— रामशरण —
पिछले हफ्ते आए चुनाव नतीजों में सबसे स्तंभित कर देने वाला नतीजा गुजरात का रहा। भले सभी एक्जिट पोल और अनेक पत्रकार इसी परिणाम की ओर इंगित कर रहे थे। हालांकि हिमाचल और दिल्ली के चुनाव परिणामों से कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों को इज्जत बचाने का बहाना मिल गया है, पर इससे गुजरात चुनाव की क्षतिपूर्ति नहीं हो सकती। हिमाचल तो बहुत छोटा राज्य है और दिल्ली में तो निगम का चुनाव था। जबकि गुजरात आज देश की असली राजधानी बन गया है। देश का राजनीतिक नेतृत्व, आर्थिक नेतृत्व और प्रशासनिक नेतृत्व आज चंद गुजरातियों के हाथ में है। कल गुजरात भारत से अलग हो गया, जैसे सिंगापुर मलेशिया से हो गया है, तो क्या होगा?
गुजरात में मोरबी जैसे हादसे के बावजूद रिकार्ड तोड़ बहुमत लाकर एन्टी इंकंबेंसी की धारणा को ध्वस्त कर देना अत्यंत आश्चर्यजनक है। इसके कई कारण बताये जा सकते हैं।
निश्चय ही गुजरात में ‘आप’ (आम आदमी पार्टी) का हस्तक्षेप कांग्रेस के मत विभाजन और हार का बड़ा कारण रहा। यह आश्चर्यजनक है कि ‘आप’ ने हिमाचल प्रदेश के बदले गुजरात में पूरी ताकत झोंक दी। जबकि हिमाचल उसका पंजाब से नजदीकी और छोटा राज्य था। वहां ‘आप’ को पंजाब की तरह सत्ता भी मिल सकती थी। ऐसे में हिमाचल छोड़कर गुजरात जाना भाजपा से सांठगांठ का संदेह पैदा करता है।
लेकिन इससे बड़ा कारण, गुजरात में खुद कांग्रेस का नेतृत्व भी हार के लिए कम जिम्मेदार नहीं है। वहां के नेतृत्व की ओर से मिली उपेक्षा के कारण ही हार्दिक पटेल भाजपा में चले गये। अब जिग्नेश मेवाणी ने भी आरोप लगाया है कि उनको पूरे गुजरात में चुनाव प्रचार का मौका नहीं दिया गया। शायद मुख्यमंत्री पद का लालच इसका कारण रहा हो। लेकिन अमित शाह जी से सांठगांठ भी हो सकती है। निश्चय ही गुजरात में प्रियंका गांधी जैसे नेतृत्व की कमी भी बड़ी वजह रही। लेकिन इसकी जिम्मेदारी वर्तमान कांग्रेस अध्यक्ष को ही लेनी चाहिए और जिग्नेश मेवाणी जैसे युवाओं को नेतृत्व प्रदान करना चाहिए जिससे लोकसभा चुनाव में परिवर्तन लाया जा सके।
कांग्रेस की हार का एक बड़ा कारण राजस्थान में चल रहा उठापटक भी रहा। हिमाचल की जिम्मेदारी छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को और गुजरात की जिम्मेदारी राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत को इसलिए दी गई थी कि आर्थिक साधनों की कमी न होने पाए। लेकिन चुनाव के पहले और चुनाव के दौरान गहलोत और पायलट का झगड़ा चरम पर पहुंच गया। ऐसे में गहलोत का गुजरात पर ध्यान देना कठिन था। लगता है साधनों की कमी के कारण ही गुजरात में कांग्रेस ने चुनाव प्रचार में कंजूसी की रणनीति अपनाई। दूसरी ओर भाजपा को पैसे की कोई कमी नहीं थी। संभवतः भाजपा ने ‘आप’ को भी आर्थिक मदद की हो, जिससे कांग्रेस का वोट काटा जा सके। आखिर इलेक्टोरल बांड से मिल रहे हजारों करोड़ कालेधन और घूस का पैसा किस काम आएगा? यही नहीं, गुजरात के बड़े उद्योगपतियों का हित भी भाजपा को मदद करने में था।
लेकिन गुजरात चुनाव में भाजपा की अविश्वसनीय जीत का सबसे बड़ा कारण घातक क्षेत्रवाद रहा।
तमिलनाडु में भाषाई क्षेत्रवाद पनपा था इसलिए वहां कांग्रेस या भाजपा की दाल नहीं गलती। श्रीलंका के तमिल इलम आन्दोलन के कारण तमिलनाडु के भारत से अलग हो जाने का खतरा पैदा हो गया था। पर अब वैसी कटुता नहीं है। पंजाब में भी अलगाववादी ताकतें मजबूत हो गई थीं जिनका मुकाबला करने में इंदिरा गांधी को अपनी शहादत देनी पड़ी थी। लेकिन भाजपा अकालियों के साथ रही। उत्तर पूर्व के राज्यों में भी अलगाववादी ताकतें मजबूत हैं, पर धीरे धीरे वहां की जनता नजदीक आ रही है। लेकिन भाषा और गोमांस का सवाल स्थिति में फिर बिगाड़ ला सकता है।
मोदीजी ने गुजरात में चुनाव प्रचार में क्षेत्रीयता को बहुत महत्त्व दिया। उन्होंने बार बार वहां की जनता को गुजराती होने का एहसास दिलाया। अपने ऊपर हुए आलोचना को गुजरात का अपमान दिखाया। उन्होंने बार बार डबल इंजन की सरकार की चर्चा करके गुजरात को विशेष लाभ देने का आश्वासन दिया। महाराष्ट्र से बड़े बड़े उद्योगों को गुजरात में लाने से छिड़ी बहस ने भी इस एहसास को मजबूत किया। उन्होंने आम गुजरातियों को यह एहसास कराया कि गुजरात भारत पर शासन कर रहा है। यह एहसास वे हिमाचल प्रदेश में नहीं जगा सके। इससे गुजरात में तो भाजपा को लाभ पहुंचा है। अब कर्नाटक में चुनाव आनेवाला है तो वहां भी सीमा विवाद के नाम पर क्षेत्रवाद को भड़काया जा रहा है। यही भावना धीरे-धीरे अन्य राज्यों में भी फैल सकती है। तब भारत की एकता का क्या होगा?