— श्रीनिवास —
कल 12 नवंबर को हिमाचल प्रदेश विधानसभा चुनावों के लिए मतदान हुआ। गुजरात में अभी देर है। मैदान में ताल ठोंक रहे दलों के अलावा सभी मान रहे हैं कि हिमाचल में सत्तारूढ़ भाजपा और कांग्रेस के बीच कांटे का मुकाबला है। हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस जीत का दावा करते हुए उस ‘रिवाज’ पर भी भरोसा कर रही है, जिसके तहत 1985 के बाद से वहां हर पांच साल बाद सरकार बदल जाती है। उधर भाजपा को भरोसा है कि इस बार यह परंपरा टूट जाएगी।
वैसे अभी यह सब अनुमान की बात है। क्या होगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। फिर भी दूर-दूर से सुन-देख कर जो महसूस होता है, उससे इतना स्पष्ट है कि दोनों राज्यों में भाजपा सत्ता बचाने के लिए जूझ रही है। यदि यह अनुमान सही है, तो इसका एक अर्थ यह है कि भाजपा की कथित चुनावी मशीन भी हमेशा कारगर हो, जरूरी नहीं। यह भी कि अब भी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। आम हिंदू का खून वे उतना नहीं खौला पाये हैं, जितना वे चाहते थे या चाहते हैं। यानी ऐसा नहीं है कि वह अपनी दैनंदिन समस्याओं को भूलकर महज धार्मिक नारों, उन्माद, भव्य मंदिर और जगह जगह मसजिद के नीचे मंदिर तलाशने के भुलावे में पड़ चुका है। बतौर एक मतदाता बहुतेरे आम हिंदू भी संभवतः विकल्प खोज रहे हैं। यही सहज भी है।
जब बीते 27 वर्षों से भाजपा शासन में रहे गुजरात, जहां खुद नरेंद्र मोदी तेरह वर्ष मुख्यमंत्री रहे, जहां उन्होंने ‘हिंदू ह्रदय सम्राट’ की उपाधि अर्जित की, में बहुप्रचारित ‘गुजरात मॉडल’ पर लोग सवाल करने लगे हैं, तो मानना चाहिए कि या तो ‘मोदी मैजिक’ पालतू मीडिया और आईटी सेल द्वारा फैलाया शिगूफा था; या कुछ था भी तो उसका असर अब उतार पर है। वैसे भी यह कथित मोदी मैजिक दक्षिण भारत और पूर्वोत्तर राज्यों में तो बेअसर ही रहा है। इस ‘मैजिक’ का मूल तत्त्व आम (किसी भी जाति के) हिंदू में हिंदू होने के गर्व का बोध भरना और धर्म पर आसन्न कथित खतरे का हौवा खड़ा करना रहा है। यह मध्य और उत्तर भारत में काफी हद तक सफल भी रहा है। लेकिन यह असर आगे भी रहेगा, इसकी गारंटी नहीं है। यदि सचमुच नहीं है, तो यह भारतीय लोकतंत्र के परिपक्व होने का संकेत है।
गुजरात में तो लगभग तीन दशक से भाजपा सत्ता में है। लेकिन भाजपा राज्य सरकार की किसी उपलब्धि या अच्छे काम के नाम पर नहीं, मोदी जी के नाम पर और केंद्र सरकार के काम पर वोट मांग रही है! हिमाचल प्रदेश में तो सीधे धार्मिक मुद्दों को भुनाने का प्रयास कर रही है। ‘भास्कर’ में छपी एक खबर के मुताबिक (वैसे यह खबर तमाम अखबारों में है)- ‘इस देवभूमि के वोटरों को रिझाने के लिए अयोध्या में राम जन्मभूमि मंदिर, उज्जैन के श्री महाकाल लोक और काशी-विश्वनाथ धाम के बड़े-बड़े होर्डिंग्स लगाए गए हैं!’ यानी सुशासन के अपने दावे पर भाजपा को ही भरोसा नहीं है।
एक वीडियो वायरल है, जिसमें प्रधानमंत्री मोदी हिमाचल प्रदेश भाजपा के एक बागी प्रत्याशी को फोन पर चुनाव से हट जाने के लिए कह रहे हैं। इससे हिमाचल प्रदेश में भाजपा के चुनावी भविष्य को लेकर मोदी के फिक्रमंद होने का पता चलता है।
एक चुनावी सभा में मोदी ने मतदाताओं से यह भी कह दिया कि प्रत्याशी का नाम जानने की जरूरत नहीं है, आप सिर्फ मोदी को देखिए और कमल छाप को देखिए। ऐसा कहना निहायत अलोकतांत्रिक है। इस अर्थ में कि संसदीय प्रणाली में मतदाता पार्टी का निशान देखकर भले ही मतदान करता है, लेकिन वह सीधे मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री का चुनाव नहीं करता है। उस चुनाव क्षेत्र में खड़े अनेक प्रत्याशियों से एक को चुनने के लिए वोट देता है। लेकिन मोदी जी के ऐसा कहने का एक मतलब यह भी निकलता है कि राज्य सरकार ने क्या किया या नहीं किया, मतदाता उस बात पर ध्यान न दे। किसी वर्तमान विधायक के काम से जनता नाखुश है, तो भी वह उस बात को भूलकर सिर्फ मोदी के नाम पर वोट दे दे। यानी कहीं यह एहसास भी है कि जनता राज्य सरकार के कामकाज से असंतुष्ट है।
गुजरात में अचानक ‘आप’ की सक्रियता ने दोनों प्रमुख दलों- भाजपा और कांग्रेस को तनाव में ला दिया है। केजरीवाल तो सरकार बनाने का ही दावा कर रहे हैं। लेकिन शायद यह हवा बनाने की रणनीति ही है। हालांकि अब तक यह स्पष्ट नहीं हो सका है कि ‘आप’ की सक्रियता और किंचित भी सफलता से इन दो दलों में से किसे अधिक नुकसान या लाभ हो सकता है।
जो भी हो, इन दो राज्यों के चुनाव परिणाम बेहद महत्त्वपूर्ण साबित होने वाले हैं, क्योंकि इनसे जनता के मिजाज का एक हद तक आकलन हो सकेगा। संभव है, इनसे भाजपा के अपराजेय होने का भ्रम एक बार फिर टूट जाए। वैसे भाजपा की अपराजेयता मिथक ही है। यह सही है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के बाद उसकी सफलता का ग्राफ चढ़ता गया था। उसके बाद उसने कई विधानसभाओं के चुनाव जीते। दक्षिणी राज्य कर्नाटक और गोवा सहित उत्तर-पूर्व में भी ‘कमल’ खिला। लेकिन इनमें से अनेक राज्यों में उसकी सरकार तोड़फोड़ और ‘उधार के’ विधायकों के दम पर बनी।
2019 के संसदीय चुनाव में पिछली बार के मुकाबले अधिक मत प्रतिशत और अधिक सीट लाना बेशक उसकी बड़ी सफलता थी। मगर उसके बाद भी कई राज्यों में उसे पराजय का सामना करना पड़ा। कर्नाटक और मध्य प्रदेश में तो उसने कांग्रेस की बनी हुई सरकार को पलटने का ही कारनामा कर दिखाया। बिहार में उसके साथ ही खेल हो गया, तो उसने महाराष्ट्र में शिवसेना को तोड़कर खेल कर दिखाया। देश के अनेक हिस्सों में आज भी उसकी उपस्थिति नहीं है। अभी भारत के राजनीतिक मानचित्र को देखने से भी यह स्पष्ट हो जाता है।
बेशक हिंदीपट्टी के राज्यों में आज भी मोदी जी के प्रति एक आकर्षण बचा हुआ है। इसलिए भाजपा विधानसभा चुनाव भी उस छवि के नाम पर लड़ने की रणनीति पर चलती है। लेकिन पहले भी दिखा है- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और पंजाब उदहारण हैं- कि इस चेहरे का जादू भी नहीं चलता या वह उतार पर है।
इसलिए इन दो राज्यों के चुनाव मोदी की साख से भी जुड़े है। उनकी चिंता का एक कारण यह भी है। फिलहाल तो नतीजों के लिए लंबा इंतजार करना होगा। इसलिए कि हिमाचल के नतीजे भी गुजरात के नतीजों के साथ ही घोषित होंगे।