— आनंद कुमार —
(दूसरी किस्त)
स्वराज की गांधी-परिभाषा
गांधीजी के लिए ‘स्वराज’ के विमर्श को निरंतर विस्तार देना सत्य-साधना का अनिवार्य अंग था। इसकी प्रामाणिक शुरुआत 1909 में‘हिन्द स्वराज’ के प्रकाशन से हुई और इसका प्रयास ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के निरूपण (1946) और ‘अंतिम वसीयतनामा’ (1948) के लिखने तक जारी रहा। लेकिन सरलीकरण का ख़तरा उठाते हुए यह कहा जा सकता है कि गांधीजी ने इस प्रश्न को कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ‘पूर्ण स्वराज’ का लक्ष्य स्वीकारने के बाद ज्यादा महत्त्व दिया।
इसमें इस बात का ध्यान रखा गया कि स्वराज के क्या मायने नहीं हैं इसको भी लोकमानस अच्छी तरह ग्रहण कर ले। दूसरे शब्दों में गांधी ने दो टूक शब्दों में कहा कि (क) स्वराज स्वछंदता या निरंकुश आजादी नहीं है। इसमें हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध बनाने के लिए नीति पालन की केन्द्रीयता होगी। (ख) स्वराज अमीरों या शिक्षितों का सत्ता पर एकाधिकार नहीं हो सकता। वह सबके लिए – सबके कल्याण के लिए होगा। इस ‘सब’ की गिनती में किसान और करोड़ों मेहनतकश मजदूर से लेकर भूख से पीड़ित और विकलांग स्त्री-पुरुष आते हैं। (ग) कुछ लोगों का अनुमान है कि स्वराज बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं का राज होगा। मैं ऐसा मानने से इनकार करूँगा। मेरे लिए हिन्द स्वराज का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य होगा। (घ) स्वराज्य का अर्थ है सरकारी नियंत्रण और निर्भरता से मुक्ति। फिर वह नियंत्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। और (च) सच्चा स्वराज थोड़े-से लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरूपयोग होता है तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की शक्ति से होता है।
गांधीजी ने स्वराज्य के सकारात्मक पक्ष को रखते हुए 1937 में लिखा कि, “स्वराज्य की मेरी कल्पना के विषय में किसी को कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। उसका अर्थ विदेशी नियंत्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतंत्रता है। उसके दो दूसरे उद्देश्य भी हैं; एक छोर पर है नैतिक और सामाजिक उद्देश्य और दूसरे छोर पर दूसरा उद्देश्य है धर्म। यहाँ धर्म शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है। उसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि सबका समावेश होता है, लेकिन वह इन सबसे ऊँचा है…इसे हम स्वराज का सम-चतुर्भुज कह सकते हैं; यदि उसका एक भी कोण विषम हुआ तो उसका रूप विकृत हो जाएगा।” (हरिजन, 2 जनवरी ’37)
देश-दशा की गांधी-समीक्षा
भारत के स्वराज के लिए आजीवन प्रतिबद्ध गांधीजी को अपने समाज की कई खूबियों को लेकर अवश्य अपार गर्व था। उनके अनुसार, “मैं भारत की भक्ति करता हूँ, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है वह सब उसी का दिया हुआ है। मेरा पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक सन्देश है। उसे यूरोप का अन्धानुकरण नहीं करना है।” (देखें : यंग इण्डिया, 11 अगस्त ’20).1921 के असहयोग आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार पर असहमति प्रकट करने पर उन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को लिखा था कि “मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर दी जाएँ। मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे। पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ और मैं औंधे मुँह गिर पडूँ। मैं दूसरों के घरों में अनामंत्रित व्यक्ति, भिखारी या गुलाम की हैसियत से रहने के लिए तैयार नहीं हूँ।” (यंग इण्डिया, 1 जून’21)
लेकिन देश के समाज और संस्कृति के कुछ महादोषों को लेकर बहुत ग्लानि थी। इस सूची में 1. गुलामी, 2. गरीबों की लाचारी, 3. ऊँच-नीच का वर्गभेद, 4. साम्प्रदायिक वैमनस्य, 5. अस्पृश्यता, 6. स्त्रियों की अधिकार हीनता, 7. शराब और अन्य नशीली चीजों का अभिशाप, और 8. अंतरराष्ट्रीय शोषण की प्रमुखता थी।
वह स्वराज को इन महादोषों के उपचार का पर्यायवाची समझते थे। इसके लिए वह व्यक्तिगत आचरण और सामुदायिक जीवन को परस्पर सम्बद्ध दो रणभूमि मानते थे। उन्होंने 1931 में लिखा कि “मैं ऐसे संविधान की रचना करवाने का प्रयत्न करूँगा, जो भारत को हर तरह की गुलामी और परावलंबन से मुक्त कर दे और उसे, आवश्यकता हो तो, पाप करने तक का अधिकार दे। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें गरीब से गरीब लोग भी यह महसूस करेंगे कि यह उनका देश है – जिसके निर्माण में उनकी आवाज का महत्त्व है। मैं ऐसे भारत के लिए कोशिश करूँगा, जिसमें ऊँचे और नीचे वर्गों का भेद नहीं होगा और जिसमें विविध सम्प्रदायों में पूरा मेलजोल होगा। ऐसे भारत में अस्पृश्यता के या शराब और दूसरी नशीली चीजों के अभिशाप के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता। उसमें स्त्रियों को वही अधिकार होंगे जो पुरुषों को होंगे। चूँकि शेष सारी दुनिया के साथ हमारा सम्बन्ध शांति का होगा, यानी न तो हम किसी का शोषण करेंगे और न किसी के द्वारा अपना शोषण होने देंगे, इसलिए हमारी सेना छोटी से छोटी होगी। ऐसे सब हितों का, जिनका करोड़ों मूक लोगों के हितों से कोई विरोध नहीं है, पूरा सम्मान किया जाएगा – चाहे वे हित देशी हों या विदेशी। अपने लिए तो मैं यह भी कह सकता हूँ कि मैं देशी और विदेशी के फर्क से नफरत करता हूँ। यह है मेरे सपनों का भारत…. इससे भिन्न किसी चीज से मुझे संतोष नहीं होगा।” (यंग इण्डिया, 10 सितम्बर ’31)
समाज नवनिर्माण की गांधी-दृष्टि
गांधी की समाज दृष्टि के दो पहलू स्पष्ट रहे हैं : 1. हमारी वर्तमान दशा, और 2. समाज-सुधार के उपाय। उदाहरण के लिए, उनकी मान्यता थी कि हमारी संस्कृति में श्रम और बुद्धि के बीच एक अलगाव है और इस कारण भारतीय समाज अपने गाँवों के प्रति गुनाह की हद तक लापरवाह हो गए हैं। इसका नतीजा यह हुआ है कि देश में जगह-जगह सुहावने और मनभावने छोटे-छोटे गाँवों के बदले हमें घूरे जैसे गंदे गाँव देखने को मिलते हैं। गाँव के बाहर और आसपास इतनी गंदगी होती है और वहाँ इतनी बदबू आती है कि अकसर गाँव में जानेवाले को आँख मूँदकर और नाक दबाकर ही जाना पड़ता है। हमने राष्ट्रीय या सामाजिक सफाई को न तो जरूरी गुण माना, और न उसका विकास किया। यों रिवाज के कारण हम अपने ढंग से नहा भर लेते हैं, मगर जिस नदी, तालाब या कुएँ के किनारे हम श्राद्ध या वैसी ही दूसरी कोई धार्मिक क्रिया करते हैं और जिन जलाशयों में पवित्र होने के विचार से हम नहाते हैं, उनके पानी को बिगाड़ने या गंदा करने में हमें कोई हिचक नहीं होती है। इस दुर्गुण का ही नतीजा है कि हमारे गाँवों की और हमारी पवित्र नदियों के पवित्र तटों की लज्जाजनक दुर्दशा और गन्दगी से पैदा होनेवाली बीमारियाँ हमें झेलनी पड़ती हैं।
शहरों की गन्दगी का जिक्र करते हुए लिखा कि भारत के हरेक शहर के मध्यवर्ती बागों में सफाई की जो दयनीय स्थिति दिखाई देती है, उसकी जिम्मेदारी हम म्युनिसिपैलिटी पर नहीं डाल सकते। जहाँ-तहाँ शौच के लिए बूथ जाना, नाक साफ़ करना या सड़क पर थूकना ईश्वर और मानव-जाति के खिलाफ अपराध है और दूसरों के प्रति लिहाज की दयनीय कमी प्रकट करता है। पश्चिम के लोगों ने सामुदायिक आरोग्य और सफाई का एक एक शास्त्र ही तैयार कर लिया है, जिससे हमें बहुत कुछ सीखना है।
गांधीजी ने ‘मंगल प्रभात’ (जेल से आश्रमवासियों के नाम लिखे पत्रों का संकलन) में दो-टूक शब्दों में लिखा कि “जिस समाज में भंगी का अलग पेशा माना गया है वहाँ कोई बड़ा दोष पैठ गया है, ऐसा मुझे तो बरसों से लगता रहा है। हम सब भंगी हैं, यह भावना हमारे मन में बचपन से जम जानी चाहिए। इसका सबसे आसान तरीका यह है कि जो समझ गए हैं वे सामुदायिक श्रमदान (‘जात-मेहनत) का आरम्भ पाखाना-सफाई से करें। जो समझ-बूझकर ज्ञानपूर्वक यह करेगा, वह उसी क्षण से धर्म को निराले ढंग से और सही तरीके से समझने लगेगा।”
गांधीजी की दृष्टि में भारत के सात लाख गाँवों को त्रिविध बीमारी ने जकड़ रखा है – 1. सार्वजनिक स्वच्छता की कमी, 2. पर्याप्त और पोषक आहार की कमी, और 3. ग्रामवासियों की जड़ता। उन्होंने रेखांकित किया कि “मेरी राय में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई हो तथा युक्ताहार और योग व्यायाम हो, वहाँ कम से कम बीमारी होती है। और, अगर चित्तशुद्धि भी हो, तो कहा जा सकता है कि बीमारी असंभव हो जाती है। रामनाम के बिना चित्तशुद्धि नहीं हो सकती। अगर देहात वाले इतनी बात समझ जाएँ, तो वैद्य, हकीम या डाक्टर की जरूरत न रह जाए।”(हरिजनसेवक, 2 जून ’46)
गांधी की राष्ट्र-निर्माण योजना में इसका क्या निदान था? गांधीजी के अनुसार, ‘आदर्श भारतीय गाँव इस तरह से बसाया और बनाया जाना चाहिए, जिससे वह संपूर्णतया निरोग हो सके। उसके झोंपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और वायु आ-जा सके। ये झोंपड़े ऐसी चीजों के बने हों जो पाँच मील की सीमा के अंदर उपलब्ध हो सकती हैं। हर मकान के आसपास या आगे-पीछे इतना बाद आँगन हो, जिसमें गृहस्थ अपन लिए साग-भाजी लगा सकें और पशुओं को रख सकें। गाँव की गलियों और रास्तों पर जहाँ तक हो सके धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गाँव में कुएँ हों, जिनसे गाँव के सबलोग पानी भर सकें। सबके लिए प्रार्थना घर या मंदिर हों, सार्वजनिक सभा वगिरह के लिए अलग स्थान हो। गाँव की अपनी गोचर भूमि हो। सहकारी ढंग की एक गोशाला हो। ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएँ हों जिनमें उद्योग की शिक्षा सर्व-प्रधान वस्तु हो, और गाँव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एक ग्राम-पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के लिए अनाज, साग-भाजी, फल, कड़ी वगैरह खुद गाँव में ही पैदा हों। एक आदर्श गाँव की मेरी अपनी यह कल्पना है।’ (देखें : हरिजनसेवक, 16 जनवरी ’37)
कुछ समय बाद गांधीजी ने ग्राम-स्वराज्य की कल्पना को भी स्पष्ट शब्दावली दी। 2 अगस्त ’42, यानी ‘अंग्रेजो! भारत छोड़ो आन्दोलन’ के एक सप्ताह पहले उन्होंने लिखा था कि “ग्राम स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी अहम जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए – जिनमें दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा – वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिए, जिसमें ढोर चर सकें और गाँव के अदोन और बच्चों के लिए मनबहलाव के साधन और खेल-कूद के मैदान वगैरा का बंदोबस्त हो सके। इसके बाद भी ज़मीन बची तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोयेगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गांजा, तम्बाकू, अफीम वगैरा की खेती से बचेगा। हर एक गाँव में अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा-भवन रहेगा. पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा – वाटर वर्क्स होंगे – जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहाँ तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किये जाएंगे। जात-पाँत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिलकुल नहीं रहेंगे।” (देखें : मेरे सपनों का भारत – गांधीजी (संग्राहक – आर. के. प्रभु, प्राक्कथन – डा. राजेन्द्र प्रसाद (नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अमदाबाद, 1960/ 2015; पृष्ठ 101-102).
गांधी के सपनों के भारत का आर्थिक पक्ष
इस बात की सर्वत्र जानकारी है कि गांधीजी उद्योगवाद को अभिशाप मानते थे तथा ‘वर्ग-युद्ध’ के विरुद्द थे। उन्होंने सम्पत्तिवान लोगों से ‘संरक्षकता’ (ट्रस्टीशिप) की राह अपनाने की अपेक्षा की थी। लेकिन इसकी चर्चा कम होती है कि बेकारी के सवाल पर गांधीजी की मान्यता यह भी थी कि “जब तक एक भी सशक्त आदमी ऐसा हो जिसे काम न मिलता हो या भोजन न मिलता हो, तब तक हमें आराम करने या भरपेट भोजन करने में शर्म महसूस होनी चाहिए।” (देखें : यंग इण्डिया, 6 अक्टूबर 1921) इसलिए शरीर श्रम का सम्मान, किसान को उचित दाम, ग्रामोद्योग को प्रोत्साहन, यंत्रों का विवेक-सम्मत उपयोग, स्वदेशी आर्थिकी और समग्र ग्रामसेवा गांधी की बेकारी-निवारण योजना के आधार स्तम्भ थे।
उन्होंने भारतीय धनपतियों को स्पष्ट शब्दों में अपनी संपत्ति को भोग-विलास का साधन बनाने की बजाय जापानी धनवानों का अनुसरण करने की सलाह दी थी : “यदि पूंजीपति वर्ग काल का संकेत समझकर संपत्ति के बारे में अपने इस विचार को बदल डाले कि उस पर उनका ईश्वर प्रदत्त अधिकार है, तो सात लाख घूरे आज गाँव कहलाते हैं उन्हें आनन-फानन में शांति और सुख के धाम बनाया जा सकता है। मुझे दृढ़ विश्वास है कि यदि पूंजीपति जापान के उमरावों का अनुसरण करें, तो वे सचमुच कुछ खोएंगे नहीं और सब-कुछ पाएंगे। केवल दो मार्ग हैं जिनमें से हमें अपना चुनाव कर लेना है। एक तो यह कि पूंजीपति अपना अतिरिक्त संग्रह स्वेच्छा से छोड़ दें और उसके परिणामस्वरूप सबको वास्तविक सुख प्राप्त हो जाए। दूसरा यह कि अगर पूंजीपति समय रहते न चेते तो करोड़ों जागृत किन्तु अज्ञानी और भूखे लोग देश में ऐसी गड़बड़ मचा दें, जिसे एक बलशाली हुकूमत की फौजी ताकत भी नहीं रोक सकती। मैंने यह आशा रखी है कि भारत ऐसी विपत्ति से बचने में सफल रहेगा।” (देखें : यंग इण्डिया, 5 दिसम्बर 1929)
यह बात हमारे ध्यान में कम आती है कि गांधीजी का मानना था कि गरीबों के लिए रोटी ही अध्यात्म है। भूख से पीड़ित उन लाखों-करोड़ों लोगों पर किसी और चीज का प्रभाव पड़ ही नहीं सकता। कोई दूसरी बात उनके हृदय को छू ही नहीं सकती। लेकिन उनके पास आप रोटी लेकर जाइए और वे आपको भगवान की तरह पूजेंगे। रोटी के सिवाय उन्हें और कुछ सूझ ही नहीं सकता। इसलिए आर्थिक समानता अहिंसापूर्ण स्वराज्य की ‘मुख्य चाबी’ है। इसका अर्थ यह होता है कि एक ओर से जिन मुट्ठीभर पैसेवाले लोगों के हाथ में राष्ट्र की संपत्ति का बड़ा भाग इकट्ठा हो गया है, उनकी सम्पत्ति को कम करना और दूसरी ओर से जो करोड़ों लोग अधपेट खाते और नंगे रहते हैं उनकी संपत्ति में वृद्धि करना। क्यों? क्योंकि जब तक मुट्ठीभर धनवान और करोड़ों भूखे रहनेवालों के बीच बेइन्तहा अंतर बना रहेगा, तबतक अहिंसा की बुनियाद पर चलनेवाली राज्य-व्यवस्था कायम नहीं हो सकती।
यदि भारत को अपना विकास अहिंसा की दिशा में करना है, तो उसे बहुत-सी चीजों का विकेंद्रीकरण करना होगा। अन्यायपूर्ण असमानताओं की इस हालत में, जहाँ चंद लोग मालामाल हैं और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, रामराज्य कैसे हो सकता है? मैं ऐसी स्थिति लाना चाहता हूँ जिसमें सबका सामाजिक दर्जा समान माना जाए। मजदूरी करनेवाले वर्गों को सैकड़ों वर्षों से सभी समाज से अलग रखा गया है और उन्हें नीचा दर्जा दिया गया है। उन्हें शूद्र कहा गया है और इस शब्द का यह अर्थ किया गया है कि वे दूसरे वर्गों से नीचे हैं। मैं बुनकर, किसान और शिक्षक के लड़कों में कोई भेद नहीं होने दे सकता। गांधीजी की यह भविष्यवाणी थी कि “अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलनेवाली सत्ता को खुद राजी-ख़ुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तैयार नहीं होंगे, तो यह तय समझिए कि हमारे देश में हिंसक और खूंख्वार क्रांति हुए बिना न रहेगी।” (देखें : करेक्टर एंड नेशनबिल्डिंग – एम. के. गांधी (1959) ( संपादक – वालजी गोविन्दजी देसाई) (नवजीवन पब्लिशिंग हॉउस, अहमदाबाद; पृष्ठ 29-30)
उपसंहार
स्वतंत्र भारत का नव-निर्माण एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी रही है और पिछले 75 बरसों में हमने अपने लोकतान्त्रिक संविधान और संसदीय राजनीति का सदुपयोग करके एक ‘कल्याणकारी राज्य’ की रचना की है। पहले चार दशक राज्य द्वारा निदेशित नियोजन का रास्ता पनाया गया। फिर 1992 से अबतक के तीस बरस बाजारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के उद्देश्य से लगाए गए। फिर भी भारत के साढ़े पाँच लाख गाँवों और कई हजार कस्बों-नगरों में एक चौथाई आबादी अर्थात लगभग 30 करोड़ लोग निर्धनता और निरक्षरता के दो पाटों में फँसे हुए हैं। देश की स्त्रियों, किसानों, दस्तकारों, श्रमजीवियों, दलितों, पसमांदा मुसलमानों और आदिवासियों के बीच स्वराज का अधूरा बने रहना चिंताजनक है। सदियों से चली आ रही भूख, दरिद्रता, अर्ध-रोजगार दशा, खेती का घाटे का धंधा बने रहना और विदेशी कंपनियों का दबाव प्रशंसा की बात नहीं है। इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए स्वराज रचना और राष्ट्र-निर्माण के अधूरेपन को रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये दूर करना ही युगधर्म है। इसके लिए कृषि-ग्रामोद्योग-लघु और मंझोले उद्योगों की परस्पर-पूरकता और गाँव-शहर की परस्पर-निर्भरता के ओझल हो गए सिद्धांत की ओर ध्यान देना चाहिए। इस लक्ष्य को पाने में स्वराज और राष्ट्रनिर्माण के गांधीमार्ग की समझ और 21वीं शताब्दी के भारतीय समाज की जरूरत और क्षमता के अनुसार अनुकरण की नयी प्रासंगिकता है। शुभस्य शीघ्रम ….