— रामशरण —
सूरदास के एक मशहूर गीत में कृष्ण मां यशोदा से पूछते हैं कि सब गोरे हैं तो मैं क्यों काला हूं। आज डीएनए विश्लेषण से वैज्ञानिकों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मानव सभ्यता का जन्म अफ्रीका में हुआ। वहां से कुछ लोग सीधे भारत में आए जो आदिवासी कहलाए। कुछ लोग जो अफ्रीका से उत्तर में मध्य एशिया या ध्रुवीय क्षेत्र तक चले गए थे वे बाद में आए। ये ही आर्य सभ्यता के लोग हैं। चूंकि ये ठंढे प्रदेशों से आए थे, इसलिए इनका रंग गोरा था और आदिवासियों का रंग काला था। हालांकि बाद के वर्षों में दोनों में काफी मिश्रण हो गया है। अब नस्ल के आधार पर भारत को बांटने का प्रयास हानिकारक हो सकता है।
यह स्पष्ट है कि कृष्ण आर्यों के नस्ल से नहीं थे, इसलिए उनका रंग काला है। कृष्ण ही क्यों राम और विष्णु भी काले बताये जाते हैं। जबकि वेदों में वर्णित आर्य देवता इंद्र, वरुण, सविता आदि गोरे बताये जाते हैं। पश्चिमी सभ्यताओं में भी इन आर्य देवताओं के प्रतिरूप मिल जाते हैं, क्योंकि वहां भी आर्य नस्ल की ही एक अलग शाखा ने आधिपत्य कायम कर लिया था। भारत में लंबे समय तक आर्य वंश के लोगों द्वारा इन्हीं देवताओं की पूजा की जाती थी।
ऐसा लगता है कि यदुवंशी लोग भी आर्यवंश से ही आए थे। यह उनके रंगरूप से भी लगता है। आर्यों का मुख्य पेशा पशुपालन ही था। घास के मैदानों पर नियंत्रण करने के लिए ही ये आपस में लड़ते रहते थे। जो लोग हार जाते थे वे नए क्षेत्रों की खोज में निकल जाते थे। संभवतः इसी प्रयास में इनका भारत में आगमन हुआ था। यहां की बेमिसाल आबोहवा मध्य एशिया की तरह खतरनाक नहीं थी। इसलिए जीवन आसान होने पर इनमें कार्य विभाजन हो गया। यदुवंशी पशुपालन में लगे रहे और रघुवंशी सत्ता हासिल करने में लग गए। इनमें से जो लोग ज्ञानी या संत हुए उन्होंने अपने को श्रेष्ठ माना और अंतर्जातीय विवाह पर प्रतिबंध लगा दिया। इससे ही जाति व्यवस्था ने जन्म लिया। भारत में आदिवासी पहले से कृषि आदि व्यवसाय से जुड़े हुए थे। उनकी ही एक शाखा जो व्यापार करती थी, संभवतः द्रविड़ कही जाने लगी। धातु के पिघलने की विशेषता के कारण उसे द्रव भी कहा जाता है। व्यापार में धातुओं का इस्तेमाल करने वाले लोग द्रविड़ कहलाए। हड़प्पा सभ्यता इन्हीं द्रविड़ों की देन थी जो ईरान इराक आदि से व्यापार करने केलिए लिए भारत की पश्चिमी सीमा सिंधु नदी के किनारे जाकर बस गये थे।
मध्य एशिया में चूंकि अत्यधिक ठंड पड़ती है और खेती का चलन नहीं था, इसलिए मांसाहार और शराब आम जनजीवन में प्रचलित थे। इसलिए आर्यों की पूजा में भी इनका समावेश था। यज्ञ के नाम पर पशुओं की बलि भरपूर दी जाती थी। यदुवंशी भी इंद्र की पूजा के नाम पर भारी मात्रा में बलि देते थे। लेकिन कृष्ण ने इस आर्य संस्कृति का विरोध किया और प्रकृति के प्रतीक गोवर्धन पर्वत की अन्न से पूजा करने की नींव डाली। इसलिए इस उत्सव को अन्नकूट भी कहते हैं। यह आयोजन एक प्रकार से वैदिक देवताओं की विदाई ही सिद्ध हुआ।