गया। इसके प्रतिकूल, इस्लाम के धर्म भक्त सेनापति ने प्राचीन ज्ञान वाले अन्य विद्वानों को अपने यहां उदारता पूर्वक शरण दी जो धार्मिक विश्वास और सभी धर्मों का उपहास करते थे।

खलीफाओं ने केवल निष्कासित यूनानी विद्वानों को अपना संरक्षण प्रदान नहीं किया, वरन् उन्होंने योग्य व्यक्तियों को रोम साम्राज्य के क्षेत्र में भेज कर वहां से प्राचीन यूनानी दार्शनिकों और विचारकों के ग्रंथ मँगवाये। आरिस्टॉटिल, हिप्पारचस, हिप्पोक्रेटस, गेलन और दूसरे यूनानी वैज्ञानिकों की पुस्तकों का अरबी में अनुवाद कराया गया और खलीफाओं ने उन लोगों की अधार्मिक शिक्षाओं के प्रचार को भी मुसलमान जगत में प्रोत्साहन दिया। राज्य की ओर से स्थापित मदरसों में समाज के सभी वर्गों के हजारों छात्रों को वैज्ञानिक शिक्षा प्रदान की गयी – ‘छात्रों में अमीरों के लड़के भी थे तो साधारण मशीनों कारीगरों के भी लड़के थे।’ गरीब छात्रों को शिक्षा निःशुल्क दी जाती और अध्यापकों को अच्छा वेतन दिया जाता था और उनका बड़ा सम्मान किया जाता था।

अरब इतिहासकार अबुल फरगिएस ने खलीफा अलमन्नान के विद्वानों के संबंध में लिखा है : ‘विद्वान लोग अल्लाह द्वारा चुने हुए और उसके सबसे अच्छे और उपयोगी सेवक हैं, उनका जीवन अपनी विवेकशक्ति को विकसित करने में लगा रहता है। अध्यापक व पण्डित सच्चे श्रेष्ठ व्यक्ति हैं और वे लोग संसार के विधायक हैं जिनकी सहायता के बिना संसार पुनः अज्ञान और बर्बरता के सागर में डूब जाएगा।’

इस्लाम की वर्तमान धर्मांधता और कट्टरपन के कारण इतिहास की वह प्रामाणिकता नष्ट हो जाती है जब यह मालूम होता है कि हजरत मुहम्मद के बाद के उत्तराधिकारियों में वैसी धार्मिक सहिष्णुता नहीं थी और उनमें कुछ तो विरोधी मतों के समर्थक थे और उनके उपदेशों का सारतत्त्व यही था कि मानव की तार्किक शक्ति ही सत्य को समझने का मापदण्ड है। इतिहास में अन्यत्र ऐसे कम उदाहरण मिलते हैं जब धार्मिक व्यवस्था का अध्यक्ष विवेकशक्ति को विकसित करने पर जोर देता हो, जैसा कि खलीफा अलमन्नान ने किया था। विवेकशक्ति का विकास धर्म में आस्था की भावना से एकदम प्रतिकूल था। फिर भी अलमन्नान, अब्बासी खलीफाओं में ऐसे नामी खलीफा थे जिन्होंने वैज्ञानिक ज्ञान के प्रचार को प्रोत्साहन दिया और स्वयं ने उसमें हिस्सा लिया। क्या विद्वान अब्बासी खलीफा अपवाद नहीं थे?

अफ्रीका के फातमी और स्पेन के ओम्मानी शासक राजनीतिक सत्ता की प्रतिस्पर्द्धा में लगे थे, भौतिक समृद्धि और ज्ञान के प्रसार-प्रचार के भी वे संरक्षक थे। काहिरा के पुस्तकालय में एक लाख पुस्तकें थीं और कोरडोवा में उससे छह गुनी अधिक पुस्तकें होने का दावा था। इन तथ्यों से वह मिथ्या प्रचार खत्म हो जाता है जिसमें इस्लाम को बर्बर कठमुल्लापन का समर्थक बताया जाता है और सिकंदरिया पुस्तकालय को जला डालने का आरोप लगाया जाता है। इस प्रकार के मिथ्या प्रचार से बचने के लिए व्यक्ति को मस्तिष्क की पवित्रता और विचारशीलता से काम लेना चाहिए कि विज्ञान और ज्ञान के उन केंद्रों को बिना सोचे-समझे कैसे आग में झोंका जा सकता था। जिन लोगों ने मानव-जाति के पूर्वजों की बहुमूल्य धरोहर की रक्षा की, उनके विरुद्ध उसे नष्ट करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। जब इतिहास का निष्पक्ष और वैज्ञानिक अध्ययन किया जाएगा तो इस प्रकार के मिथ्या प्रचार को और मनो-मालिन्य से उत्पन्न कहानियों को असत्य प्रमाणित किया जा सकेगा।

इस्लाम का विकास मानव-जाति के लिए विनाशकारी नहीं वरन् उसके लिए मंगलकारी सिद्ध हुआ है। 11वीं और 12वीं शताब्दी में लिखी पुस्तकों में जहाँ सिकंदरिया के पुस्तकालय के जलाये जाने का विस्तार से वर्णन किया गया है वहीं मिस्र के ईसाई इतिहासकार यूस्टीचियस और इल्मासिन ने अपने देश पर सरासेनी आक्रमणकारियों का अधिकार होने के बाद लिखे अपने इतिहास में उस बर्बर कार्य का उल्लेख नहीं किया है। सिकंदरिया के इन विद्वानों के विरुद्ध ईसाइयों के शत्रुओं के साथ पक्षपात करने का आरोप नहीं लगाया जा सकता। खलीफा अमर के आदेश को साक्ष्य के रूप में पेश किया जाता है कि उसने अपने सेनापतियों को उक्त बर्बर कार्य के लिए आदेश दिया था। उस आदेश का उल्लेख आसानी से इतिहास की पुस्तकों में नहीं किया जा सकता था, जिसे ईसाई पादरियों ने लिखा था, जो अपनी रचनाओं को गुप्त रख सकते थे।

इस घटना की जांच और सभी संबंधित साक्ष्यों के आधार पर गिबन ने निम्नलिखित विचार व्यक्त किये हैं : ‘उमर के नाम से जारी किये गये घृणित आदेश मुसलमान धर्म-प्रचारकों के नियमों के प्रतिकूल प्रतीत होते हैं। मुसलमानों को दिये गये आदेशों में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि यहूदियों और ईसाइयों की धार्मिक पुस्तकों को, जिन्हें युद्ध में प्राप्त किया जाय, उन्हें कभी न जलाया जाय और वैज्ञानिकों, इतिहासकारों अथवा शायरों, चिकित्सकों, हकीमों अथवा दार्शनिकों की पुस्तकों का उपयोग इस्लाम के अनुयायियों को करने दिया जाय।’

          (दि डिक्लाइन एण्ड फाल ऑफ रोमन इम्पायर)

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