राष्ट्रीयता और जनतंत्र इन दो शक्तियों ने एशिया के सब देशों में जन-जागरण किया है। इन्हीं दो शक्तियों के कारण एशियावासियों में साम्राज्यवाद का सफल विरोध करने की अद्भुत क्षमता उत्पन्न हुई है। उन्हीं के वरदहस्त का सहारा लेकर भारत स्वतंत्र हुआ है। यही शक्तियां उन्मुक्त न होतीं और हमको प्रभावित न करतीं तो हमारी निष्क्रमण्यता और हमारे सम्मोह का अंत न होता और विविध जातों और धार्मिक संप्रदायों में बंटा हुआ हमारा देश एक सूत्र में ग्रथित होकर और समान भावना से प्रेरित होकर राष्ट्रीय स्वाधीनता के लिए प्रयत्न न करता।
इन शक्तियों का प्रादुर्भाव और विकास कैसे हुआ , इस विषय पर विचार करने का यहां अवसर नहीं है। हमको इन शक्तियों के स्वरूप और लक्षणों को जानना चाहिए और यह समझना चाहिए कि यह शक्तियां आज भी काम कर रही हैं और यदि हमको जीवन और विकास की ओर बढ़ना है तो हमको इनकी आज भी आवश्यकता है। इन शक्तियों की उपेक्षा कर हम अपने में कसने वाले सभी लोग, अपनी-अपनी जात, अपनी-अपनी बिरादरी और अपने-अपने संप्रदाय से ऊपर उठकर सबके साथ समान रूप से एकता का अनुभव करते हैं और राष्ट्रीय प्रश्नों पर राष्ट्रीय दृष्टि से, न कि अपनी बिरादरियों, अपने संप्रदाय की संकुचित दृष्टि से, विचार करते हैं। एकता के जिस कार्य को वंश या धर्म बिरादरियों और संप्रदायों में सिद्ध करता है, राज्य की भौगोलिक सीमा के भीतर वही कार्य राष्ट्रीयता संपन्न करती है। किंतु पर-कार्य तभी पूरा हो सकता है जब हम बिरादरी और संप्रदाय की क्षुद्र ग्रंथि से ऊपर उठना सीखें।
*भारत को एक सुदृढ़ राष्ट्र में गठित करने के लिए यह आवश्यक है कि जो प्रतिगामी भाव और शक्तियां हमको जात-पांत और संप्रदाय के छोटे-छोटे टुकड़ों में विभाजित करती हैं और हमारी शक्ति को बिखेरती हैं उनका हम तीव्र विरोध करें। यही शक्तियां अवसर पाकर हमको छिन्न-भिन्न कर देने का प्रयत्न करती हैं।*
युग की नवीन शक्तियों ने इन पर अभी पूर्ण विजय नहीं प्राप्त की है क्योंकि नवीन भावों ने हम सबके हृदय और मस्तिष्क को अभी पूर्ण रूप से व्याप्त नहीं किया है। इस सांप्रदायिक द्वेष के कारण हमारे देश के दो टुकड़े हुए और यदि हम राष्ट्रीयता को पूर्ण रूप से अपनाते नहीं तो देश इसी प्रकार बंटता चला जाएगा। पूर्वी पंजाब में आज मुसलमान शून्य के बराबर हैं किन्तु वहां हिन्दू-सिख प्रश्न उठ खड़ा हुआ है। दक्षिण में ब्राह्मण-अब्राह्मण प्रश्न है और द्रविड़स्थान की मांग भी हमारे सामने आ गयी है।
हमने पाकिस्तान की मांग का मजाक किया और अपने मन को यह कहकर ढाढ़स दी कि इस मांग में कुछ दम नहीं है और श्री जिन्ना अंग्रेजों का एजेंट मात्र हैं। किंतु वह मांग पूर्ण होकर रही। इसी प्रकार द्रविड़स्थान की मांग की उपेक्षा करना मूर्खता होगा। आज आपको यह मांग सारहीन मालूम पड़ती है किन्तु यदि हमने समय से इसके आधार को निर्मूल नहीं किया और उत्तर और दक्षिण के बीच वास्तविक सौहार्द स्थापित नहीं किया तो यही मांग एक दिन भीषण रूप धारण कर लेगी। इन सबके मूल में हमारी संकीर्णता, जात-पांत का भेदभाव और हमारी सांप्रदायिक बुद्धि काम करती है। राष्ट्र-संगठन के कार्य में यही संकुचित भाव बार-बार बाधा डालता है।
हमारी सामाजिक व्यवस्था का आधार असमानता रहा है और इसी कारण हमारे देश में जनतंत्र पनप नहीं पाता तथा राष्ट्रीयता सबल और पुष्ट नहीं हो पाती। हमको समझ लेना चाहिए कि जब तक हम इन छोटी-छोटी दीवारों को गिरा नहीं देते जो हमको एक दूसरे से अलग करती हैं तथा जात-पांत के तारतम्य को हटाकर और धर्म को अपनी उचित मर्यादा में सीमित रखकर सच्ची राष्ट्रीयता और जनतंत्र की ओर अग्रसर नहीं होते तब तक हमारा भविष्य अंधकार से आच्छन्न है।
प्रत्येक को धार्मिक स्वतंत्रता मिलनी चाहिए, जहां तक वह सामाजिक शांति और नैतिकता के प्रतिकूल नहीं है किन्तु उसका राजनीति से कोई संबंध न होना चाहिए। धर्म एक व्यक्तिगत वस्तु है। वह राष्ट्र के कार्य में बाधक क्यों हो; और वह धर्म धर्म ही क्या है जो दया और न्याय पर आश्रित नहीं है, जो आततायियों से दुर्बलों की रक्षा नहीं करता। किंतु वास्तविकता यह है कि धर्म का लोग राजनीति के लिए उपयोग करते हैं और जनता की सांप्रदायिक बुद्धि होने के कारण जनता इन लोगों के हाथ में खेलती है। राज्य को किसी धर्म में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए किन्तु ऐसे उपाय अवश्य सोचने चाहिए जो इस सांप्रदायिक बुद्धि को विनष्ट करने में समर्थ हों।
केवल यह उपदेश देना पर्याप्त नहीं है कि हिन्दू-मुसलमान-सिख आदि को परस्पर प्रेम से रहना चाहिए। हमको अपनी दुर्बलता के कारण ढूंढ़ने चाहिए और उनको दूर करने का प्रयत्न करना चाहिए। इस समय एक ऐसे उदार सांस्कृतिक आंदोलन की आवश्यकता है जो हमारे दूषित मन को विशुद्ध करे और युग के अनुकूल हममें नये संस्कार संपन्न कर हमको उदार बुद्धि प्रदान करे।
जन्म-जन्मांतर के संचित कुसंस्कारों को विनष्ट करने के लिए कोई एक उपाय पर्याप्त नहीं होगा। सांप्रदायिक बुद्धि को विनष्ट करने के लिए यह आवश्यक है कि वह, जिनका धर्म से संबंध नहीं होना चाहिए, कानून से निश्चिंत हों। उदाहरण के लिए, मुस्लिम कानून के भेद मिटा देने चाहिए। इसी प्रकार हम धीरे-धीरे आचार की समानता और एकरूपता ला सकेंगे और आचार की विविधता को बहुत कुछ घटा सकेंगे। और भी कई उपाय हैं जिन पर विचार किया जा सकता है। किंतु सबका आधार यही है कि सबकी ऐसी शिक्षा-दीक्षा होनी चाहिए जिससे आचार की एकरूपता सिद्ध हो और सब राष्ट्रीयता और जनतंत्र के महत्त्व को समझें और उनके अनुकूल अपने आचरण को बनाएं। इस दृष्टि से नई पीढ़ी पर उचित ध्यान देने की आवश्यकता है। हमारे नवयुवकों के ज्ञान का विस्तार होना चाहिए। उनकी जानकारी हर दिशा में बढ़नी चाहिए। जब वह अपनी आंखों के सामने बनते हुए इतिहास का ठीक प्रकार अध्ययन करेंगे और उन शक्तियों को पहचानेंगे जो आज नए समाज का निर्माण कर रही हैं और धीरे-धीरे सफल जगत् को एक कर रही हैं तब उनकी संकीर्णता दूर होगी और उनकी दृष्टि व्यापक और उदार होगी।
इस सामाजिक जागरूकता और चैतन्य की अत्यंत आवश्यकता है और जितनी मात्रा में इसकी वृद्धि होगी उतनी मात्रा में हमारे नवयुवक नवनिर्माण के कार्य में परिशोधित बुद्धि से कार्य करेंगे। नैतिकता की शिक्षा देने से ही सद्बुद्धि और सदाचरण की वृद्धि नहीं होगी। जब जीवन का एक लक्ष्य निश्चित होगा, जब उस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए लगन उत्पन्न होगी, तब चरित्र आप ही एक नए सांचे में ढलने लगेगा। साथ-ही-साथ जनसाधारण के ज्ञान के स्तर को विस्तृत करना होगा। यह काम रेडियो द्वारा यदि होगा, तो प्रौढ़ शिक्षा की ओर भी अधिक ध्यान होगा। जनतंत्र जीवन का एक ढंग है। हम इसके अभ्यस्त नहीं हैं। हमारी समाज व्यवस्था इसमें बाधक है। इसका भी बदलाव होगा। यह सब काम अत्यंत आवश्यक हैं और जब तक यह मौलिक कार्य नहीं होते तब तक हमारी उन्नति नहीं होगी।
हमको यह नहीं देखना है कि दूसरे क्या करते हैं; प्रतिशोध और विद्वेष की भावना से किया हुआ काम कभी ठीक नहीं होता। हमको अपना लाभ देखना है और अपने सामाजिक और आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा करनी है। मैं नि:संकोच कहना चाहता हूं कि यदि हमने अपनी सांप्रदायिक बुद्धि का परित्याग नहीं किया और जात-पांत के भेद को मिटाया नहीं तो हम आगे नहीं बढ़ सकेंगे।
सबल राष्ट्र तभी बन सकेगा जब भारत के भीतर रहने वाले सभी लोग, बिला लिहाज धर्म, संप्रदाय, प्रांत और जात के, भारतीय समाज के निर्माण में परस्पर सहयोग करेंगे और एक दूसरे के साथ एक देश के नागरिक होने के नाते समानता और स्नेह का व्यवहार करेंगे। हमको राष्ट्रीय प्रश्नों पर राष्ट्र के हित की दृष्टि से विचार करना चाहिए और अपने छोटे छोटे स्वार्थों को तिलांजलि देनी चाहिए।
यदि इस दृष्टि से देखा जाय तो मानना पड़ेगा कि सांप्रदायिक एकता की कितनी आवश्यकता है। परस्पर का विद्वेष बंद होना चाहिए और सबके हितों की रक्षा होनी चाहिए और प्रत्येक को इस प्रकार आचरण करना चाहिए जिसमें वह दूसरों का विश्वासपात्र बन सके। आज का अविश्वास और संदेह का वातावरण घातक है। यदि इसे दूर नहीं किया गया तो यह रोग संक्रामक हो सकता है।
इसका इलाज जल्द होना चाहिए और इलाज वही है जो ऊपर बताया गया है। यह संकोच का युग नहीं है। यह अंतरराष्ट्रीयता का युग है। इस युग में संकीर्ण भावों को पनपने देना आत्म-विनाश को निमंत्रण देना है और युगधर्म की अवहेलना करना है। युग की अंतरात्मा उदारता चाहती है और मानव को मानवता से पृथक् करने के जितने प्रकार चले आ रहे हैं उनका ध्वंस चाहती है। यह कार्य होकर रहेगा। प्रतिगामी शक्तियां कहीं-कहीं कुछ काल के लिए विजयी हो जाएं किन्तु अंत में मानव-धर्म की विजय होगी। जो व्यक्ति और समूह समाज का विकास चाहते हैं और समझते हैं कि मानव-मात्र का कल्याण इसी में है कि युग की मांग का समर्थन किया जाय उन सबको सांप्रदायिक विद्वेष को शांत करने के लिए समवेत चेष्टा करनी चाहिए।
(यह निबंध मूल रूप से एक रेडियो वार्ता के तौर पर प्रसारित हुआ था।)