— योगेंद्र यादव —
भूख ये जगाता है, नींद ये बढ़ाता है, दर्द ये मिटाता है, काम ये बनाता है–नौकरी दिलाता है, लॉटरी लगाता है, अच्छे नंबरों से बच्चा पास हो जाता है। आता है कितने काम, एक रुपया है दाम! इसके पहले कि आप सोचें कि ये कौन सी जादुई पुड़िया बेचने का आयडिया है, आपको याद दिला दूं कि गीत के बीच से लिया गया है यह टुकड़ा 1993 की एक हिट फिल्म ‘आंखें’ का है। गीत के बोल थे : बड़े काम का बंदर, मारे तो धरमेन्दर, नाचे तो जितेन्दर…!
भूख बढ़ाने से लेकर दर्द मिटाने तक के काम करने वाली ऐसी पुड़िया या ताबीज से सामना कभी न कभी आपका भी हुआ होगा। करना कुछ ज्यादा नहीं होता। बस एक पुड़िया खाली पेट या गुनगुने दूध के साथ गटक जाओ–सारे रोग छू-मन्तर! ऐसी पुड़िया से मेरा तो रोज ही सामना होता है, सो मैं उन लोगों को पुड़ियाबाज कहता हूं। वे कहते हैं–‘बस एक पुड़िया’ और नाचीज एक पुड़िया भर से जमाने से देश को सताते आ रहे रोग-दुख जड़ से खत्म!
देशभर में ऐसी बतकहियां आपको हर जगह और वक्त चलती मिलेंगी। इन बतकहियों में बताया गया होता है कि ये या वो पुड़िया आजमा लो और देश की अलां या फलां समस्या से छुटकारा मिल जाएगा। देश में गरीबी है? कोई बात नहीं, नियम बना और चला दो कि सबके ज्यादा से ज्यादा दो ही बच्चे हों, बस गरीबी छू-मन्तर! जातिवाद है? इसका समाधान तो चुटकी बजाने सा आसान है, नियम बने और चले कि कोई भी अपने नाम के साथ जातिसूचक सरनेम ना लगाए।
लोकतंत्र ठीक से चल नहीं पा रहा? कोई बात नहीं, आनुपातिक प्रतिनिधित्व वाला तरीका आजमाना होगा, इतने से लोकतंत्र एकदम से चकाचक और झकाझक हो उठेगा। क्या कहा, नेता अपनी जनता के दुख-दर्द सुन-गुन नहीं रहे? हम बताते हैं उपाय–नियम बने कि नेता सार्वजनिक जीवन से 60 साल की उम्र में रिटायर कर दिये जाएंगे। भ्रष्टाचार है? कोई बड़ी बात नहीं, एक ताकतवर लोकपाल बनाने भर की जरूरत है। लोगों का नैतिक पतन हो रहा है? ठीक है, फिर स्कूल-कॉलेजों में नैतिक शिक्षा की पढ़ाई अनिवार्य कर दी जाए!
आप किसी भी समस्या का नाम लीजिए, पुड़ियाबाज आपको कोई न कोई पुड़िया थमा देंगे। पहले मैं ऐसे पुड़ियाबाजों से बहस किया करता था। बताने की कोशिश में लगा रहता था कि भाई, जरा देख-समझ लो! ये मुश्किल ऐसी भी सीधी-सादी नहीं है, सारा कुछ बड़ा जटिल और उलझा हुआ है। ये भी कहता था कि आप जो रामबाण नुस्खा बता रहे हैं उसके कुछ साइड-इफेक्ट्स भी होने हैं और ध्यान रखिएगा कि कहीं साइड इफेक्ट्स उस रोग से भी खतरनाक साबित न हो जाएं जिसके उपचार के लिए पुड़िया ली जा रही है। लेकिन अब मैंने पुड़ियाबाजों से बहस में उलझना छोड़ दिया है।
ये देश वैसे भी न जाने कितने असाध्य रोगों की चपेट में है। निदान हो नहीं पा रहा या यों कहें कि निदान के ज्यादातर नुस्खे नाकारे साबित हो रहे हैं। तो ऐसे में लोगबाग समस्या के निदान के लिए कोई जादुई पुड़िया ढूंढ़ रहे हैं तो क्यों न उन्हें ढूंढ़ने दिया जाए! कहते हैं न कि ‘दिल ख़ुश रखने को ‘ग़ालिब’ ये ख़याल अच्छा है!’ मैं भी ऐसे ही एक खयाल से दिल को बहला लिया करता हूं कि : बिन-मांगे मुफ्त की ये जो सलाहें मिल रही हैं उन्हें कमाई का अच्छा जरिया बनाया जा सकता है। क्या ही अच्छा होता कि पुड़ियाबाजी के ये उस्ताद लोग अपने नुस्खों की एक पॉवर-प्वाइंट प्रेजेन्टेशन बना लेते और फिर अपनी कंसल्टेंसी के लिए डॉलर में दाम वसूलते! इससे हमारी जीडीपी भी कुछ आसमान चढ़ती!
पुड़िया के सहारे उपचार बताता कोई न कोई संदेश हर हफ्ते मुझे ई-मेल या व्हाट्सऐप के जरिए मिल ही जाता है। सबसे ज्यादा नुस्खे चुनाव और शिक्षा के मोर्चे पर सुधार करने के बारे में होते हैं। संदेश लिखने वाला ये भी आग्रह करता है कि ‘इस बार टीवी पर आइएगा तो मेरे नुस्खे का जिक्र कीजिएगा’ या फिर कुछ ऐसी ‘जुगत लगाइए कि संसद में मेरे नुस्खे पर बात चले और कोई कानून बन जाए’ या फिर ऐसा जतन कीजिए कि ‘मेरे नुस्खे को लेकर प्रशांत भूषण जी कोई जनहित याचिका दायर कर दें।’
कुछ पुड़ियाबाज ‘छुपे रुस्तम’ होते हैं। वे कहते हैं कि हमारे पास देश की अमुक समस्या के लिए एक करामाती नुस्खा है, लेकिन हम उसे आपको तभी बताएंगे जब आप हमसे आमने-सामने की मुलाकात करेंगे। आप सोच रहे होंगे कि अब इसमें हर्जा ही क्या है, कोई यों मन-बहलाव कर रहा है तो कर लेने दिया जाए। लेकिन नहीं, जरा सब्र कीजिए क्योंकि आगे लिखी जा रही बातों को अंत तक पढ़ लीजिए। आगे आपको एक खास वाकये का जिक्र मिलेगा। उसे पढ़ने के बाद ही फैसला लीजिएगा।
दर्द का रिश्ता बनती एक यात्रा
मेरे ई-मेल और व्हाट्सऐप पर इन दिनों करामाती पुड़िया वाला उपाय बताते संदेशों की कुछ ज्यादा ही भरमार है। भारत-जोड़ो यात्रा निरी पदयात्रा नहीं है। इस यात्रा के साथ हजार बातों का भी सफर जारी है। यात्रा की कामयाबी का ही एक लक्षण है कि किसी को कोई मुश्किल पेश आ रही है या किसी के दिल में कोई शिकायत घर कर गई है तो ऐसे लोग यात्रा से जुड़ रहे हैं, यात्रा उन्हें अपनी तरफ खींच रही है। ऐसे लोगों में कुछ को यात्रा के नेताओं से अपनी बात कहने का मौका भी मिल जाता है।
दिन की यात्रा में जब थोड़े विश्राम का वक्त आता है तो कोई न कोई प्रतिनिधिमंडल राहुल गांधी से औपचारिक बातचीत करता है–अपने मसलों पर बात करता है और ज्ञापन सौंपता है। ऐसा प्रतिनिधिमंडल उन आदिवासियों का भी हो सकता है जो इस इंतजार में हैं कि वनाधिकार कानून सही से अमल में आ जाए, बिन मौसम की बरसात के कारण फसल के नुकसान से परेशान किसानों का भी हो सकता है, जीएसटी की मार सह रहे छोटे व्यापारियों का हो सकता है और नफरत की राजनीति से पैदा हिंसा की चपेट में आए मुस्लिम अल्पसंख्यकों का भी हो सकता है। भेदभाव का शिकार हो रही महिलाएं, नौकरी की तलाश में दर-दर भटकते नौजवान, अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र के कामगार और बीड़ी-मजदूर से लेकर ओला/उबर के ड्राइवर तक कोई भी हो सकता है ऐसे प्रतिनिधिमंडल के जरिए अपनी बात सुनाने वालों में।
विभिन्न समूहों की ऐसी औपचारिक बातचीत के अतिरिक्त एक चलते-चिट्ठे की बातचीत यात्रा के दौरान भी होती है। इसमें छोटी-सी टोली में लोग राहुल गांधी की यात्रा के साथ ही चलते-चलते उनसे कुछ मिनटों के दौरान बातचीत करते और अपने मसले बताते हैं। चलते-चिट्ठे की इस बातचीत में कई तरह के मसले सुनायी दिये हैं, जैसे : नेशनल एलिजिबिलिटी कम एन्ट्रेन्स टेस्ट (NEET) के जरिए होने वाले दाखिले में ओबीसी कोटा की अनदेखी, अनुसूचित जाति से जुड़े कोटे में उप-श्रेणी बनाने की मांग, मनरेगा मजदूरों के पारिश्रमिक के भुगतान में देरी, आशाकर्मियों (‘आशा वर्कर्स’) के वेतन-भुगतान में देरी आदि।
जिन लोगों को ऐसी औपचारिक बातचीत का मौका नहीं मिलता वे यात्रा के दौरान सड़क के किनारे खड़े होकर अपने मुद्दों की तरफ ध्यान खींचने की कोशिश करते हैं। मिसाल के लिए : पुरानी पेंशन स्कीम की बहाली का मुद्दा या फिर सिविल सर्विस के अभ्यर्थियों को अतिरिक्त मौका देने का मुद्दा।
बिजली बोर्ड के कर्मचारी चाहते हैं कि इलेक्ट्रिसिटी (अमेंडमेंट) बिल हटा लिया जाए। उनका मुद्दा भी ऐसे ही अनौपचारिक तरीके से यात्रा के दौरान उभरा है। यहां दर्ज करता चलूं कि जिन लोगों को भी बातचीत में शामिल होने का मौका मिला है, वे राहुल गांधी के जिज्ञासा-भाव से प्रभावित हैं। राहुल बातों को कुरेद-कुरेद कर पूछते हैं, तीखे सवाल करते हैं और जहां तक सज्जनता, विनम्रता और मानवीयता की बात है–इन गुणों के तो वे प्रतिमूर्ति ही हैं।
देशवासियों के दिल में आज जितनी भी परेशानियां और बेचैनियां चल रही हैं, उन सबको यात्रा के जरिए अभिव्यक्ति मिल रही है। यात्रा सार्वजनिक-नीति की एक चलती-फिरती कक्षा में तब्दील हो चली है। यह यात्रा आज देशवासियों के लिए एक चलता-फिरता प्रकाश-स्तंभ है। एक शायर ने कहा है न कि : बड़ा है दर्द का रिश्ता ये दिल ग़रीब सही… तुम्हारे नाम पे आएँगे ग़म-गुसार चले! (उर्दू में ग़म-गुसार कहते हैं हमदर्द को)।
लेकिन भारत के सम्मुख आन खड़ी हुई चुनौतियों की चर्चा चल रही हो तो क्या पुड़ियाबाज कभी पीछे रह सकते हैं? यात्रा ऐसे पुड़ियाबाजों के बगैर बेरंग नजर आएगी।
जहर की पुड़िया
जो नुस्खा सीधे राहुल गांधी तक नहीं पहुंच पाता उसे मेरे जरिए भेजने की कोशिश की जाती है, मान लिया जाता है कि नुस्खे को धीरज से सुना और गुना जाएगा। ऐसा ही एक नुस्खा ये आया कि हमें जाति जनगणना करनी चाहिए ताकि हर जाति को आबादी में उसके हिस्से के हिसाब से सरकारी नौकरी दी जा सके।
एक नुस्खा ये सुनने को मिला कि अमुक तकनीक अपना ली जाए तो किसानों की आमदनी 10 गुना बढ़ जाएगी। आजकल सॉफ्टवेयर पुड़िया का चलन भी धड़ल्ले से है। यह स्पेशल पुड़िया होती है। कहा जाता है कि सरकार अमुक सॉफ्टवेयर इंस्टाल कर ले तो हर तरह के भ्रष्टाचार से छुटकारा मिल जाएगा। एक नुस्खा ये है कि कंपनियां अगर ग्राहकों को उनके निजी डेटा के लिए भुगतान करने लगें तो महंगाई की समस्या रहेगी ही नहीं।
राजनीतिक समस्याओं से छुटकारा पाने के नुस्खे बताने वाली पुड़िया इस यात्रा में सबसे ज्यादा देखने को मिली है। नरेंद्र मोदी की सरकार को सत्ता से निकाल बाहर करने का करामाती नुस्खा बताने के लिए जैसे हर कोई बेताब है।हरेक के पास नुस्खा है कि राहुल गांधी को कैसा दिखना और बोलना चाहिए और यात्रा में किस तरह चलना चाहिए। किस्मत का करिश्मा देखिए कि ये सारी पुड़िया मेरी झोलियों (ईमेल और व्हाट्सऐप) में गिरती हैं और मुझे वादा करना होता है कि मौका मिला तो आपकी पुड़िया सही पते पर पहुंचा दूंगा।
इसी बात से याद आया एक पुराना वाकया जिसके बारे में मैंने लेख के शुरुआती हिस्से में संकेत किया है। वाकया पुणे का है, साल 2014 के आखिर के दिनों का। आर्थिक मसलों पर सलाह देने वाली एक नामालूम सी संस्था की ओर से चार्टर्ड अकाउंटेंट और इंजीनियर्स की एक टोली ने मुझसे संपर्क किया।
इस टोली के पास भारत की हर समस्या के समाधान के लिए करामाती पुड़िया थी। इस टोली का कहना था कि हम : ‘हम काला-धन, महंगाई और मुद्रा-स्फीति, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, वित्तीय घाटा, फिरौती और आतंकवाद जैसी समस्याओं का कारगर और गारंटीशुदा समाधान बताते हैं।’ मुझ पर इस ‘गारंटीशुदा समाधान’ के वादे का कोई असर नहीं हुआ। निजी मुलाकात के उनके निवेदन से मैं कतराकर बच निकला। लेकिन, फिर किसी और काम से पुणे जाना हुआ तो करामाती पुड़िया बताने वाली इस टोली के आग्रह को टाल न सका। सहमति बनी कि 20 मिनट के लिए यूनिवर्सिटी गेस्ट हाउस में मिल-बैठते हैं।
अर्थक्रांति नाम के इस समूह का प्रस्ताव बड़ा क्रांतिकारी था। नुस्खा ये था कि हर टैक्स खत्म कर दिया जाए और इसकी जगह प्रत्येक बैंकिंग ट्रान्जैक्शन पर एक टैक्स लगाया जाए। इसके लिए जरूरी होगा कि नकदी के जरिए होने वाले हर लेन-देन को खत्म कर दिया जाए। ऐसा तभी हो पाएगा जब 100 रुपये और इससे ज्यादा मोल के नोट का विमुद्रीकरण कर दिया जाए।
दिमाग की चूलें हिला देने वाले इस प्रस्ताव को सुनकर मेरे मन में खतरे की घंटी बजी। मैंने कहा कि बैंकों के जरिए होने वाले लेन-देन पर टैक्स लगाने पर आर्थिक गतिविधियां काला-बाजारी के दलदल में धंसने लगेंगी। मैंने सवाल किया कि ऊंचे मोल के नोट (नकदी) के विमुद्रीकरण से आखिर कालाधन पर कैसे असर होगा क्योंकि कालाधन तो बैंकिंग-व्यवस्था के भीतर फिर से अपनी जगह बना लेगा। उन लोगों के पास मेरे ऐसे सभी सवालों के जवाब थे लेकिन मेरा मन नहीं माना।
चूंकि हमारी बातचीत किसी निष्कर्ष तक नहीं पहुंच पा रही थी इसलिए मैंने उन लोगों से कहा कि मुद्रा संबंधी मामलों के जानकार किसी गंभीर अर्थशास्त्री से एक बार अपने प्रस्ताव के बारे में पूछकर देख लीजिए। अगर अर्थशास्त्री को आपकी बात जंच जाती है तो हम फिर आप लोगों से अगले दौर की बातचीत करेंगे। बैठक खत्म होने से पहले उन लोगों ने बताया कि हमारी एक बड़ी अच्छी बातचीत नरेंद्र मोदी से हो चुकी है और शुरुआत में तो नरेंद्र मोदी ने इस बातचीत के लिए बस 9 मिनट का समय दिया था लेकिन प्रस्ताव को सुनकर उन्होंने पूरे 2 घंटे तक बातचीत की।
उस घड़ी तक नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे। मैं उनकी बात सुनकर सकते में आ गया। आगे जो हुआ, सो सब, आप जानते ही हैं।
(द प्रिंट से साभार)