क्या चुनाव के चक्कर में जनगणना की बलि चढ़ेगी

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— योगेन्द्र यादव —

ब लगभग साफ हो गया है कि 2021 में होने वाली जनगणना 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले नहीं होगी। उसके बाद इस दशक में कब होगी या फिर होगी ही नहीं, यह कहा नहीं जा सकता। यह देश के नीति-निर्धारण के लिए और खासतौर पर वंचित वर्गों के लिए बहुत बुरी खबर है। हर दशक के पहले साल में होने वाली जनगणना को टालने का अब कोई कारण नहीं है, सिवाय इसके कि भाजपा को इससे चुनावी नुकसान का डर लग रहा है। लगता है कि देश की एक और संस्था चुनावी गणित का शिकार हो गई है।

हमारे देश में हर दशक में एक बार सैंसस या जनगणना होने का नियम है। जनगणना देश की जनसंख्या की कोई साधारण गिनती या सर्वे नहीं है। यह 10 वर्ष में एक बार होने वाला ऐसा विशेष सर्वे है जिसमें देश के व्यक्ति की गिनती होती है, चाहे वह सड़क पर रहने वाला बेघर इंसान ही क्यों न हो। प्रत्येक परिवार के हर सदस्य के लिंग, आयु, शिक्षा, व्यवसाय को दर्ज किया जाता है। परिवार की जाति, धर्म, भाषा, मकान का स्वरूप, बिजली, पानी, ईंधन के स्रोत और कुछ चुनिंदा सम्पत्ति का ब्यौरा दर्ज किया जाता है। यह सूचना देश के तमाम आंकड़ों का आधिकारिक स्रोत है। जनगणना का यह सिलसिला अंग्रेजों के समय से 1872 से चला आ रहा है।

उसके बाद 1881 से इसे दशक के पहले साल में करने की प्रथा चली। यह पत्थर की लकीर केवल 1941 में टूटी थी जब द्वितीय महायुद्ध चल रहा था और सारे विश्व की व्यवस्था चरमरा गई थी। आजादी के बाद 1951 से 2011 तक देश में तमाम विपदाओं के बावजूद नियमित समय पर जनगणना होती रही। सन 1971 में पाकिस्तान से युद्ध का माहौल था, देश में लोकसभा चुनाव थे, फिर भी जनगणना उसी वर्ष हुई। इस दशक की जनगणना फरवरी 2021 में होने वाली थी। उसके लिए तैयारी का पहला चरण यानी मकानों और परिवारों की गिनती वर्ष 2020 में फरवरी से अक्तूबर के बीच में होने वाली थी। लेकिन कोरोना महामारी के चलते उसे स्थगित करना पड़ा।

अगले वर्ष कोरोना की दूसरी लहर के चलते उसे पुन: स्थगित किया गया। लेकिन कोरोना खत्म होने के बाद भी सरकार ने जनगणना करवाने का कोई इरादा नहीं दिखाया है। बीते वर्ष 2022 में जनगणना न करवाने का कोई कारण नहीं था। सरकार ने बस एक नए टाइम टेबल की घोषणा कर दी कि अब जनगणना 2023 में की जाएगी।

वैसे अब तक सरकार ने 2023 को और टालने की औपचारिक घोषणा नहीं की है। लेकिन पिछले हफ्ते गृह मंत्रालय के एक आदेश के तहत सभी राज्य सरकारों को अपनी शासकीय सीमाओं में परिवर्तन करने की छूट जून 2023 तक बढ़ा दी गई है। जनगणना से पहले प्रशासनिक सीमाओं में परिवर्तन पर रोक लगाना अनिवार्य है। इसका मतलब यह है कि अब जनगणना का पहला चरण इस साल जुलाई से पहले शुरू नहीं हो सकता और उसके 6 महीने बाद तक खत्म नहीं हो सकता। और उसका मतलब है कि अब दूसरा चरण यानी व्यक्तियों की जनगणना फरवरी 2024 से पहले संभव नहीं होगी। उस समय देश में लोकसभा चुनाव की तैयारी चल रही होगी इसलिए तब जनगणना संभव नहीं है। लब्बोलुआब यह कि सरकार ने पूरी तैयारी कर ली है कि अगले लोकसभा चुनाव से पहले जनगणना नहीं हो सकती।

विशेषज्ञों का अब यह अनुमान है कि इस वर्ष भारत की आबादी 141 करोड़ को पार कर जाएगी और इसी वर्ष चीन की आबादी हमसे कम हो जाएगी। यानी कि वर्ष 2023 में भारत दुनिया का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन जाएगा। यह जानने के लिए हमें जनगणना की आवश्यकता नहीं है। जनगणना का असली महत्त्व यह है कि इससे देश के हर राज्य, हर जिले, हर ब्लॉक, हर शहर, हर गांव, हर घर, हर वर्ग की पूरी सामाजिक, आर्थिक, शैक्षिक तस्वीर देश के सामने आती है, मानो कि पूरे देश का एक्स-रे हमारे सामने हो। इस प्रक्रिया से निकलने वाले आंकड़े देश के लिए नीति निर्माण की खातिर बेहद अहम होते हैं।

पिछले 11 साल में देश की जनसंख्या में दलित और आदिवासी समाज का अनुपात बढ़ा है, लेकिन जब तक जनगणना के आधिकारिक आंकड़े नहीं मिल जाते तब तक उनके आरक्षण में वृद्धि नहीं की जा सकती। जनगणना सीधे-सीधे गरीबों के राशन से भी जुड़ी है। खाद्य सुरक्षा कानून के अनुसार देश की ग्रामीण आबादी के 75 प्रतिशत और शहरी आबादी के 50 प्रतिशत लोगों को सस्ता राशन मुहैया करवाया जाएगा। पुरानी जनगणना के हिसाब से यह संख्या 80 करोड़ थी, लेकिन अगर 2021 में जनगणना हो जाती तो यह आंकड़ा 92 करोड़ तक पहुंच जाता। यानी कि देश के 12 करोड़ लोग राशन से सिर्फ इसलिए वंचित हैं कि जनगणना समय पर नहीं हुई है।

सवाल है कि सरकार जनगणना समय पर क्यों नहीं कराना चाह रही? वर्ष 2021 में इसे टालने की बात समझ आती है लेकिन उसके बाद भी इसे खिसकाते जाने का क्या कारण है? पहला कारण है जातिवार जनगणना का बढ़ता हुआ दबाव। पिछली मोदी सरकार में तत्कालीन गृहमंत्री राजनाथ सिंह आगामी जनगणना में जातिवार आंकड़े एकत्रित करने का आश्वासन दे चुके हैं। संसद की अपनी समिति और सरकार का पिछड़ा वर्ग आयोग इसकी सिफारिश कर चुका है। छह राज्य सरकारें इसकी मांग कर चुकी हैं और बिहार में तो सरकार ने जातिवार गिनती करवाकर केंद्र सरकार को चुनौती दे दी है। मोदी सरकार जानती है कि जातिवार जनगणना के आंकड़े भाजपा की राजनीति को रास नहीं आएंगे।

दूसरा कारण नैशनल पॉपुलेशन रजिस्टर से जुड़ा है। जब 2019 में नागरिकता संशोधन कानून पास किया गया तब सरकार ने घोषणा की थी कि वह नई जनगणना के साथ पूरे देश का एक नया जनसंख्या रजिस्टर बनाएगी जिसके आधार पर अवैध नागरिकों की पहचान हो सके। लेकिन इस कानून के विरुद्ध शाहीन बाग जैसे प्रदर्शनों और पूर्वोत्तर में हुए विद्रोह की वजह से सरकार को अपने हाथ खींचने पड़े हैं। कानून तो अभी कायम है लेकिन उसे लागू करने के नियम बनाने में सरकार अब चुप्पी साध कर बैठी है। कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि चुनावों में नफे-नुकसान के इस राजनीतिक गणित के चलते देश की एक और महत्त्वपूर्ण संस्था को बलि का बकरा बना दिया गया है।

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