इस्लाम के लिए विवेकानंद की उदारता

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— कनक तिवारी —

लमोड़ा से 10 जून 1898 को नैनीताल के अपने दोस्त मोहम्मद सरफराज हुसैन को विवेकानन्द ने एक पत्र लिखा। पूरा पत्र उद्धृत करना जरूरी है। आपका खत पढ़कर मैं मुग्ध हो गया और मुझे यह जानकर बेहद खुशी हुई कि भगवान चुपचाप हमारी मातृभूमि के लिए अभूतपूर्व चीजों की तैयारी कर रहे हैं। चाहे हम उसे वेदान्त कहें या और किसी नाम से पुकारें, लेकिन सच तो यही है कि धर्म और विचार में अद्वैत ही अंतिम शब्द है और केवल उसी के नजरिए से सब धर्मों और संप्रदायों को मोहब्बत से देखा जा सकता है। हमें भरोसा है कि भविष्य के आलिम फाजिल इंसानी समाज का यही धर्म है। अन्य जातियों के मुकाबिले हिंदुओं को यह श्रेय मिलेगा कि उन्होंने इसकी सबसे पहले खोज की। इसकी वजह यह है कि वे अरबी और हिंदू दोनों जातियों से ज्यादा पुराने हैं। लेकिन साथ ही व्यावहारिक अद्वैतवाद का जो सार मनुष्य जाति को ही आत्मा का स्वरूप समझता है, तथा उसी के अनुकूल आचरण करता है, उसका विकास हिंदुओं में सार्वभौमिक भाव से होना अभी भी बाकी है।…..

इसके उलट हमारा तजुर्बा यह है कि यदि किसी मजहब के मानने वाले व्यावहारिक दुनिया के रोजमर्रा कामों के इलाके में इस बराबरी को मुनासिब मिकदार में ला सके हैं, तो वह इस्लाम और केवल इस्लाम के अनुयायी हैं। हालांकि अमूमन जिस सिद्धांत के मुताबिक ऐसे आचरण का अनुपालन है, उसके गंभीर मायने से वे नावाकिफ हैं। उसे हिंदू साधारणतः स्पष्ट रूप से समझते हैं। इसलिए हमें मजबूत भरोसा है कि वेदांत के सिद्धांत कितने ही उदार और विलक्षण क्यों न हों परंतु व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, इंसानी समाज के महान जनसमूह के लिए वे मूल्यहीन हैं। हम इंसानी समाज को उस जगह पर पहुँचाना चाहते हैं, जहाँ न वेद है न बाइबिल है न कुरान। लेकिन वेद, बाइबिल और कुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह तालीम देनी चाहिए कि सब उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीयों नास्ति के अलग-अलग चेहरे, लिहाजा इंसानी रूप हैं। इन धर्मों में से अपनी मर्जी का रास्ता चुना जा सकता है।…

हमारी मातृभूमि के लिए इन दोनों विशाल मतों का सामंजस्य- हिंदुत्व और इस्लाम- वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर- यही एक आशा है। मैं अपनी दिमागी आँखों से भविष्य के भारत की उस पूर्णवस्था को देखता हूँ, जिसका इस विप्लव और संघर्ष से तेजस्वी और अजेय रूप में वेदांती बुद्धि और इस्लामी शरीर के साथ उत्थान होगा। मेरी यही प्रार्थना है कि प्रभु आपको मनुष्य जाति की सहायता के लिए, खासकर हमारी अत्यंत गरीब मादरेवतन के लिए, एक ताकतवर यंत्र बनावे।

विवेकानन्द की इस बात के लिए भी आलोचना की गई है कि उन्होंने व्यावहारिक जीवन में वेदांत को लेकर 18 नवंबर 1896 को लंदन में जो चतुर्थ व्याख्यान दिया था उसमें उन्होंने कह दिया था :मनुष्य जितना ही मतलबपरस्त होता है, उतना ही अनैतिक भी होता है। यही बात जातियों के संबंध में भी सच है। स्वयं अपने से ही विजड़ित रहने वाली जाति  ही समग्र संसार में सबसे अधिक क्रूर और पातकी सिद्ध हुई है। अरब के पैगम्बर द्वारा प्रचलित धर्म से बढ़कर द्वैतवाद से चिपकनेवाला कोई दूसरा धर्म आज तक नहीं हुआ। इतना रक्त बहाने वाला तथा दूसरों के प्रति इतना निर्मम धर्म भी कोई दूसरा नहीं हुआ। कुरान का यह आदेश है कि जो मनुष्य इन शिक्षाओं को न माने उसको मार डालना चाहिए। उसकी हत्या कर डालना ही उस पर मेहरबानी करना है! सुंदर हूरों तथा सभी प्रकार के भोगों से लकदक स्वर्ग को प्राप्त करने का सबसे भरोसेमंद रास्ता है, काफिरों की हत्या करना। ऐसे कुविश्वासों के फलस्वरूप जितनी खूंरेजी हुई है, उसकी कल्पना कर लो!” (व्यावहारिक जीवन में वेदांत, वि.सा., खंड 8, पृष्ठ 58)।

विवेकानन्द का उपरोक्त कथन इस्लाम की निन्दा की तरह कैसे समझा जा सकता है, जब उन्होंने हजरत मोहम्मद की शिक्षाओं कुरान शरीफ और अन्य उद्धरणों के जरिए बार-बार इस्लाम में ऐसे नैतिक तत्त्व ढूंढ़ने की कोशिश की है, जो उनके पहले भारत के हिंदू विचारकों ने सहानुभूति और सहोदर भावना से बहुत कम किया होगा। यदि किसी मजहब में ऐसी विसंगतियाँ हों तो उनकी अनदेखी भी कैसे की जा सकती है। उन्होंने हिंदू धर्म की भी अन्यायी अधिकारतंत्र की लानत मलामत तो की ही है।

विवेकानन्द की असांप्रदायिकता की तलाश हिंदू कूढ़मगजता से हटकर ही की जा सकती है। वही उनको इतिहास में बिल्कुल ठीक-ठीक रेखांकित भी करती है। विवेकानन्द के पिता विश्वनाथ दत्त ने उनकी एक तरह से प्रारंभिक सांस्कृतिक रचना की। अपने गुरु श्रीरामकृष्णदेव से मिलने के बहुत पहले विवेकानन्द में स्कूली जीवन के दिन के दिनों से ही पिता की असाधारण और असांप्रदायिक सर्वधर्म समभाव की दृष्टि जज्ब हो गई थी। कई भाषाओं के ज्ञाता पिता को अरबी और फारसी से अधिक लगाव था। हफीज का दीवान और कुरान शरीफ उनके प्रिय ग्रंथों में थे। उन्हें हिंदी, अंग्रेजी, उर्दू वगैरह का भी उतना ही ज्ञान था। विवेकानन्द की माँ ने अपने घर में कर्बला की कुर्बानी की कहानियाँ विवेकानन्द और उनके भाइयों को साथ-साथ सुनाईं। तो सब रो उठते थे। उनके अंदर एक अलग नस्ल की संवेदनशीलता का बीजारोपण हो रहा था। वही बीजविचार बाद में बोधिवृक्ष बनकर पूरी दुनिया के सामने संरक्षक की शक्ल में विकसित हुआ।

विवेकानन्द शुरू से ही सभी धर्मों लेकिन विशेषकर इस्लाम को लेकर सबसे ज्यादा अपनी जिज्ञासा में मुखरित होते रहे। उन्होंने कहा भारत में साढ़े छह करोड़ मुसलमान हैं। उनमें से कुछ सूफी हैं। ये सूफी लोग जीवात्मा को परमात्मा से अभिन्न मानते हैं। उन्हीं के द्वारा यह भाव यूरोप में आया है। सूफी कहते हैं- अनलहकअर्थात् मैं वही सत्यस्वरूप हूँ। फिर भी उनके भीतर बहिरंग या प्रकाश्य (exoteric) एवं अन्तरंग या गुह्य (esteric) मत हैं, यद्यपि मुहम्मद स्वयं इसमें विश्वास नहीं करते थे। हाशाशिन् शब्द में अंग्रेजी Assassin (हत्याकारी) शब्द आया है। मुसलमानों का एक प्राचीन संप्रदाय अविश्वासियों अर्थात् मुसलमानों को छोड़कर अन्य धर्मावलम्बियों की हत्या उसे अपने धर्म का एक अंग मानकर करता था। मुसलमान उपासना के समय एक घड़ा जल सामने रखते हैं। ईश्वर संपूर्ण जगत् में व्याप्त है। इसी भाव का यह प्रतीकस्वरूप है।

3 फरवरी, 1900 को शेक्सपियर क्लब, पेसाडेना, कैलिफोर्निया के अपने भाषण में विवेकानन्द ने यह कहा था पैगम्बर मोहम्मद साहब ने अपने जीवन के उदाहरण से यह दिखला दिया कि मुसलमान मात्र में पूरी तौर पर बराबरी और बिरादर भाव रहना चाहिए। उनके मजहब में जाति, मत, वर्ण, लिंग आदि पर आधारित भेदों के लिए स्थान नहीं था। तुर्किस्तान का सुल्तान अफ्रीका के बाजार से एक हब्शी गुलाम खरीदकर, उसे जंजीरों में बाँधकर अपने देश में ला सकता है। यदि यही गुलाम इस्लाम को अपना ले और उपयुक्त गुणों से विभूषित हो, तो उसे तुर्की की शाहजादी से निकाह करने का भी हक मिल जाता है।

मुसलमानों की इस उदारता के साथ जरा अमेरिका में हब्शियों (नीग्रों) और रेड इंडियन लोगों के प्रति किये जाने वाले घृणापूर्ण सलूक की तुलना तो करो। हिंदू भी और क्या करते हैं? यदि तुम्हारे अमेरिका का कोई धर्मप्रचारक (मिशनरी) भूलकर किसी  ‘सनातनीहिंदू के भोजन को स्पर्श कर ले, तो वह उसे अशुद्ध कहकर फेंक देगा। हमारा फलसफा ऊँचा और उदार होते हुए भी हमारा व्यवहार, हमारा आचार हमारी कितनी कमजोरी का परिचायक है! किंतु अन्य धर्मावलंबियों की तुलना में हम इस दिशा में मुसलमानों को अत्यंत प्रगतिशील पाते हैं। जाति या वर्ण का विचार न कर, सबके प्रति समान भाव, भाईचारा का प्रदर्शन- यही इस्लाम की महत्ता है। इसी में उसकी श्रेष्ठता है। (वि.सा., 7/192)

इसके बरअक्स विवेकानन्द मुसलमानों की कई सामाजिक आदतों और उनमें भर गई हिंसक वृत्तियों को लेकर भी व्याप्त संकीर्णता के कटु आलोचक के रूप में पूरी सहानुभूति और आलोचना के साथ उजागर होते हैं। यदि इस्लाम ने तलवार के जोर पर धर्म परिवर्तन कराया तो उसके साथ विवेकानन्द हमकदम नहीं हो सकते। जब कभी इस्लाम ने कहने की कोशिश की कि जो कुछ कहा गया है उनकी धार्मिक पुस्तकों में वही जीवन का एकमात्र और अंतिम सत्य है, उसमें सुधार और संशोधन की या समानान्तर व्यवस्थाओं को ढूँढ़ने की कोई परिकल्पना दर्ज नहीं है, तो वह विवेकानन्द के उन्नत और प्रोन्नत हो रहे विचारों के अनुकूल मानवीय स्थिति भी नहीं रही है। विवेकानन्द ने यह जरूर कहा था विशेषकर मुसलमान लोग इस विषय में सबसे ऊपर चढ़ गए थे। उन्होंने एक–एक पद अग्रसर होने के लिए तलवार की सहायता ली थी- एक हाथ में कुरान और दूसरे हाथ में तलवार, या तो मुसलमान धर्म ग्रहण करो, नहीं तो मौत को अपनाओ। दूसरा उपाय नहीं है। इतिहास के सभी पाठक जानते हैं कि उनकी क्या भयानक सफलता हुई थी। छह सौ वर्ष तक कोई उनका प्रतिरोध नहीं कर सका। लेकिन फिर ऐसा समय आया जब उनको रुकना पड़ा। दूसरा कोई मजहब भी अगर ऐसा ही करेगा, तो उसकी भी यही हालत होगी! जरा सोचो इन धर्मांध संप्रदायों में से यदि कोई भी सारी दुनिया में फैल गया होता, तो इंसानों की आज क्या हालत होती!” (वि.सा.,3/134)

विवेकानन्द को अर्द्धसत्य से चिढ़ थी। इसलिए चाहते थे कि हिंदू, मुसलमान या किसी अन्य धर्म के मतावलंबियों के रहन-सहन, आचार-विचार, भाषा, पोशाक और अन्य सांस्कृतिक लाक्षणिकताओं को नष्ट किए बिना यदि वे अलग भी रह सकते हैं, तो उस अनेकता में भी वैचारिक एकता की पूरी गुंजाइश तो बनती है। इस्लाम के मुताबिक उसके संदर्भ में उन्होंने खुलकर कहा था कि बदलाव जरूरी है, लेकिन वह कई परिस्थितियों में सीमित ही हो सकता है। इस बात को भी समझ लेना होगा। आज विवेकानन्द होते तो जिस तरह की मूर्खताएँ धार्मिक टकराव को लेकर हो रही हैं, उन सब का मुँह तोड़ देते। वे धर्म की आड़ में अधर्म करते हुए एक दूसरे को नीचा दिखाने की उन्हें एक तरह से समाज बहिष्कृत करने की बातें तक करते हैं। सबका साथ सबका विकास का विवेकानन्द का यही अर्थ था जो आज भारत के काम आ सकता था। उन्होंने कहा कि सब लोग अपनी-अपनी तरह जी सकते हैं, लेकिन सबको आगे बढ़कर सबके लिए शामिल कर भी कुछ सोचना होगा। तब ही सच्चे इंसानी धर्म का उदय माना जाएगा।

यदि आपस में मिलजुल भी नहीं सके, संपर्क नहीं कर सके, संभाषण, वार्तालाप नहीं कर सके, तो ऐसे मनुष्य जीवन को विवेकानन्द गलत मानते हैं। चाहे वह राजनीतिक हो, धार्मिक हो, दार्शनिक हो, सामाजिक हो या समाज के अन्य किसी विभाग का हो। ऐसा करना केवल सामाजिक प्रक्रिया को तेज करने से ही हो सकता है। विवेकानन्द उस धर्म के पक्ष में नहीं थे जो एकांगी, पंगु, निश्चल और अपनी धूर्त मुद्रा में सोया पड़ा हो। राजनीति में ब्राह्मणत्व के दर्प के सहारे सत्ता के समीकरणों को हल करने की कोशिश में लगे दक्षिणपंथी तत्त्व विवेकानन्द के विस्फोटक विचारों से जानबूझ कर कन्नी काट जाते हैं। दरअसल विवेकानन्द की खंडित पाखंडी व्याख्या उन्हें इतिहास में ठीक-ठीक चित्रित नहीं करती।

मनुष्य में नैसर्गिक विचार मानसिक स्थितियों में अंतर्निहित हो जाएँ तो वह एक आदर्श मनुष्य के विकास के लिए आवश्यक अवयव हैं। ये विचार हैं अभय, अहिंसा, असंग और आनन्द। मनुष्य में कितना ज्ञान है, यह उसका सही परिचय नहीं है। विवेकानन्द कहते थे मनुष्य गुणों का किस तरह सार्वजनिक तौर पर प्रत्यक्ष होकर प्रस्फुटन करता है, वह मनुष्य और मनुष्यता दोनों की पहचान बनाता है। ईसाइयत की परिकल्पना से बिल्कुल उलट श्री रामकृष्णदेव और विवेकानन्द ने माना था कि मनुष्य में अपराधवृत्ति का बोध मनुष्यगत गलतियाँ कर चुकने के कारण नहीं होना चाहिए। मनुष्य तो एक दिव्य उपस्थिति, प्रतीति और ईश्वर प्रदत्त सृष्टि का उपहार है। गलतियाँ करना तो एक सामान्य मुहावरे के तहत देह धरे का दोष होता ही है, लेकिन यह मनुष्य की अपरिमित शक्ति है कि वह अपने द्वारा किए गए कुकृत्य, गलती और अपराध तक का शमन करने के लिए ऐसी सकारात्मक बुद्धि उत्पन्न कर ले कि मनुष्य होने के आत्म-गौरव से भी संबद्ध हो सके।

रामकृष्णदेव का एक अनुभूत तर्क था कि प्रत्येक मनुष्य ईश्वर की संतान है। इसलिए एक मनुष्य द्वारा दूसरे मनुष्य का शोषण, दमन या उसे किसी तरह प्रताड़ित करना अपने आपको, अपनी आत्मा को ही प्रताड़ित करना है। ऐसा करना ईश्वर के नियम और निर्णय का विरोध है। अपरिग्रह की पैरवी करते हुए भी विवेकानन्द जीवनयापन के आवश्यक उपादानों से वंचित रहने को उपलब्धि नहीं मानते थे। चाहते थे कि लोग भी वंचित नहीं रहें। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि अगर समाज में वैभव होगा, तो उससे भी समाज के सबसे निचले वर्ग को लाभ मिलने की मनोवैज्ञानिक, सांसारिक और सामाजिक स्थितियाँ निर्मित की जा सकती हैं।         

(समाजवादी समागम द्वारा प्रकाशित पुस्तिका विवेकानंद : धर्म में मनुष्य या मनुष्य में धर्म का एक अंश)

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