ओड़िशा और राजस्थान के बाद अन्य राज्यों में ‘ठेका प्रणाली’ खत्म करने का संघर्ष जारी

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31 अक्टूबर। देशभर में पुरानी पेंशन प्रणाली की बहाली और ठेका प्रणाली को खत्म करने की माँग को लेकर ट्रेड यूनियनों का संघर्ष जारी है। कुछ कांग्रेस शासित राज्यों और आम आदमी पार्टी शासित पंजाब ने इसे लागू भी किया है। यह यूनियनों की एक बड़ी जीत है। दिलचस्प बात यह है कि ओड़िशा और राजस्थान की पहल ने राजनीतिक नेताओं को अपनी राज्य सरकारों द्वारा इसी तरह की कार्रवाई की माँग करने के लिए प्रेरित किया है। हाल ही में तमिलनाडु की पट्टाली मक्कल काची के अध्यक्ष अंबुमणि रामदास ने राज्य सरकार से सरकारी विभागों में ठेका नियुक्तियों को समाप्त करने और सामाजिक न्याय का एक उदाहरण स्थापित करने की माँग है।

वहीं पश्चिम बंगाल में ठेका प्रणाली उन्मूलन के लिए राज्य सरकार पर ट्रेड यूनियनों द्वारा लगातार दबाव बनाया जा रहा है। ट्रेड यूनियन नेताओं का कहना है कि अब उन राज्यों में आंदोलन तेज किया जाना चाहिए जहाँ सरकारी नौकरियों में ठेका मजदूरों की संख्या ज्यादा है। न्यूजक्लिक की रिपोर्ट के मुताबिक रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी (यूनाइटेड ट्रेड्स यूनियन कांग्रेस) के अध्यक्ष अशोक घोष के अनुसार, इसका एक सबसे बड़ा उदहारण पश्चिम बंगाल है, जहाँ तृणमूल कांग्रेस के शासन में ठेका मजदूरों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है।

विदित हो, कि हाल ही में ओड़िशा और राजस्थान में ठेका प्रणाली को खत्म कर दिया गया है। ओड़िशा सरकार के सामान्य प्रशासन और लोक शिकायत विभाग ने पिछले दिनों मुख्यमंत्री नवीन पटनायक द्वारा घोषणा के बाद 16 अक्टूबर को अधिसूचना जारी की थी। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने 22 अक्टूबर को नियमितीकरण प्रस्ताव को मंजूरी दी थी जिसके बाद अन्य राज्यों में ट्रेड यूनियनों द्वारा सरकार पर इस बात का दबाव बनाया जा रहा है।

जानकारी के अनुसार बीजेडी सरकार के इस फैसले से 57,000 मजदूरों को लाभ हुआ है। जबकि राजस्थान में इस कदम से अनुमानित 1.1 लाख कर्मचारियों को फायदा होगा, जिसमें अकेले शिक्षा विभाग के 40,000 से अधिक कर्मचारी शामिल हैं। ओड़िशा के ठेका मजदूरों को मिली इस बड़ी जीत के पीछे ट्रेड यूनियनों का बहुत बड़ा योगदान है। लगातार संघर्ष के दौरान कई बार अदालती आदेश व टिप्पणियां भी दी गयी थीं, जिसके कारण पटनायक सरकार पर ठेका प्रणाली को समाप्त करने का दबाव बढ़ता जा रहा था।

नवंबर 2021 में, न्यायाधीश बी.आर. सारंगी की एकल पीठ ने कहा था कि मैनपॉवर की कमी के कारण ठेका मजदूरों की भर्तियां करना, उनसे स्थायी कर्मचारियों के बराबर काम करवाना और कम वेतन देना सही नहीं है। उन्होंने कहा था, कि “निःसंदेह विकास में प्रौद्योगिकी का अपना स्थान है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं हो सकता, कि सरकार रोजगार का सृजन नहीं करेगी।” न्यायमूर्ति सारंगी ने तब दलील दी थी, कि वित्तीय संकट का हवाला देते हुए ठेका प्रणाली के तहत मजदूरों को काम पर रखना सही तरीका नहीं है।

(‘वर्कर्स यूनिटी’ से साभार)


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