— एड. आराधना भार्गव —
बहुमुखी प्रतिभा के धनी मधु लिमये जी का जन्म 1 मई, 1922 को पुणे में एक सामान्य मध्यवित्त परिवार में हुआ। पिताजी श्री रामचंद्र शिक्षक थे। आर्थिक तंगी से परिवार गुजर रहा था, किंतु संस्कारों की समृद्ध विरासत थी।पिताजी को संगीत का शौक था। इस कारण संगीत का प्रेम मधु जी को विरासत में मिला। उनके नाना जी शिवभक्त थे। मधु जी को उन्होंने संस्कृत सिखाई। नाना जी की सनातनी कट्टरता का मधु जी पर विपरीत प्रभाव हुआ। हिंदू धर्म की ऊंच नीच आधारित जाति व्यवस्था उनके मन पर आघात करने लगी। उच्चवर्णीयों में जातीयता के पूर्वग्रह, दूसरी जातियां का शोषण, जुल्म इन सबके प्रति उनके मन में जबरदस्त घृणा पैदा होने लगी। सनातन धर्म तथा उसके ढकोसलों की उन्होंने तीव्र आलोचना की।
सन् 1940 में युद्ध विरोधी भाषण के लिए मधु जी को पहली बार कारावास की सजा हुई और उन्हें धूलिया जेल में रखा गया। व्यक्तिगत सत्याग्रह में गिरफ्तार होकर साने गुरु जी भी वहां आए, दोनों की बहुत गहरी मित्रता हो गई। चालीस साल से अधिक उम्र के साने जी और 18 साल के मधु जी की गजब की दोस्ती थी। मधु जी ने जेल में समाजवाद पर 19 भाषण दिए, गुरुजी ने उनके नोट्स बनाए, वे नोटबुक जेल के सिपाही ने लाकर मधुजी को दिए। साने गुरु जी की विनम्रता तथा धवल चरित्र का मधु जी पर काफी असर पड़ा, जो जीवन भर कायम रहा।
मधुजी की अध्ययनशीलता देखकर गुरु जी दंग रह गए, गुरु जी ने साधना साप्ताहिक की जिम्मेदारी मधु जी को देने का प्रयत्न किया। मधु जी ने गुरुजी के प्यार के अलावा उनसे कुछ भी स्वीकार करने से इनकार किया। पैसों की मिलावट अपने प्यार में मिलाना नहीं ऐसा वे कहते थे।
जब-जब सरकार ने मधु जी को गिरफ्तार किया तब-तब उन्होंने अपनी गिरफ्तारी के खिलाफ कोर्ट में खुद गुहार लगाई तथा अपने केस खुद लड़े। स्पष्ट है कि कानून का गहरा अध्ययन उन्होंने किया होगा। तभी वे हर मुकदमा जीत जाते थे। न्यायाधीश उनकी बड़ी प्रशंसा करते थे। उनकी मेहनत और उनकी मानसिक तैयारी देखकर सभी अचरज में पड़ जाते थे।
हर गिरफ्तारी के विरुद्ध सर्वोच्च न्यायलय में वकील न लेकर स्वयं मुकदमे लड़ना और उसमें विजयी होना, यह काम राजनीतिक नेताओं में सिर्फ डॉ. लोहिया और मधु जी ने ही किया।
पंजाब सरकार ने 7 जनवरी, 1959 को मधु जी के खिलाफ फौजदारी मुकदमा दर्ज कर उन्हें बेड़ियां पहनायीं। तो उन्होंने पंजाब में हेवियस कार्पस कानून के अंतर्गत याचिका दायर की तथा अपने केस की पैरवी स्वयं की, न्यायमूर्ति खोसला जी ने उनकी रिहाई का आदेश दिया तथा उनकी गिरफ्तारी गैरकानूनी है ऐसा फैसला दिया। इसी प्रकरण में न्यायमूर्ति ने ऐसी भी राय व्यक्त की कि मधु जी अगर वकील होते तो एक विख्यात कानूनविद् की कीर्ति उन्होंने पाई होती। वकील न होते हुए भी अपना केस छागला जैसे वकील के सामने वे जीत सके। हिदायतुल्ला जैसे न्यायाधीश केस लड़ने में उनकी मुस्तैदी से चकित होते थे।
सन् 1968 में कच्छ समझौते के बारे में सर्वोच्च न्यायालय में देश की प्रभुसत्ता की ऐसी व्याख्या रखी कि स्वयं न्यायाधीश हिदायतुल्ला भी अचंभित हो गए। मुंगेर जिले में लक्खीसराय के संदर्भ में सिविल नाफरमानी आंदोलन, नवंबर 1968 में हुआ जिसको जनता का बड़ा समर्थन था। यहां मधु जी को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्होंने याचिका दायर की। बिहार सरकार की ओर से पैरवी करने के लिए एमसी छागला वकील थे। मधुजी ने अपना केस स्वयं लड़ा। 90 मिनट तक उन्होंने अपना पक्ष कोर्ट के सामने रखा। अदालत को उन्हें बिना शर्त रिहा करना पड़ा।
जस्टिस छागला ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि मधु जी का फौजदारी कानून का ज्ञान, उनकी अध्ययनशीलता और लगन से काम करने की उनकी क्षमता अद्भुत है। यह केस छागला जी के खिलाफ जीता, इस पर छागला जी ने खुशी जाहिर की।
सन् 1970 में भूमि मुक्ति आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए वे वाराणसी गए थे, हवाई अड्डे पर ही भारतीय दंड संहिता की धारा 107, 151 के अंतर्गत उन्हें गिरफ्तार किया गया था। देश की सबसे ऊंची अदालत सर्वोच्च न्यायालय में मुकदमा चला। हर बार की तरह इस बार भी अपनी पैरवी उन्होंने स्वयं की। उनकी गिरफ्तारी व्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला है ऐसा बचाव उन्होंने किया और वे केस जीत गए।
अन्याय के खिलाफ खड़े रहना उनका स्वभाव था। लक्खीसराय स्टेशन पास मोड़ पर हमेशा दुर्घटनाएं होती थीं, दुर्घटनाएं टालने के लिए वहां पुल बनाने का प्रस्ताव मधु जी ने रेलवे मंत्रालय को कई बार भेजा, कई बार सत्याग्रह किया, तब जाकर सरकार जागी।
गोलकनाथ एवं केशवानंद भारती के सुप्रसिद्ध मामले संविधान संशोधन के संदर्भ में थे। संपत्ति के मौलिक अधिकारों पर अतिक्रमण करके संविधान संशोधन कभी किया नहीं जा सकता। ऐसा तर्क याचिकाकर्ताओं की ओर से दिया गया। बैरिस्टर नाथ पई तथा कम्युनिस्टों की राय थी कि संसद को संविधान संशोधन का असीम अधिकार है। मधु जी का मत था कि समाज परिवर्तन के काम में न्यायालय को अपनी सीमाओं का पालन करना चाहिए, लेकिन संसदीय बहुमत के आधार पर संविधान संशोधन करके जनतंत्र की अवहेलना करने का प्रयास किया गया तो उसका कड़ा विरोध करना चाहिए। समाज परिवर्तन के काम में न्यायालय अपनी सीमाओं का पालन करे ऐसी उनकी राय थी।
आज मधु जी हमारे बीच नहीं हैं। अगर वे होते तो लोकसभा में आपराधिक प्रक्रिया पहचान अधिनियम 2022 पारित नहीं होने देते, वे इसका पुरजोर विरोध करते।
आज लोकसभा या विधानसभा में कानून बनाने का काम कार्यपालिका कर रही है, विधायिका को कानून बनाने में कोई रुचि दिखाई नहीं देती, इसलिए भारत की जनता के हितों के खिलाफ कानून बन रहे हैं।
आइए हम सब मिलकर ऐसे समाज की स्थापना का प्रयास करें कि भारत सही मायने में एक प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य बने। यही मधुजी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।