— कृपाशंकर चौबे —
हिंदी को ‘हारी हुई लड़ाई लड़ते हुए’, ‘वंशी और बादल’, ‘महामानव’ जैसे काव्य संग्रह, ‘चौथी पीढ़ी’ जैसा कहानी संग्रह, ‘पुराने घर नए लोग’, और ‘प्रदक्षिणा’ जैसे निबंध संग्रह, ‘कुब्जा सुन्दरी’, और ‘सात घरों का गांव’ जैसे उपन्यास और ‘हिंदी निबंध और निबंधकार’ जैसी आलोचना पुस्तक देने वाले ठाकुर प्रसाद सिंह के जीवन के आखिरी वर्ष शारीरिक दृष्टि से बहुत कष्ट में बीते। शारीरिक कष्ट के अलावा अपने एक और कष्ट को उन्होंने 1994 में मुझसे साझा किया था। उन्होंने कहा था दिल्ली में इलाज के दौरान जिनसे सहयोग की आशा की, उन्होंने खोज-खबर नहीं ली। भला हो पंडित विद्यानिवास मिश्र का, जिन्होंने मेरी चिकित्सा से लेकर हर व्यवस्था एक भाई की तरह की।
मुझे 7-8-1992 को लिखे पत्र में ठाकुर प्रसाद सिंह ने लिखा था, मैं 12 को लखनऊ रहूंगा फिर वहां से आगरे जाऊंगा चेकअप के सिलसिले में। वहां से दिल्ली। 26-3-1993 के पत्र में उन्होंने लिखा, मैं दिल्ली से लौटकर बेचैन पहले जैसा ही हूं। यह किस्सा बहुत दिन चलने वाला नहीं। 28-3-1993 के पत्र में उन्होंने लिखा, आगरे से लगता है 1-2 अप्रैल तक रुकना पड़ सकता है। पहले वाले डॉक्टर कुछ प्रयोग कर रहे हैं। संभल गया तो दिल्ली जाने की जरूरत नहीं। मुझे 12-6-1993 को लिखे पत्र में उन्होंने कहा था, मैं दिल्ली से फरवरी 8-9 को लौटा एक पक्ष पर काम करके तो अप्रैल 6-7 को ब्लड यूरिया-किडनी पर दबाव को लेकर फिर से सुंदरलाल हॉस्पिटल में चला गया। तीसरी बार यानी 6 महीने में कुल ढाई महीने की सेवा। बस जूझ रहा हूं। नियति जानता हूं पर जितनी शक्ति है, लड़ना है। 18-12-1993 के पत्र में उन्होंने लिखा, मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ। मियां गालिब यह बात मेरे लिए ही कह गए हैं। दिल्ली आने पर विशेष काम नहीं है। यानी तीसरे आपरेशन की तैयारी।
दिल्ली में जिनसे उन्हें उम्मीद थी, उनका सहयोग न मिलने की टीस लेकर ही 1994 के अक्टूबर के महीने में ठाकुर भाई ने महाप्रस्थान किया, उनके घनिष्ठ संबंध में में तब आया जब वे स्वतंत्र भारत के वाराणसी संस्करण का स्थानीय संपादक बने। मैं वहां पहले से ही डेस्क पर काम कर रहा था। स्वतंत्र भारत, वाराणसी का स्थानीय संपादक बनने के पहले ठाकुर प्रसाद सिंह ग्राम्या (साप्ताहिक), उत्तर प्रदेश (मासिक) का संपादन कर चुके थे। साप्ताहिक हिंदुस्तान, समाज, आज, और संसार में सहायक संपादक के रूप में भी वे बहुत पहले काम कर चुके थे।
लहरतारा में ‘स्वतंत्र भारत’ का दफ्तर था। दफ्तर में रोज की मुलाकात के अलावा ठाकुर प्रसाद सिंह से उनके ईश्वरगंगी स्थित आवास पर भी हमारी मुलाकात होती। हमारा एक आत्मीय संबंध बन चुका था। स्वतंत्र भारत में रहते हुए ही मेरा चयन कोलकाता के हिंदी दैनिक सन्मार्ग में उप संपादक पद पर हो गया। इसलिए मैंने जब स्वतंत्र भारत से इस्तीफा दिया, तो ठाकुर प्रसाद सिंह ने कहा जाइए, यदि मन न लगे तो लौट आइएगा। और हां, आपको यहां के पाठकों के लिए जो सही लगे तो खबर भी लिखकर भेजते रहिएगा। फीचर भी भेजिएगा। कलकत्ता में अनेक शास्त्रीय संगीतकार जाते हैं, उनसे साक्षात्कार कर भेज दिया कीजिएगा। मैंने कोलकाता से कतिपय खबरें भेजीं। मेरी खबरों के साथ न्याय न होने पर उन्होंने पत्र लिखा। 21 फरवरी 1989 को लिखे उस पत्र में उन्होंने लिखा था, आपकी दोनों खबरें लग गईं किंतु उनके साथ न्याय नहीं हो सका इसका मुझे दुख है। भविष्य में इसका विशेष ध्यान रखूंगा। कुछ फीचर भिजवाएं, प्रतीक्षा करूंगा। कोलकाता में ठाकुर प्रसाद सिंह का आत्मीय होने के कारण ही मुझे हीरालाल चौबे और कवि चंद्रदेव सिंह की आत्मीयता भी मिलती रही।
मैंने जब हजारीप्रसाद द्विवेदी पर संकलन निकालने की योजना बनाई तो ठाकुर प्रसाद सिंह जी ने बहुत सहयोग किया। उन्होंने स्वयं तो लिखा ही, अन्य लेखकों से भी लिखवाया। उस सहयोग की झलक 15.03.1991 के उनके पत्र में पायी जा सकती है। उसमें उन्होंने लिखा था, किसी तरह यह निबंध पूरा कर भिजवा रहा हूं। इससे काम चला लीजिएगा। साथ में श्री उमेश प्रसाद सिंह का भी एक छोटा निबंध है। लखनऊ में हूं। यहां विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के रीडर श्री रामफेर त्रिपाठी मिले। वे पंडित जी के प्रिय थे। एक संस्मरण भिजवा रहे हैं। इसी सप्ताह। साकेत महाविद्यालय के श्री रामशंकर त्रिपाठी ने द्विवेदी जी पर कई शोध कार्य करवाए हैं। वे भी एक रचना भिजवा रहे हैं। 1971 से 1979 तक द्विवेदी जी की सेवा कर रहे श्री शर्मा ने संस्मरण लिख रखे हैं। उनसे कह रहा हूं कि उसमें से कुछ छांटकर भिजवा दें।
ठाकुर जी के सौजन्य से ही विद्याबिन्दु सिंह की रचना मुझे मिली थी जो ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी : चिंतन और व्यक्ति’ पुस्तक में संकलित है। बाद में पुस्तक का परिवर्धित संस्करण ‘हजारीप्रसाद द्विवेदी : ज्ञान का आलोक पर्व’ शीर्षक से छपा। उसमें संकलित ठाकुर प्रसाद सिंह के संस्मरणात्मक लेख का शीर्षक है- उस महगाथा का मैं भी एक पात्र हूं। उसमें ठाकुर प्रसाद सिंह ने लिखा था, अकेले मैं ही अपनी याददाश्त पर जोर डालूं तो द्विवेदी जी का एक उद्धरण कोश संकलित कर सकता हूं। उनके वे शिष्य जिन्होंने विधिवत उनके निकट बैठकर शिक्षा प्राप्त की है, यह कार्य मुझ जैसे अंगूठा विहीन एकलव्य से कहीं अच्छी तरह कर सकते हैं, बशर्ते वे अपने-अपने महाभारत से उबरें।
ठाकुर प्रसाद सिंह ने अपने संस्मरण का समाधान इन पंक्तियों के साथ किया था, “पंडित जी तीस वर्षों के मेरे आपके लंबे संबंध का यह समाधान बिंदु नहीं है। मैं पिछले वर्षों से बार-बार आपके निकट आने का प्रयत्न करता रहा और हर बार नियति के क्रूर हाथ मुझे आपसे दूर कर देते थे। हिंदी विभाग में प्रवेश करने का मेरा प्रयत्न तभी असफल हुआ, जब आप उस विभाग के द्वारपाल थे। काशी नगरी प्रचारिणी सभा की सदस्यता से आपके अध्यक्ष पद पर होते ही वंचित कर दिया गया। आज आपके अध्यक्ष रहते हुए भी आपकी इच्छा के विरुद्ध हिंदी निदेशक पद से हटा दिया गया हूं और एक अनिश्चित भविष्य मेरी प्रतीक्षा कर रहा है। न तो मेरी वंश परंपरा में कुछ है न मेरे बैंक खातों में उल्लेखनीय अंकों की मुद्रा। मेरा कोई अधिकार किसी पर नहीं है, न आप पर न आपके चारों ओर फैली इस दुनिया पर। मुझे विधिवत अध्ययन करने का अवसर नहीं मिला और जीवनभर मैं तुलसीदास की भांति बिछाते ही रह गया। नींदभर सोने का अवसर मुझे कभी नहीं मिला। इस एक वाक्य में ठाकुर प्रसाद सिंह ने अपनी आत्मकथा ही लिख दी है।