— कुमार प्रशांत —
जिस तरह का सच यह है कि आईना झूठ नहीं बोलता, उसी तरह का सच यह भी है कि कैमरा झूठ नहीं बोलता, इसे हम इस तरह भी समझ सकते हैं कि सच प्राकृतिक है; झूठ गढ़ना पड़ता है- फिर वह झूठ सौंदर्य प्रसाधनों से बोला जाए या खुराफाती-स्वार्थी इंसानी दिमाग से! गोवा में आयोजित भारतीय अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आखिरी दिन, महोत्सव की जूरी के अध्यक्ष इजरायली फिल्मकार नदव लापिद ने यही बात कही – न इससे कम कुछ, न इससे अधिक कुछ! इसके बाद गर्हित राजनीति का जो वितंडा हमारे यहाँ फूट पड़ा, वह भी इसी सच को मजबूत करता है कि ‘सच घटे या बढ़े तो सच ना रहे/झूठ की कोई इंतहा ही नहीं’।
इतिहास बनाना इंसानी साहस की चरम उपलब्धि है; इतिहास को विकृत करना मानवीय विकृति का चरम है। हम दोनों ताकतों को एकसाथ काम करते देखते हैं। इंसानी व सामाजिक जीवन में कला की एक अहम भूमिका यह भी है कि वह इन दोनों के फर्क को समझे व समझाए! जो कला ऐसा नहीं कर पाती है वह कला नहीं, कूड़ा मात्र होती है।
इसलिए कोई पिकासो ‘गुएर्निका’ रचता है, कोई चार्ली चैपलिन ‘द ग्रेट डिक्टेटर’ बनाता है, कोई एटनबरो ‘गांधी’ लेकर सामने आता है। अनगिनत पेंटिंगों, फिल्मों के बीच ये अपना अलग व अमर स्थान क्यों बना लेती हैं?इसलिए कि युद्ध की कुसंस्कृति को, विकृत मन की बारीकियों को तथा इंसानी संभावनाओं की असीमता को समझने में ये फिल्में हमारी मदद करती हैं। तो कला की एक सीधी परिभाषा यह बनती है कि जो मन को उन्मुक्त न करे, उदात्त न बनाए वह कला नहीं है।
दूसरी तरफ वे ताकतें भी काम करती हैं जो कला का कूड़ा बनाती रहती हैं ताकि सत्य व असत्य के बीच का, शुभ व अशुभ के बीच का, उदात्तता व मलिनता के बीच का फर्क इस तरह उजागर न हो जाए कि ये ताकतें बेपर्दा हो जाएँ। विवेक की इसी नजर से गोवा फिल्मोत्सव में बनी जूरी को 14 अंतरराष्ट्रीय फिल्मों को देखना-जाँचना था। लापिद इसी जूरी के अध्यक्ष थे। जूरी में या उसके अध्यक्ष के रूप में उनका चयन सही था या गलत, इसका जवाब तो उन्हें देना चाहिए जिनका यह निर्णय था लेकिन 5 सदस्यों की जूरी अगर एक राय थी कि ‘कश्मीर फाइल्स’ किसी सम्मान की अधिकारी नहीं है, तो इस पर किसी भी स्तर पर, किसी भी तरह की आपत्ति उठना अनैतिक ही नहीं है, घटिया राजनीति है जिसका दौर अभी हमारे यहाँ चल रहा है।
लापिद ने जूरी के अध्यक्ष के रूप में महोत्सव के मंच से जब ‘कश्मीर फाइल्स’ को ‘अश्लील शोशेबाजी’ (‘वल्गर प्रोपगंडा’ का यह मेरा अनुवाद है) कहा तब वे कोई निजी टिप्पणी नहीं कर रहे थे, जूरी में बनी भावना को शब्द दे रहे थे। जूरी के बाकी तीनों विदेशी सदस्यों ने बयान देकर लापिद का समर्थन किया है। भारतीय सदस्य सुदीप्तो सेन ने अब जो सफाई दी है वह बात को ज्यादा ही सही संदर्भ में रख देती है : “यह सही बात है कि यह फिल्म हमने कला की कसौटी पर खारिज कर दी। लेकिन मेरी आपत्ति अध्यक्ष के बयान पर है जो ‘कलात्मक’ नहीं था। ‘वल्गर’ व ‘प्रोपगंडा’ किसी भी तरह कलात्मक अभिव्यक्ति के शब्द नहीं हैं।” मतलब साफ है कि ‘कश्मीर फाइल्स’ कहीं से भी कला से सरोकार नहीं रखती है, इस बारे में जूरी एकमत थी।
ऐसा क्यों था, इसकी सबसे गैर–राजनीतिक सफाई जो कोई भी अध्यक्ष दे सकता था, लापिद ने दी। उन्हें यह बताना ही चाहिए था कि क्यों जूरी ने उन्हें सौंपी गई 14 फिल्मों में से मात्र 13 फिल्मों में से अपना चयन किया, और 14वीं फिल्म को फिल्म ही नहीं माना? जूरी के अध्यक्ष लापिद का धर्म थाकि वे यह बताते। जिन शब्दों में लापिद ने वह बताया, वह कहीं से भी राजनीतिक, गलत, अशोभनीय या कला की भूमिका को कलंकित करने वाला नहीं था।
हमारे यहाँ ही कला-साहित्य-पत्रकारिता का आसमान इन दिनों इतना कायर व कलुषित हो गया है कि वहाँ कला व सच की जगह बची नहीं है।
जूरी के विदेशी सदस्यों ने अपने बयान में इसे पहचाना है :
“हम लापिद के बयान के साथ खड़े हैं और यह साफ करना चाहते हैं कि हम इस फिल्म की विषयवस्तु के बारे में अपना कोई राजनीतिक नजरिया बताना नहीं चाहते हैं। हम केवल कला के संदर्भ में ही बात कर रहे हैं और इसलिए महोत्सव के मंच का अपनी राजनीति के लिए व नदव पर निजी हमले के लिए जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है, उससे हम दुखी हैं। हम जूरी का ऐसा कोई इरादा नहीं था।”
जब नदव से पूछा गया कि जिस फिल्म को जूरी ने किसी सम्मान के लायक नहीं माना, उस फिल्म पर आपको कोई टिप्पणी करनी ही क्यों चाहिए थी, नदव ने बड़ी ईमानदारी के साथ अपनी बात रखी। यह कहने की जरूरत नहीं है कि ईमानदारी से खूबसूरत कलात्मक अभिव्यक्ति दूसरी नहीं होती है। नदव ने कहा : “हाँ, आप ठीक कहते हैं, जूरी सामान्यतः ऐसा नहीं करती है। उनसे अपेक्षा यह होती है कि वे फिल्में देखें, उनका जायका लें, उनकी विशेषताओं का आकलन करें तथा विजेताओं का चयन करें। लेकिन तब यह बुनियादी सावधानी रखनी चाहिए थी कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में महोत्सव के प्रतियोगिता खंड में रखी ही न जाएँ। दर्जनों महोत्सवों में मैं जूरी का हिस्सा रहा हूँ, बर्लिन में भी, केंस में भी, लोकार्नो और वेनिस में भी। इनमें से कहीं भी, कभी भी मैंने ‘द कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्म नहीं देखी। जब आप जूरी पर ऐसी फिल्म देखने का बोझ डालते हैं, तब आपको ऐसी अभिव्यक्ति के लिए तैयार भी रहना चाहिए।”
सारा खेल तो यही था। यह सरकारी आदेश था या आयोजकों की स्वामिभक्ति का खुला प्रदर्शन था, यह तो वे ही जानें लेकिन चाल यह थी कि झाँसे में एक अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव में सरकारी छद्म का यह चीथड़ा दिखा लिया जाए। जूरी मेजबानी के दबाव में आकर अगर इसे सम्मानित कर दे, तो बटेर हाथ लगी; हाथ नहीं लगी तो दुनिया भर में हम अपना प्रचार दिखा गए, यह उपलब्धि तो हासिल होगी ही। नदव ने यह सारा खेल बिगाड़ दिया। इसलिए हमने देखा कि नदव को भारत स्थित इजराइल के राजदूत से गालियाँ दिलवाई गईं। जिन ‘अनुपम’ शब्दों में ‘द कश्मीर फाइल्स’ गैंग ने नदव का शान-ए-मकदम किया, वह कला के चेहरे पर गर्हित राजनीति का कालिख मलना तो था ही, अंतरराष्ट्रीय कला बिरादरी में भारत को अपमानित करना भी था।