— नारायण देसाई —
लंबे समय तक गांधी कहते रहे कि ईश्वर सत्य है। लेकिन 1928 के आसपास उन्हें लगा कि ‘सत्य ही ईश्वर है’ कहना उनकी अनुभूति को कहीं ज्यादा अच्छी तरह व्यक्त करता है।निरीश्वरवादी लोग ईश्वर का अस्तित्व नहीं मानते। पर सत्य का अस्तित्व है यह वे भी मानते हैं। गांधी को खुद ईश्वर की वास्तविकता को लेकर तनिक भी शंका नहीं थी, और उन्हें लगता था कि सत्य ईश्वर का सबसे जीवंत नाम है। जीवन मात्र में ईश्वर है यह उनके धर्म ने उन्हें बताया था और वे इसके कायल थे। उन्हें लगता था कि उनके और उनके रचयिता के बीच एकत्व है, वैसे ही जैसे उनके और सारी प्रकृति के बीच। इसलिए वे स्वयं को संपूर्ण का एक अंग समझते थे और ईश्वर को सारी मानवता से अलग करके नहीं पा सकते थे। गांधी के लिए ईश्वर को खोजने का सबसे अच्छा रास्ता यही हो सकता था कि मानवता की सेवा के जरिए उसे खोजने की कोशिश करें। जब उन्हें किसी ने तिरस्कार-भरे अंदाज में सलाह दी कि ईश्वर को खोजना है तो हिमालय की किसी गुफा में चले जाएं, तो उनका जवाब था, ‘‘यदि मैं स्वयं को यह समझा सकूं कि मैं उसे हिमालय की कंदरा में पा सकता हूं तो मैं फौरन वहां चला जाऊं। लेकिन मैं जानता हूं कि उसे मानवता से अलग करके मैं नहीं पा सकता ।’’ (‘हरिजन’ 24-8-1947)
वे नहीं मानते थे कि ईश्वर कोई वैयक्तिक सत्ता है, भले ही वे कभी-कभी अन्यपुरुष एकवचन में उसका जिक्र करते थे। उनका विश्वास तर्कातीत आस्था पर टिका हुआ था। वे मानते थे कि मनुष्यों में जो सबसे अज्ञानी हैं उनमें भी कुछ सत्य है। हम सभी सत्य की चिनगारियां हैं। इन सभी चिनगारियों का कुल जोड़ अवर्णनीय है, अभी तक अज्ञात सत्य, जो कि ईश्वर है। इस विश्वास का समाज पर प्रभाव, गांधी के मुताबिक, दैनंदिन जीवन में दिखना चाहिए। ‘‘ऐसे धर्म के प्रति सच्चे होने का अर्थ है जीवन मात्र की अनवरत सेवा में खुद को खपा देना। लिहाजा मेरे लिए समाज सेवा के सिवाय कोई चारा नहीं है, इससे परे या इससे अलग जगत में कोई खुशी नहीं है।’’ (प्रश्न और उत्तरः सर्वेपल्ली राधाकृष्णन की पुस्तक ‘कंटेम्पेरेरी इंडियन फिलॉसफी’, पृ. 21)
गांधी की आस्था, सत्य की उनकी खोज और उनकी समाज सेवा एक दूसरे से जुड़े हुए थे। वे मानते थे कि किसी व्यक्ति की सारी प्रतिभा और सारी योग्यता दूसरों की सेवा के लिए होनी चाहिए।
चूंकि गांधी का मानना था कि धर्म एक ऐसी चीज है जो हमारे रचयिता से हमारा साक्षात्कार कराती है, उन्होंने सैमुएल ई. स्टोक्स को एक पत्र में लिखा थाः ‘‘कितनी प्रसन्नता की बात होगी जब लोग यह महसूस करेंगे कि धर्म बाहरी कर्मकांडों में नहीं बल्कि इसमें है कि उच्चतम संवेगों का आंतरिक प्रत्युत्तर दे पाने में मनुष्य कितना सक्षम हो पाता है।’’ (महादेवभाईनी डायरी, खंड 7. पृ. 279)
गांधी ने 19 जनवरी 1928 के ‘यंग इंडिया’ में लिखे एक लेख में जो कहा वह धर्म के बारे में उनके विचारों का लगभग निचोड़ हैः
“प्रार्थनापूर्ण संधान, अध्ययन और अनेक लोगों से हुई चर्चाओं के बाद, काफी पहले ही मैं इस निष्कर्ष पर पहुंच गया था कि सभी धर्म सच्चे हैं, यह भी कि उनमें कुछ दोष हैं। मैं अपने धर्म में आस्था रखता हूं, पर अन्य धर्मों का उतना ही आदर करता हूं जितना हिंदू धर्म का।”
गांधी मानते थे कि एक ईश्वर में विश्वास सभी धर्मों की आधारशिला है, लेकिन दूर-दूर तक इसकी कोई संभावना नजर नहीं आती कि कोई ऐसा दिन आएगा जब पृथ्वी पर व्यवहार में कोई एक ही धर्म रह जाएगा। ऐतिहासिक वजहों और विभिन्न देशों की जलवायु संबंधी परिस्थितियों- जिनमें वे धर्म पैदा हुए- के चलते उनके बीच फर्क आ गए। भारत के दो सबसे बड़े धार्मिक समूह इसके खास उदाहरण हैं। हिंदू धर्म शायद दुनिया में सबसे पुराना धर्म है और इसकी धर्म-पुस्तकें या तो हिमालय की हिमाच्छादित चोटियों पर लिखी गई थीं या गंगा-यमुना के ऊपजाऊ मैदानों में। दूसरी तरफ, इस्लाम दुनिया में सबसे बाद का धर्म है और सबसे पहले अरब के सूखे रेगिस्तान इसकी धार्मिक शिक्षाओं के गवाह बने। बाहरी भिन्नताओं ने इन धर्मों की दार्शनिक शिक्षाओं पर कोई असर नहीं डाला है। अनभिज्ञ लोगों की अंधश्रद्धा, चालाक राजनीतिकों के बहकावे और धूर्त निहित स्वार्थों के छल-कपट, ये सब मिलकर भिन्नताओं व मतभेदों को खूब हवा देते हैं और स्थिति को काफी उलझा देते हैं। इन शक्तियों के खिलाफ गांधी को दशकों तक संघर्ष करना पड़ा और आखिरकार धर्मों की बाहरी भिन्नताओं के बावजूद उनमें निहित आधारभूत एकता को बताने के लिए उन्होंने अपना जीवन बलिदान कर दिया।
गांधी सभी धर्मों की आधारभूत एकता में यकीन करते थे। उनका विश्वास था कि ये धर्म उन लोगों के लिए आवश्यक हैं जिनके लिए ये उद्घाटित हुए। और वे यह भी मानते थे कि अगर लोग विभिन्न धर्मों की धर्मपुस्तकों को, उनके अनुयायियों के दृष्टिकोण से पढ़ें, जैसा कि गांधी ने खुद किया था- पहले इंग्लैड में जहां वे कानून के विद्यार्थी थे, फिर दक्षिण अफ्रीका में जहां अलग-अलग संप्रदाय के ईसाइयों ने उन्हें धर्मान्तरित करने की कोशिश की थी, और बाद में भारत की जेलों में, जहां उन्हें पढ़ने का वक्त मिल पाता था- तो लोग पाएंगे कि सभी धर्मपुस्तकों का सारतत्व एक है और ये एक दूसरे की सहायक हैं।
यह सही है गांधी को हिंदू धर्म से प्रेम था और गीता व ईशोपनिषद पर उनकी श्रद्धा किसी भी सनातनी हिंदू से कम नहीं थी। लेकिन गांधी के लिए धर्म और उनके बीच का रिश्ता वैसा ही था जैसा अपनी मां से संतान का रिश्ता। कोई बच्चा दूसरे बच्चों की माताओं की सुंदरता की प्रशंसा कर सकता है, पर उसे हमेशा यही लगेगा कि उनके बीच उसकी अपनी मां ही सर्वाधिक प्रेमपूर्ण है। इसी रूपक में यह भी जोड़ सकते हैं कि गांधी मानते थे कि दूसरे बच्चों की मांओं की निंदा करने से अपनी मां की सुंदरता नहीं बढ़ती। दरअसल, यह उनकी पक्की राय थी कि दूसरे बच्चों की मांओं का अपमान करना खुद मातृत्व का अपमान करने के समान है, जिसमें सबसे पहले अपनी मां का अपमान शामिल होता है।
अपनी इसी निष्ठा के कारण गांधी मानते थे कि धर्म लोगों को एक दूसरे से अलग करने के लिए नहीं, एक दूसरे से जोड़ने के लिए हैं।
लेकिन गांधी हिंदू धर्म का बखान सिर्फ इसलिए नहीं करते थे कि वे इसमें पैदा हुए थे। धर्मग्रंथों को पढ़कर ही वे संतुष्ट नहीं हो गए। जिस पुस्तक ने हिंदू धर्म से उनका संबंध सबसे गहरा किया वह भगवद्गीता थी। उन पर सबसे ज्यादा प्रभाव इसी पुस्तक का रहा, क्योंकि वे मानते थे कि गीता विद्वानों के पढ़ने-भर के लिए नहीं है, बल्कि यह जीवन का मार्गदर्शन करने वाली पुस्तक है। यह उनकी अनुभव-जनित धारणा थी, क्योंकि उन्होंने गीता से जो कुछ सीखा था उसे जीवन में उतारने की कोशिश की थी, और इसी से वे हिंदू धर्म की उदारता के प्रशंसक बने थे। हिंदू धर्म के बारे में उन्होंने ‘यंग इंडिया’ के 20 अक्टूबर 1927 के अंक में लिखाः ‘‘जिन धर्मों को मैं जानता हूं उनमें मैंने इसे सबसे अधिक सहिष्णु पाया है। इसमें सैद्धांतिक कट्टरता नहीं है, यह बात मुझे बहुत आकर्षित करती है क्योंकि इस कारण इसके अनुयायी को आत्माभिव्यक्ति का अधिक-से-अधिक अवसर मिलता है। हिंदू धर्म वर्जनशील नहीं है, अतः इसके अनुयायी न सिर्फ दूसरे धर्मों का आदर कर सकते हैं बल्कि वे सभी धर्मों की अच्छी बातों को पसंद कर सकते हैं और अपना सकते हैं।…हिंदू धर्म न सिर्फ सभी मनुष्यों की एकात्मता में विश्वास करता है बल्कि सभी जीवधारियों की एकात्मता में विश्वास करता है।’’ लेकिन आमतौर पर सभी धर्मों के और विशेषकर हिंदू धर्म के गुण गाने के बावजूद वे किसी भी धर्म को पूरी तरह आदर्श नहीं मानते थे। वे यह नहीं मानते थे कि केवल वेद दिव्य हैं। वे मानते थे कि बाइबिल, कुरान और जेंद-अवेस्ता भी उतने ही दिव्य-प्रेरित हैं जितने कि वेद।
यह रेडिकल गांधी को हमारे सामने लाता है। किसी भी व्याख्या से बँधने से उन्होंने इनकार कर दिया, वह कितनी भी विद्वत्तापूर्ण क्यों न हो; अगर वह तर्क या नैतिक बोध से मेल न खाती हो, तो वह उन्हें स्वीकार्य नहीं थी। वे अपनी धार्मिक आस्था की कसौटी अपने अंतःकरण को मानते थे। सत्य और अहिंसा, या कि सत्य- जिसमें अहिंसा अंतर्भूत है- उनके अंतःकरण का ध्रुवतारा था। उन्होंने 27 अगस्त 1925 के ‘यंग इंडिया’ में कहाः ‘‘मैं इन्हीं धर्मग्रंथों द्वारा अर्पित सत्य और अहिंसा को इनकी व्याख्या के लिए इस्तेमाल करता हूं। जो इससे मेल नहीं खाता, मैं उसे खारिज करता हूं।’’
इस कसौटी ने ही गांधी को यह कहने का साहस दिया कि कुछ विद्वान अगर यह साबित कर दें कि छुआछूत का व्यवहार हमारे धर्मग्रंथों का अभिन्न अंग है, तो वे छुआछूत को मानने के बजाय उस धर्मग्रंथ को ही तिलांजलि दे देंगे।