— विमल कुमार —
“जब तक आप स्थानीय नहीं हैं तब तक आप वैश्विक नहीं हो सकते” – मैनेजर पांडेय
अगर आप किसी लेखक को उसके एक वाक्य से पहचानना चाहते हैं तो आप उससे उसको पहचान सकते हैं। मैनेजर पांडेय का यह वाक्य उनका परिचय है। वह किस तरह स्थानीयता को वैश्विकता से जोड़ना चाहते हैं यह उनकी आलोचना और उनके व्यक्तित्व का सार है, यह एक सूत्रवाक्य है। यह आलोचना की एक जीवन दृष्टि भी है।
हिंदी के मूर्धन्य मार्क्सवादी आलोचक नामवर सिंह की पीढ़ी के बाद जिन आलोचकों ने हिंदी आलोचना में महत्त्वपूर्ण और स्थायी जगह बनाई उनमें मैनेजर पांडेय प्रमुख हैं। उनके निधन से हिंदी आलोचना का एक और स्तंभ ढह गया, यह कहना काफी नहीं होगा। बल्कि यह कहना अधिक उचित होगा कि वे हिंदी आलोचना ही नहीं बल्कि जेएनयू की बौद्धिक परम्परा की भी पहचान थे। इस तरह जेएनयू की विचारशीलता और आलोचना दृष्टि का भी अवसान हुआ।
नामवर जी के बाद हिंदी की दुनिया में जेएनयू की पहचान केदारनाथ सिंह और मैनेजर पांडेय से बनी थी। इस तरह यह त्रयी भी अब समाप्त हो गई। नामवर जी के बाद वे दूसरे ऐसे आलोचक थे जिनको परंपरा, आधुनिकता समकालीनता और मार्क्सवाद में गहरी रुचि थी और वे साहित्य को भक्ति आंदोलन, नवजागरण तथा राष्ट्रीय आंदोलन के परिप्रेक्ष्य में देखते थे, साथ ही वर्तमान चुनौतियों के मद्देनजर साहित्य का मूल्यांकन करते थे। उनके भाषणों में एक तरह का विट भी दिखाई देता है और उसमें गहरा कटाक्ष भी होता था।
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र के पूर्व अध्यक्ष मैनेजर पांडे का कल सुबह जब निधन हो गया तो फेसबुक पर उनको श्रद्धांजलि देनेवालों का तांता लग गया। दरअसल उनके शिष्यों की संख्या काफी है और वे उनमें बहुत लोकप्रिय भी थे।
वह पिछले कुछ दिनों से काफी बीमार चल रहे थे तथा आईसीयू में भर्ती भी थे। कई बार अस्पताल में भर्ती हुए फिर घर आए और अंततः मृत्यु ने उन्हें हमसे छीन लिया और 81 वर्ष की उम्र में वे हमसे विदा हो गए।
जन संस्कृति मंच, जनवादी लेखक संघ जैसे प्रमुख वामपंथी लेखक संगठनों तथा कई जाने-माने लेखकों ने श्री पांडेय के निधन पर गहरा दुख व्यक्त किया है। उनको जानने, मानने और उनका आदर करने वाले लोगों की संख्या काफी बड़ी थी और वह साहित्य जगत में अपने चिरपरिचित अंदाज तथा अनोखी वक्तृत्व शैली के कारण लोकप्रिय भी थे।
बिहार के गोपालगंज जिले के लोहाटी गांव में 23 सितम्बर, 1941 को जनमे श्री पांडेय ने नामवर सिंह की मार्क्सवादी आलोचना का विस्तार किया। उनकी आरम्भिक शिक्षा गाँव में तथा उच्च शिक्षा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हुई, जहाँ से उन्होंने एम.ए. और पीएच. डी. की उपाधियाँ प्राप्त कीं। वह नामवर जी, केदार जी की तरह जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के भाषा संस्थान के भारतीय भाषा केन्द्र के अध्यक्ष भी थे। इसके पूर्व वह बरेली कॉलेज, बरेली और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी प्राध्यापक रहे।
उन्हें दिनकर सम्मान तथा हिंदी अकादमी के शलाका सम्मान से नवाजा गया। वे भक्तिकाल और सूर साहित्य के विशेषज्ञ थे। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने तुलसी का, द्विवेदी जी ने कबीर का, विश्वनाथ त्रिपाठी ने मीरा का जिस तरह सम्यक मूल्यांकन किया उसी तरह पांडेय जी ने सूर का मूल्यांकन किया लेकिन जिस चीज़ ने उन्हें ख्याति दिलवाई वह उनकी पुस्तक ‘साहित्य और इतिहासदृष्टि’ तथा ‘साहित्य में समाजशास्त्र’ भूमिका थी। ‘मुगल बादशाहों की हिंदी कविता’ उनकी चर्चित कृति थी। इसने उनकी शोहरत में चारचांद लगा दिए।
वे जनसंस्कृति मंच के अध्यक्ष भी थे। बाद में उससे दूर भी हो गए। वह मार्क्सवादी होने के बाद भी कट्टर मार्क्सवादियों की तरह आलोचना में यकीन नहीं करते थे और शायद यही कारण था कि उन्होंने दिनकर और अज्ञेय पर भी लिखा, जबकि हिंदी साहित्य में वामपंथी आलोचकों ने दिनकर और अज्ञेय की काफी उपेक्षा ही नहीं की बल्कि एक तरह से उन्हें अस्पृश्य भी करार दिया लेकिन पांडेय जी ने इन दोनों लेखकों के अवदान को रेखांकित किया। अज्ञेय के जन्म शती वर्ष में जब वे अज्ञेय पर बोलने एक समारोह में गए तो जसम के लोगों ने उनका विरोध भी किया लेकिन उन्होंने उस विरोध की परवाह न कर वहां जाकर अज्ञेय के साहित्य का मूल्यांकन किया। यह साहस पांडेय जी के पास था और अपनी आलोचकीय दृष्टि को बरकरार रखने के लिए वे अपने संगठन के कट्टरपंथियों से लोहा लेना भी जानते थे।
नामवर सिंह श्री पांडेय की प्रतिभा को पहचान कर उन्हें 1977 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में लाये थे। एक हीरा ही दूसरे हीरे को पहचानता है।
पांडेय जी को महावीरप्रसाद द्विवेदी, शिवपूजन सहाय जैसे संपादकों और हिंदी सेवियों में अगाध श्रद्धा थी लेकिन वे नवजागरण के आलोचक भी थे और इसलिए रामविलास शर्मा की बहुत-सी मान्यताओं के समर्थक नहीं थे। उनपर आलोचना में विदेशी लेखकों के अधिक उद्धरणों को कोट करने का आरोप लगता भी रहा और समकालीन साहित्य में कम दखल होने की शिकायतें की जाती रहीं पर सिवान की कविता पुस्तक का सम्पादन इस बात का प्रमाण है कि वे नए से नए कवियों को पढ़ते थे ।
पांडेय जी का जाना एक सरल सहज हंसोड़ बेबाक व्यक्ति का जाना भी है जिसका उद्देश्य हिंदी की दुनिया में शोधार्थियों को बढ़ावा देना और अपने शिष्यों को गंभीर साहिय के लिए प्रेरित करना था। उनके निर्देशन में कुछ बहुत अच्छे शोधकार्य भी हुए हैं।
हिंदी की दुनिया उनके जाने से थोड़ी विपन्न जरूर हो गयी है।