आर. चेतनक्रांति की दो कविताएं

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पेंटिंग : अमृतपाल


1. छोटे-छोटे बड़े लोग

कुबेर की कब्ज-बाधित टपकन तले
जगह बनाने में उन्हें वक्त लगा
फिर दूर-दूर से बहकर आये
मुँहों के दलदल से
अपने नाक कान गाल ओंठ
खींचने खँगालने
और ऐन टोंटी के नीचे लगाने में
थोड़ा और
क्योंकि होड़ यहाँ खूँखार हो जाती थी

झाँवे से रगड़-रगड़
शोधे गए माथों
छिप-छिप कर खाए थप्पड़ों की
लालिमा से सजे
गालों
और अलग-अलग मौकों पर
अलग-अलग ढंग की
फुंफकारों से फूले नथुनों
से ठाँठे मारता यह डबरा
वर्चस्व के नए खाताधारकों का महासागर था

श्लथ मूत्रांगों और मलांगों से घिचपिच
एक दूसरे की पीठ पर
अपनी फतह के
शिलालेख गोदती
ठुड्डियों का जोहड़

ये सब छोटे साइज़ के
बड़े-बड़े लोग थे
अत्यंत सुविधाजनक
जेब में रखकर ले जाने,
और
मेज पर रखकर दिखाने लायक
जलसे में श्रोताओं का ध्यान खींचने के लिए
बजाने लायक

बड़े साइज के बड़े लोगों के
स्थायी लक्षण
कमाने में
इन्हें ज्यादा कसरत नहीं लगती थी
उम्दा शौक़,
जौक
हत्ता कि रोग भी
सब उनके पास थे

महीन
मोहक
शानदार
कुर्ते, चुटकुले,
दिल-दिमाग की मीठी मुलायम दिक्कतें,
ठाँ ठाँ दगती हँसी,
किस्म किस्म की मुस्कुराहटें,
कुलीन-जनोचित जिज्ञासाएं,
उत्सुकताएं
क्षुद्रजन के बारे में,
दक्षिणी दिल्ली में उत्पन्न
आदिवासी कला के नमूने

पुस्तकें, पेनदान, पायदान,
दिल्ली हाट की यादें,
पाँचतारा होटलों के संस्मरण,
गमले, गमली,
पर्दे, पर्दी,
कुछ निरर्थक चीजें
जिनका काम रखे रहना
और
छोटे लोगों को शर्मिंदा करना होता

कुछ बातें
जो ऊपरी माले से लटकती
रस्सियों को पकड़ने के लिए
बालकनी में अक्सर उछलती दिखतीं

और एक नक्शा
इश्तरी किया हुआ
कोहनी जैसी मोटी एक लकीर
जिस पर
उत्तर को दक्षिण से
पूरब से पश्चिम को
मिलाती थी
और जगह-जगह चिपकी चिप्पियाँ
जो बताती थीं
कि कौन किला जीत लिया कौन सा बाकी है

वे जिधर भी निकलते थे
दरअसल
किला ही जीतने निकलते थे
सभी कुछ उनके लिए उतना ही अजनबी
उतना ही शत्रु
उतना ही काम्य होता
जितना कहते हैं कि किले वालों के लिए
दूसरे किले होते थे
सब्जी का ठेला भी
चाय की गुमटी भी
अमीर का योजनापट्ट भी
गरीब का हृदय भी
सब जगह
वे जीत की चिप्पियाँ चिपकाते चलते

रोम रोम थक जाता
सिर की नसों का खून
घुटनों में जमने लगता
हताशा उन्हीं जड़ों की तरफ
धकेलने लगती
जहाँ वे उगे थे
वे सो जाते
लंबे गहरे निर्द्वन्द्व खर्राटों में गाते हुए
अवचेतन की लिप्साएं
गन्तव्यहीन ख्वाबों को दूर ही से खदेड़ते
हिरनों खरगोशों चीलों गिद्धों पर
दुलत्तियाँ फेंकते
अधनींद में
बुदबुदाते हुए वे तमाम गालियां
जिन्हें वे सचेत रहते खर्च नहीं करते थे

सुबह उठते
तो बड़ी भंगिमाएं पहनने में
फिर उतनी ही मेहनत करते
वही एक पहरन दरअसल
अब उनके पास था
बदलने के लिए सिर्फ नंगई थी
जिसे बहुत करीबी लोगों के आगमन पर पहना जाता
जब घर में हमाम की ठंडक और सुकून और
आजादी आदि चाहिए होता

फिर अब तक इकट्ठा हुई
सब बड़ी चीजों को
थैले में भरने का काम
रात के अँधेरे में आविष्कृत
और भी बड़ी चीजों को ढूंढ़ने
और सोशल मीडिया के माध्यम से
उनमें
अपनी हिस्सेदारी दर्ज कराने का
नित्य कर्म

फिर प्रयाण
बड़े फाटक की ओर
जिसके उस तरफ पहुंचे
पिछली खेप के छोटू-सब
लगे-लगे अब काफी बड़े हो चुके थे

इसी फाटक के उस पार था सबकुछ
जो हर चीज का निशाना था
धर्म अधर्म
कदाचार सदाचार
यहां तक कि विचार का भी

पर सबसे पहले वह खुलता
अदाकारी पर
क्योंकि वह सिर्फ पालतू होती थी
तब भी
जब
नंगे चाकू जैसी दिखती थी
और इसे सबसे पहले वे ही साधते थे
जो अभी कुछ देर पहले
सुबह की सीधी
खाली सड़क पर
एक भारी झोला
पीठ पर बांधकर निकले हैं

फाटक के सामने
हर हाल में एक छलांग की दूरी पर रहते हुए अ-टल
दिन भर यहीं
वे अपने करतब दिखाएंगे
सारे सबूत अपनी योग्यता के
पात्रता के सभी प्रमाण
धो-धोकर धूप में रखेंगे

और फिर
उधर के बड़े बड़ों की हिफाज़त में
पस्त पहलवान
आज ही
या और किसी शुभ दिन
फाटक के बीचोबीच रखकर
उन्हें भीतर लतिया देगा

और कपड़े झाड़कर
धन्यवाद कहकर
वे भीतर की तरफ बढ़ेंगे
उसकी तरफ मुस्कुराते हुए
और बड़े-वाले कायदे से
वहीं का वहीं
उसे माफ करते हुए।

पेंटिंग : हरजीत ढिल्लों

2. फिर फिर पैसा

बहुत सारा पैसा चाहिए मुझे
बेहिसाब नहीं, पर काफी सारा
मतलब एक आम हिन्दुस्तानी गरीब
जितने की कल्पना करता होगा
उससे दो या ढाई गुना ज्यादा

बहुत सारे काम दरअसल पैसे की कमी से
अधूरे पड़े हुए हैं

कोई किताबी बात कहकर
मैं यहाँ अपनी लालसा को
कविता में नहीं बदलने जा रहा
न ही अपने पुरखों की लगातार मौतों से
कोई कहानी गढ़ने जा रहा
कि आखिर में आपको स्वयं ही लगे
कि बुरा क्या अगर यह शख्स इतने बेशर्म ढंग से
मुद्रा-कामी हो उठा

आगे कुछ कहने से पहले
मैं आखिरी बार यह बता देना चाहता हूँ
कि यह कोई साहित्यिक आह्वान नहीं है
और इसका उद्देश्य पुरस्कार नहीं है
यह सिर्फ और सिर्फ
एक अतृप्त मन की अकुंठ अभिव्यक्ति है

मैं उन्हें भी हर आशंका से बरी कर देना चाहता हूँ
जिनके पास बेहिसाब पहले ही आ चुका है
कमाकर या जैसे भी
मैं उन्हें आश्वस्त कर देना चाहता हूँ
कि यह कविता नहीं है
और जिस तरह सबने
मैंने भी उन्हें स्वीकार कर लिया है

मैं बस अपनी लिप्सा गा रहा हूँ
अपनी इच्छाएँ, अपने सपने, अपने इरादे, और बेशक भूख

वे चालाक चतुर भी फ़ारिग हो बैठें
जिन्हें पता है कि वे तो पा ही लेंगे
इस वक्त मुझे वे भी संसार का शाप नहीं लग रहे
जैसा कि वे खुद भी मानते हैं, वे भी जरूरी हैं

अनेक बार मैं कह चुका हूँ
कि पैसा कई कई तरह से
एक सहूलत है
कई बातें हैं जो उसके हो जाने से
नहीं होतीं
मसलन आपको कई तरह की चिंताएं नहीं रहतीं
लोगों के लिए आपको समझना आसान हो जाता है
वे सम्मान और अपमान के विकल्पों को धरते-उठाते
अपना समय ज़ाया नहीं करते
और खुश होकर कई मुश्किलें खुद ही आसान कर देते हैं
पैसा अगर आपके लिए मायने रखता हो जैसा मेरे लिए
तो आपके जीवन का एक ठोस उद्देश्य होता है
जिसे आप लाठी की तरह उठाकर चल सकते हैं
चला सकते हैं
दिखा सकते हैं, भगा सकते हैं, बुला सकते हैं
बाकी और कोई चीज़ इस काम को इस तरह नहीं करती
इससे बहुत सारी चीज़ें मिलती हैं
जिनके नहीं होने को वही लोग जानते हैं जिनके पास वो नहीं हैं
मेरे पास जैसे एक कार, एक सोफा, एक गद्देदार बिस्तर,
एक अच्छा घर, एक सुन्दर नौकरानी, डाइनिंग टेबल
गलीचे, दरियाँ, कालीन, पाँवपौंछ, एक जापानी सेक्स-डॉल,
शोरगुल-रोधी कमरा, कई-मुँहा म्यूजिक सिस्टम, दो कमरे का बाथरूम
एक कमरे का बाथटब, तैरने के लिए अपना तालाब, बैठने
के लिए अपना मैदान, उड़ने के लिए अपना आसमान,
और कहने के लिए अपना, सिर्फ अपना कोई
वाक्य नहीं है जो बता सके कि देखो यह हूँ मैं।
मुझे बस इन कुछ चीजों के लिए पैसा चाहिए

हाँ, बस एक और चीज़
कि जब मेरा मन कहे
कि चलो, मैं जा सकूँ।

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