वैज्ञानिक चेतना की आवश्यकता पर एक महत्त्वपूर्ण विमर्श

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— डॉ प्रभा मजुमदार —

साहित्य एवं विचार की अनियतकालीन पत्रिका ‘धरती’ के कई महत्त्वपूर्ण अंक निकले हैं जिनके जरिए इसके  संपादक ‘लाइम लाइट’ में आने से छूट जाने वाले अनेक गंभीर एवं ज्वलंत सामयिक प्रश्नों को उठाते रहे हैं। सितंबर 2022 में प्रकाशित इसका संयुक्तांक 18-19, “वैज्ञानिक चेतना और भारतीय समाज” पर केन्द्रित है, जो बढ़ती धर्मांधता, अवैज्ञानिक तथा तर्कहीन मान्यताओं के प्रसार, मिथ को तथ्य की तरह प्रस्तुत किए जाने वाले वर्तमान परिदृश्य में बहुत महत्त्व रखता है।

‘सम्प्रेषण’ में संपादक शैलेंद्र चौहान सभी वर्गों के लिए स्कूली शिक्षा की गुणवत्ता के  महत्वै पर जोर देते हैं जिसके जरिए वैज्ञानिक प्रवृत्ति, आलोचनात्मक समझ, तर्क क्षमता और ज्ञानार्जन की भावना का विकास हो सके। वे वैज्ञानिक प्रवृत्ति की अवधारणा का मानवता, समानता, अधिकार और न्याय की आधुनिक अवधारणाओं से जुड़े होने को रेखांकित करते हैं। भारतीय संविधान में वैज्ञानिक मानसिकता, मानववाद, सुधार एवं खोज भावना को नागरिकों के मौलिक कर्तव्यों से जोड़ा गया है मगर आज के हालात में बुद्धि- विवेक-तर्क, विज्ञान, भौतिक यथार्थ आदि का निषेध कर सामाजिक जड़ता व यथास्थितिवाद के पोषण के अभियान चल रहे हैं।

विज्ञान और साहित्य के अंतर्सम्बन्धों की बात करते हुए शैलेंद्र चौहान, मुक्तिबोध के निमित्त (जिन्होंने विज्ञान और फैंटेसी के आधुनिक और कलात्मक बिम्ब और भाव कविता में शामिल किए) साहित्य की लोकमंगला धारा का जिक्र करते हैं, जिससे मनुष्य विकासकामी और प्रगतिकामी बनता है। इसी संदर्भ में वे रघुवीर सहाय के भी विज्ञानसम्मत तर्क एवं मन्तव्य की बात करते हैं। पत्रिका में सम्मलित अनेक आलेख भारतीय संदर्भ में वैज्ञानिक मानसिकता के विभिन्न पहलुओं, सीमाओं आदि पर प्रकाश डालते हैं तथा अन्य सामग्री भी इसी उद्देश्य की पूरक है।

मुकेश असीम का आलेख वैज्ञानिक मानसिकता की परिभाषा तथा उसके बुनियादी आधार को स्पष्ट करते हुए वन, जाति व्यवस्था पर आश्रित रूढ़ समाज की शोषण आधारित व्यवस्था को वैज्ञानिक मानसिकता के विकास में रुकावट बताता है। साथ ही नवउदारवादी आर्थिक नीतियाँ किस तरह राजसत्ता सहित सभी संस्थाओं को यथाशक्ति कुतर्क, अंधता एवं कट्टरता को बढ़ावा देने में सहायक हो रही हैं, इसका विवेचन किया है। “विज्ञान और तकनीक” में प्रदीप भी हमारे सामाजिक जीवन और विज्ञान में तालमेल न होने तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के स्तर पर कंगाली की बात दर्ज करते हैं।

राजकुमार राही ने विभिन्न चैनलों पर धारावाहिकों के माध्यम से समाज में अंधविश्वास एवं कुव्यवस्था को बढ़ावा मिलने के महत्त्वपूर्ण तथ्य की ओर इंगित किया है, साथ ही देश की तरक्की को देश की मौजूदा भाषाओं के विकास के साथ जोड़ा है। इसी क्रम में राजीव गुप्ता ने अपने प्रभावशाली आलेख में स्पष्ट उल्लेख किया है कि भारत में सक्रिय वर्तमान दक्षिणपंथी सर्वसत्तावदी राजनीति का उद्देश्य ही है कि वह विद्यार्थियों को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से दूर रख अतीत के कथित गौरव को चेतना का हिस्सा बनाए। देवेन्द्र कुमार पाठक ने जातिगत व्यवस्था, सांप्रदायिक वैमनस्य के फरेब पर टिकी मौजूदा राजनीति के अलावा सत्ता की दमनकारी प्रवृत्ति के कारण वैज्ञानिक दृष्टिकोण के विकास पर संकट गहराने को दर्ज किया है। मुस्लिम समाज में कट्टरता के हावी होने तथा वैज्ञानिक चेतना की कमी को जावेद अनीस ने शिक्षा में पिछड़ जाने तथा सांप्रदायिकता के मजबूत होते जाने, आस्थाओं या धार्मिक पुस्तकों को विज्ञान साबित करने की बढ़ती प्रवृत्ति से जोड़ा है।

विज्ञान को चित्त की स्वतन्त्रता से जोड़ने वाले नेहरू और टैगोर का जिक्र करते हुए अभिषेक श्रीवास्तव ने आज के माहौल में विज्ञान और तकनीक का सत्ता की दमनकारी प्रवृत्ति के लिए प्रयुक्त होने पर चिंता जताई है। दिगंबर के लेख में भी यही तथ्य उभर कर आता है कि विज्ञान और तकनीकी का जिस तेजी से विकास हो रहा है, उतनी ही तेजी से वैज्ञानिक नजरिया गायब होता जा रहा है। वे इसकी जड़ें पूंजीवाद में ढूंढ़ते हैं, जो अनिवार्य रूप से अंधविश्वास और कट्टरपंथ का पोषक है।

मार्क्सवाद और विज्ञान के अंतरसंबंधों को स्पष्ट करते हुए वेदप्रिय का आलेख, मार्क्स व एंगेल्स द्वारा विज्ञान के ऐतिहासिक चरित्र को समझने तथा इसी क्रम में बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में कुछ वैज्ञानिकों द्वारा विज्ञान के चरित्र को उन्नत किए जाने का मन्तव्य रखा है। चार्वाक-लोकायत दर्शन की समृद्ध विरासत का उल्लेख करते हुए सत्यवीर सिंह ने उसे हमारी गौरवशाली विरासत बताया है जिसकी तर्कपूर्ण सोच, वैज्ञानिक दृष्टिकोण को आज आगे बढ़ाने की आवश्यकता है।

अपने लंबे आलेख में जवरीमल्ल पारख ने प्रतिपादित किया है कि लोकतन्त्र के क्षरण और सांप्रदायिक फासीवाद की बढ़ती गिरफ्त से फिल्मों का भी वैचारिक विचलन हुआ है तथा वे लोकतन्त्र विरोधी दृष्टिकोण को लोकप्रिय बनाने में मददगार साबित हो रही हैं। उन्माद पैदा करती, गहन मानवीय प्रश्नों को, आपसी नफरत फैलाने के एजेंडा के लिए इस्तेमाल करने के इरादे से हाल ही में बनाई गई कुछ फिल्में इसी तथ्य को पुष्ट करती हैं।

साहित्य के अंतर्गत पत्रिका में अनेक महत्त्वपूर्ण रचनाएँ कहानी, मूल्यांकन, कविताएं, अनूदित कविताएं हैं। ये सभी संघर्ष, प्रतिरोध, स्वतन्त्रता और मनुष्यता के सम्मान के पक्ष में हैं जो एक स्वस्थ, विज्ञानपरक समाज की बुनियाद हैं।

लोकधर्मी कवि विजेंद्र की कविताएं, आईदान सिंह भाटी का उनके कविकर्म पर तथा अमीर चंद वैश्य का विजेंद्र के कवि एवं चित्रकार व्यक्तित्व पर तथा आलेख के अलावा राहुल नीलमणि का विजेन्द्र जी की पत्नी उषा जी के व्यक्तित्व पर आलेख भी महत्त्वपूर्ण हैं। आशीष सिंह ने अल्पज्ञात कथाकार प्रबोध कुमार के बौद्धिक-साहित्यिक व्यक्तित्व का परिचय तथा मनुष्य की आंतरिक-बाह्य छटपटाहट की गाथा दर्ज करते उनके सृजन पर विवेचनात्मक आलेख लिखा है। पुस्तक “अपने समय का आज” के निमित्त रामकिशोर मेहता की समीक्षा हमें राजस्थान की समकालीन कविता के स्वरों से परिचय कराती है।

कुल मिलाकर ‘धरती’ का यह अंक भरपूर वैचारिक सामग्री  लिये है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण जैसे एक महत्त्वपूर्ण विषय के विविध पहलुओं पर चर्चा, असुविधाजनक प्रश्नों और तथ्यों के जरिए, एक सन्नाटा तोड़ने की सार्थक कोशिश भी है।

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