— शुभनीत कौशिक —
आधुनिक भारत में समतामूलक समाज की स्थापना हेतु अथक प्रयास करने वालों में और मुक्तिकामी विचारधारा को अपने चिंतन से नई धार देने वालों में डॉ. राममनोहर लोहिया और डॉ. बी.आर. आंबेडकर अग्रणी रहे हैं। कम ही लोग जानते हैं कि डॉ. लोहिया और आंबेडकर ने परस्पर संवाद स्थापित करने की दृष्टि से पत्र-व्यवहार किया था। यद्यपि, दुर्भाग्य से ये दोनों ही नेता मिल नहीं सके क्योंकि 6 दिसंबर 1956 को आंबेडकर का निधन हो गया। पर इन दोनों के पत्र-व्यवहार को पढ़ने से इन दोनों ही नेताओं की संवादपरकता, जाति-प्रथा को तोड़ने को लेकर उनकी प्रतिबद्धता जाहिर होती है।
लोहिया-आंबेडकर का यह पत्र-व्यवहार डॉ. लोहिया की पुस्तक ‘जाति प्रथा’में प्रकाशित हुआ और बाद में, राममनोहर लोहिया रचनावली के खंड 2 में भी छापा गया। डॉ. लोहिया के निधन के बाद, उनके कई सहकर्मियों में भी जाति-प्रथा को लेकर एक नरमी घर कर गई थी, या शायद वे लोग जाति-प्रथा से लड़ने की अपनी प्रतिबद्धता ही खो चुके थे। इसी प्रवृत्ति को लक्ष्य करते हुए, 1986 में समाजवादी नेता बदरीविशाल पित्ती ने लिखा कि “मैं ऐसे लोहिया सहकर्मियों को जानता हूँ जो आजकल फिर से जनेऊ पहनने लगे हैं और कहते हैं कि जब अद्विज और भी अद्विज हो रहे हैं तो हम भी क्यों पीछे रहें। या तो जाति-प्रथा का नाश करने की नीति में इनका विश्वास नहीं था, लेकिन डॉ. साहब की वजह से दिखावे के लिए इन्होंने विश्वास जतलाया, या आस्था से यह अस्थायी विचलन है। या फिर, उस समय भी ये अपने गंदे संस्कारों को वक्ती तौर पर दबाए पाए थे।” (‘आमुख’, जाति प्रथा)।
डॉ. लोहिया-आंबेडकर के पत्र न सिर्फ सामाजिक न्याय के प्रति इन दोनों ही नेताओं की अटूट प्रतिबद्धता को दर्शाते हैं, बल्कि आजाद भारत में हर तबके के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय सुनिश्चित करने के लिए, इन दोनों ही विचारकों की तत्परता और संवादधर्मिता को भी परिलक्षित करते हैं। 10 दिसंबर 1955 को राममनोहर लोहिया ने बी.आर.आंबेडकर को एक खत लिखा। इस खत में लोहिया ने आंबेडकर से ‘मैनकाइंड’ पत्रिका में प्रकाशन हेतु एक लेख की माँग की। मैनकाइंड के बारे में डॉ. लोहिया ने लिखा कि ‘मैनकाइंड जाति समस्या को अपनी संपूर्णता में खोलकर रखने का प्रयत्न करेगा।’ लेख के विषय में डॉ. लोहिया का सुझाव था कि डॉ. आंबेडकर जाति-प्रथा के किसी पहलू पर मैनकाइंड के लिए एक लेख लिखें और वह लेख ऐसा हो कि ‘हिंदुस्तान की जनता न सिर्फ क्रोधित हो, बल्कि आश्चर्य भी करे।’ लोहिया ने आंबेडकर से यह भी कहा कि आप न सिर्फ अनुसूचित जातियों के नेता बनें, बल्कि पूरी हिंदुस्तानी जनता के नेता बनें।’ अपने इस खत में, डॉ. लोहिया ने आंबेडकर को न सिर्फ समाजवादी दल के स्थापना सम्मेलन में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया, बल्कि उन्हें समाजवादी दल के क्षेत्रीय शिक्षण शिविर में भी भाग लेने का न्योता दिया (डॉ. राममनोहर लोहिया रचनावली, खंड 2, मस्तराम कपूर (संपा.), पृ. 110-111)।
इस बीच, डॉ. लोहिया के दो साथी विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी दिल्ली में डॉ. आंबेडकर से, 26 अलीपुर रोड स्थित, उनके निवास पर मिले। आंबेडकर के साथ हुई अपनी बातचीत का विस्तृत ब्योरा इन दोनों ने डॉ. लोहिया को, 27 सितंबर 1956 को लिखे अपने खत में दिया। इन दोनों ने लिखा कि डॉ. आंबेडकर, लोहिया से मिलने के इच्छुक हैं, पर बाधा यह थी कि आंबेडकर की तबीयत तब ठीक नहीं रहती थी और वे ‘सहारा लेकर ही चल-फिर पाते’ थे। फिर भी, आंबेडकर ने मेहरोत्रा और गोस्वामी से लंबी चर्चा की। आंबेडकर ने न सिर्फ सोशलिस्ट पार्टी की नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में अधिक विस्तार से जानने में दिलचस्पी दिखाई, बल्कि ‘मैनकाइंड’ के सभी अंक भी अपने खर्च पर माँगे। आंबेडकर ने उस बातचीत में इस बात पर जोर दिया कि हिंदुस्तान में विपक्ष को मजबूत होना चाहिए। साथ ही, आंबेडकर ने आजाद भारत में ‘मजबूत जड़ों वाले एक नए राजनैतिक दल’ की जरूरत पर जोर दिया। मेहरोत्रा और गोस्वामी से अपनी वार्ता में, आंबेडकर ने मार्क्सवादी ढंग के साम्यवाद या समाजवाद के हिंदुस्तान के लिए लाभदायक होने पर संदेह जताया। पर उन्होंने यह भी कहा कि वे डॉ. लोहिया से और समाजवादी दल के दूसरे नेताओं से पूरे हिंदुस्तान के पैमाने पर बात करने के लिए तैयार हैं। वार्ता के इस क्रम में आंबेडकर ने न सिर्फ इंग्लैंड आदि देशों की प्रजातांत्रिक प्रणाली की चर्चा की, बल्कि जनतांत्रिक प्रक्रियाओं में अपना दृढ़ विश्वास भी जताया। (वही पृ. 111-112)
मेहरोत्रा और गोस्वामी से मिलने के बाद, खुद आंबेडकर ने लोहिया को 24 सितंबर 1956 को एक खत लिखा। इसमें उन्होंने लोहिया को इन दो नेताओं के साथ हुई बातों के बारे में बताया। आंबेडकर ने यह भी लिखा कि 30 सितंबर 1956 को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ की बैठक में वे इन बातों की भी चर्चा करेंगे। और यह भी कि वे चाहते हैं कि अनुसूचित जाति संघ की कार्यसमिति की बैठक के बाद, सोशलिस्ट पार्टी के प्रमुख नेताओं के साथ एक बैठक हो। डॉ. आंबेडकर अनुसूचित जाति संघ और समाजवादी नेताओं के बीच यह बैठक इसलिए चाहते थे ताकि ‘तय किया जा सके कि साथ होने के लिए हम लोग क्या कर सकते हैं।’ आंबेडकर ने लोहिया को मिलने के लिए 2 अक्टूबर, 1956 को अपने निवास पर बुलाया। (वही, पृ. 112)
पर दुर्भाग्य से, यह खत लोहिया को 1 अक्टूबर, 1956 को मिला और तब वे हैदराबाद में थे। सो वह मुलाकात टल गई। लोहिया ने 1 अक्टूबर, 1956 को ही आंबेडकर को लौटती डाक से एक खत लिखा। इस खत में लोहिया ने लिखा कि वे खुद जल्द-से-जल्द डॉ. आंबेडकर से मिलना चाहते हैं और लोहिया ने मुलाकात के लिए 19-20 अक्टूबर की तारीख सुझाई। लोहिया ने आंबेडकर को मैनकाइंड के तीन पूर्व-अंक भेजे ताकि वे उनमें छपे लेखों को देखें और अपनी सुविधा के हिसाब से मैनकाइंड में लिखने हेतु खुद ही कोई विषय चुनें। लोहिया ने अंत में यह भी जोड़ा कि “मैं केवल इतना ही कहूँगा कि हमारे देश में बौद्धिकता निढाल हो चुकी है, मैं आशा करता हूँ कि यह व्यक्ति है, और इसलिए आप (डॉ आंबेडकर) जैसे लोगों का बिना रोक के बोलना जरूरी है।” (वही पृ. 113)
आंबेडकर ने लोहिया का खत पाते ही 5 अक्टूबर 1956 को अपने जवाबी खत में लोहिया को लिखा कि ‘आप 20 अक्टूबर को मुझसे मिलना चाहते हैं तो मैं दिल्ली में रहूँगा, आपका स्वागत है।’
पर 15 अक्टूबर 1956 को लिखे अपने खत में, विमल मेहरोत्रा ने डॉ. आंबेडकर को सूचित किया कि 20 अक्टूबर को डॉ. लोहिया उनसे नहीं मिल सकेंगे। विमल जी ने डॉ. आंबेडकर से निवेदन किया कि वे अनुसूचित जाति संघ के कार्य-समिति के फैसलों के बारे में उन्हें बताएं। गौरतलब है कि उसी समय अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ ने अपनी एक बैठक में, ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ बनाने का सुझाव मंजूर किया था। विमल जी ने आगे यह भी लिखा कि डॉ. आंबेडकर से उनका आग्रह है कि वे देश के मौजूदा राजनीतिक दलों के नीति और कार्यक्रम को देखकर इनकी ‘कथनी-करनी के बारे में’ अपनी राय दें। इसके अलावा, विमल जी ने चुनाव समझौते की डॉ. आंबेडकर की नीति पर भी अपनी दुविधा सामने रखी। स्वेज संकट (1956) के संदर्भ में, डॉ. आंबेडकर की प्रतिक्रिया पर टिप्पणी करते हुए विमल जी ने लिखा कि “स्वेज के बारे में आपकी समिति का प्रस्ताव राष्ट्रीय स्वार्थ की दृष्टि से भले सोचा गया हो। पर दूर की दृष्टि से सोचें तो क्या हिंदुस्तान में लगी विदेशी पूँजी का राष्ट्रीयकरण बिना उन देशों की सहमति के नहीं किया जाएगा, जिनके पूँजीपतियों का पैसा लगा हो।” (वही, पृ. 115)
विदेश मामलों पर आंबेडकर की नीति से लोहिया पहले भी कुछ असहमति विमल मेहरोत्रा और धर्मवीर गोस्वामी को लिखे अपने खत में जाहिर कर चुके थे। लोहिया ने 1 अक्तूबर, 1956 को लिखे अपने खत में लिखा कि “डॉ. आंबेडकर की सबसे बड़ी दिक्कत रही है कि वे सिद्धांत में अटलांटिक गुट से नजदीकी महसूस करते हैं। मैं नहीं समझता कि इस निकटता के पीछे सिद्धांत के अलावा और कोई बात है। लेकिन इससे हम लोगों को बहुत सतर्क रहना चाहिए। मैं चाहता हूँ कि डॉ. आंबेडकर समान दूरी के खेमे की स्थिति में आ जाएँ।” (वही, पृ. 113-114)
पर इससे पहले कि डॉ. आंबेडकर और डॉ. लोहिया मिलते, एक नए राजनैतिक दल की स्थापना करते और भारत में जाति विरोधी आंदोलन को और तेजी देते कि 6 दिसंबर, 1956 को डॉ.आंबेडकर का निधन हो गया। अपने समाजवादी साथी मधु लिमये को लिखे एक खत में लोहिया ने लिखा कि डॉ. आंबेडकर का निधन उनकी व्यक्तिगत क्षति है। लोहिया ने लिखा कि “मेरे लिए डॉ. आंबेडकर राजनीति के एक महान आदमी थे और गांधीजी को छोड़कर बड़े-से-बड़े सवर्ण हिंदुओं के बराबर थे।” लोहिया ने यह संतोष और विश्वास प्रक़ट किया कि निकट भविष्य में एक दिन जरूर हिंदू धर्म से जाति-प्रथा समूल नष्ट हो सकेगी। लोहिया ने डॉ. आंबेडकर और जगजीवन राम की नेतृत्व शैली में स्पष्ट अंतर किया और उनका मानना था कि यही अंतर हिंदुस्तान भर में दलितों के नेतृत्व में दिखाई देता है।
लोहिया के अनुसार, डॉ. आंबेडकर “स्थिरता, साहस और स्वतंत्रता” के परिचायक थे, पर उनमें कटुता और अलग रहने का भाव भी था। आंबेडकर से लोहिया को यह शिकायत थी कि उन्होंने गैर-दलितों का नेता बनने से इनकार कर दिया। बकौल लोहिया, ऐसा “5000 वर्षों की तकलीफ और दलितों पर पड़े उसके बुरे असर” की वजह से हुआ था। लोहिया को उम्मीद थी कि आंबेडकर इस प्रवृत्ति से जरूर उबरते, पर इससे पहले ही वे काल-कवलित हो गए। जगजीवन राम के बारे में, लोहिया का मत था कि वे “ऊपरी तौर पर हर हिंदुस्तानी और हिंदू के लिए सद्भावना दिखाते हैं, सवर्ण हिंदुओं से बातचीत में उनकी तारीफ और चापलूसी करते हैं, पर जहाँ केवल दलितों की सभा हो रही हो, वहाँ वे घृणा की कटु ध्वनि भी फैलाते हैं।” लोहिया का मानना था कि इस बुनियाद पर न तो दलित और न ही हिंदुस्तान कभी ऊपर उठ सकता है। लोहिया, मधु लिमये को लिखे अपने इस खत में, जो 1 जुलाई 1957 को लिखा गया था, आखिर में लिखते हैं :
“हिंदुस्तान की परिगणित (अनुसूचित) जाति के लोग देश की पिछले 40 साल की राजनीति के बारे में विवेक से सोचें। मैं चाहूँगा कि श्रद्धा और सीख के लिए वे डॉ. आंबेडकर को प्रतीक मानें, डॉ. आंबेडकर की कटुता को छोड़कर उनकी स्वतंत्रता को लें, एक ऐसे डॉ. आंबेडकर को देखें, जो केवल हरिजनों के ही नहीं बल्कि पूरे हिंदुस्तान के नेता बनें।” (वही, 116-17)
वर्ष 2012 में सेमिनार पत्रिका में प्रकाशित अपने एक लेख, “आंबेडकर एंड लोहिया : ए डायलाग ऑन कास्ट” में, योगेन्द्र यादव ने सामाजिक न्याय से जुड़ी राजनीति और नीतियों का पुनराविष्कार करने के लिए डॉ. आंबेडकर और लोहिया के चिंतन पर नये सिरे से सोचने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने जाति के सवाल पर डॉ. आंबेडकर और लोहिया के चिंतन में चार समानताएँ रेखांकित की हैं। पहला, इन दोनों ही विचारकों ने जाति को हिंदुस्तान में असमानता, अन्याय और शोषण के लिए उत्तरदायी एक स्वायत्त और उल्लेखनीय कारक के रूप में देखा। दोनों ने ही, जेंडर और वर्ग-आधारित असमानताओं के कटु सामाजिक यथार्थ को पहचानते हुए सामाजिक न्याय की राजनीति करने हेतु जातिगत भेदभाव का पुरजोर विरोध करने पर विशेष जोर दिया। दूसरा, इन दोनों ही विचारकों ने जाति-व्यवस्था को देश की आर्थिक जड़ता, सांस्कृतिक पतन और विदेशी शक्तियों के सामने देश की कमजोरी के लिए जिम्मेदार ठहराया। तीसरा, जातिगत भेदभाव को दूर करने के लिए इन दोनों ही नेताओं ने जाति-व्यवस्था को खत्म करने की पुरजोर वकालत की। चौथा, जाति-व्यवस्था से लड़ने के लिए इन दोनों ही नेताओं ने नैतिक-आध्यात्मिक पक्ष पर भी विचार किया और जाति-व्यवस्था के विरुद्ध लड़ी जाने वाली लड़ाई को वैचारिक धरातल पर भी लड़ने पर जोर दिया।