— रामशरण —
दशहरा या दुर्गा पूजा हिन्दुओं के सबसे बड़े पर्वों में से एक है। यह देश के अधिकांश हिस्सों में दस दिनों तक मनाया जाता है। शायद इसीलिए इसका नाम दशहरा पड़ा है। इसमें मूल रूप से देवी या शक्ति की पूजा की जाती है। इसमें पहला दिन शैलपुत्री यानी कि पार्वती की पूजा का विधान है और नौवें दिन दुर्गा का। दसवां दिन विसर्जन के लिए है। बीच में महागौरी (शिव की पूर्व पत्नी), ब्रह्मचारिणी (वैष्णव देवी), कालरात्रि (काली) आदि के लिए अलग अलग दिन तय हैं।
यह आश्चर्यजनक बात है कि सभी देवियों के रंग रूप चरित और कथाओं में बहुत अंतर है। जैसे ब्रह्मचारिणी शुद्ध शाकाहारी हैं तो काली को नरबलि तक दी जाती रही है। इनमें क्या एकता है? अनेक देवियां, जैसे कामाख्या, ज्वालामुखी, दन्तेश्वरी आदि की इनमें चर्चा नहीं है। फिर भी उनकी गणना इनमें ही होती है। दुर्गा के साथ लक्ष्मी और सरस्वती की भी मूर्ति बनायी जाती है, जो धन और ज्ञान की देवी हैं। गौरी और पार्वती का उल्लेख शिव की पत्नी के रूप में होता है। लेकिन काली को शिव का दमन करते हुए दिखाया जाता है। ब्रह्मचारिणी तो कुंवारी ही हैं। देवियों को आर्य सेना का प्रतिनिधि माना जाता है, पर काली किसी रूप से आर्य नहीं लगती हैं।
ऐसा लगता है कि शिव के पूजकों, खासकर भैरव पंथियों से देवी पूजकों का संघर्ष होता था। यह भी लगता है कि शिव या शंभू या स्वयंभू की पूजा सबसे पहले से होती आ रही है। उनकी पूजा आर्य और अनार्य दोनों करते रहे हैं। भारत में सबसे पहले अफ्रीका से आदिवासी आए और पूरे देश में फैल गये। गोंड लोक कथाओं में शंभू को अपना पूर्वज माना जाता है। उनकी पूजा भी आसान है, किसी पत्थर को देवता मान कर उसपर जल चढ़ाना बहुत आसान है। बाद में उस पत्थर को पहचान के लिए गोल शक्ल दिया गया। सांढ के कंधे पर मांस पिंड देखकर उसे भी शिव का प्रतीक मान लिया गया। ऐसा सांढ हड़प्पा सभ्यता के मुहरों में भी दीखता है। इससे लगता है कि शिव पूजा उसके पहले से हो रही है। इसीलिए शिव को आदिदेव माना गया है। शिव के पूजक आमतौर पर प्रकृति पूजक थे और सभ्य समाज के आडंबरों से दूर रहते थे। हो सकता है कि श्रमण संस्कृति का विकास उनसे ही हुआ हो। लेकिन इनमें से कुछ निरंकुश, भोगवादी और ताकत का दुरूपयोग करने वाले थे जो दूसरे धर्मों को कुचलने का काम करते थे।
ऐसा लगता है कि भारत में प्राचीन काल में आवागमन की असुविधा और भाषा का अंतर होने से अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग परंपराओं का विकास हुआ, जिनके अपने अपने देवी देवता थे। जबकि शिव पूजा पूरे देश में एक तरह से होने के कारण उनकी ताकत ज्यादा थी। इन शिव पूजकों का मुकाबला करने के लिए ही देवी पूजक एकजुट हुए और सभी देवियों को एक ही मानना शुरू कर दिया। देवियां अनेक थीं, अतः नौ अलग अलग प्रवृत्ति वाली देवियों की सामूहिक पूजा शुरू की गई। अन्य को इनमें ही शामिल मान लिया गया।
भारत में समन्वय की संस्कृति रही है। इसलिए आपसी टकराहट को समाप्त करने के लिए शिव और शक्ति के पूजकों ने समझौता कर लिया और शिवरात्रि को दोनों के विवाह उत्सव के रूप में मनाया जाने लगा। ऐसा ही समन्वय बिहार में प्रचलित बिहुला पूजा की कहानी में दीखता है जिसमें नाग देवी मनसा को शिव की मानस पुत्री मान लिया जाता है। बाद में राम और कृष्ण पूजकों ने दोनों को विष्णु अवतार मान लिया। तुलसीदास जी ने राम और शिव भक्तों में समन्वय का ठोस प्रयास किया।
जब कई परंपराएं साथ साथ चलती हैं तो उनमें एक दूसरे का प्रभाव पड़ता ही है। कई बार यह प्रभाव अच्छा भी होता है कई बार बुरा भी। अनेक हिन्दू मजारों पर जाकर पूजा करते हैं। कुछ मुसलमान भी छठ आदि पूजा करते हैं। होली, दीवाली में मिलना-जुलना आम बात है। हमें इस मेलजोल की संस्कृति को बढ़ावा देते रहना चाहिए।