— राजकिशोर —
यह कहना उचित नहीं है कि गणतंत्र से हमें क्या मिला? पूछना यह चाहिए कि गणतंत्र से हमें इतना कम क्यों मिला? इस प्रश्न का पूरा उत्तर ढूंढ़ने में ही गणतंत्र की शेष संभावनाएँ छिपी हुई हैं।
भारत में आकर सभी आधुनिक सिद्धांत पानी पीने लगते हैं। अमर्त्य सेन की प्रसिद्ध उक्ति है कि जहाँ लोकतंत्र और प्रेस की आजादी है, वहाँ बड़े पैमाने पर कोई अनाचार नहीं हो सकता। लोग शोर करेंगे, विरोध की आवाजें उठेंगी, प्रेस मुद्दा बनाएगा और चूंकि शासकों को अगले चुनाव में सफल होने के लिए वोट चाहिए, वे जन असंतोष को शांत करने के लिए कुछ न कुछ जरूर करेंगे। इस तरह राज्य की सत्ता जनतांत्रिक प्रक्रिया से छनकर शुद्ध होती चलती है। सिद्धांत के स्तर पर बात एकदम टकसाली सच लगती है, लेकिन क्या यह भारत पर लागू भी होती है? यह दावा कौन कर सकता है कि लोकतांत्रिक भारत साल-दर-साल बेहतर होता जाता है?
एक मायने में बेहतरी जरूर हुई है और होती ही जा रही है। वह है उपभोग के आधुनिक सामान में वृद्धि। मोबाइल फोन की क्रांति ने कुछ ही वर्षों में देश-काल का जो संकोच कर दिया है, वह आश्चर्यजनक है। महानगरों में साधारण व्यक्तियों को भी, यहाँ तक कि बिजली मिस्त्रियों, प्लंबरों और घरेलू नौकरानियों को भी मोबाइल फोनों का इस्तेमाल करते देखा जा सकता है। आधुनिक जीवन के अन्य उपकरणों- फ्रिज, रसोई गैस, टेलीविजन इत्यादि- का प्रयोग भा बढ़ा है। मध्यवर्गीय जीवन में संपन्नता के चमकते चिह्न दिखाई देने लगते हैं। रंगे-पुते चेहरों की भरमार हो गई है। इसी चमक को देख और दिखाकर भारत का आत्म-मुग्ध और अदूरदर्शी शासक वर्ग दावा करने लगा है कि हमारा देश अब विकसित देशों की पंक्ति में आ गया है।
इस दावे से सिर्फ इतना ही पता चलता है कि यह स्वार्थी और आत्म-केंद्रित वर्ग जब ‘हमारा देश’ कहता है, तो उसकी नजर सिर्फ दस-पंद्रह करोड़ व्यक्तियों की जिंदगी पर केंद्रित रहती है। उसकी राजनीतिक चेतना से यह बात निरंतर ओझल रहती है कि देश के सत्तर-अस्सी करोड़ लोग किस तरह जी रहे हैं। उन्हें पेट भर स्वास्थ्यप्रद खाना मिलता है या नहीं, स्वच्छ पानी के स्रोत उनके घरों से कितने दूर हैं और गंभीर रूप से बीमार होने पर अस्पताल में भर्ती होने के लिए उन्हें कितनी दूर जाना पड़ता है और उचित चिकित्सा के अभाव में तथा दवाओं और चिकित्सकों के भारी खर्च को न सह पाने के कारण कितने लोग रोज दम तोड़ देते हैं।
जिस गणतंत्र में शासक और शासित के बीच, शहर और गाँव के बीच तथा विशिष्ट वर्ग और जनता के बीच इतनी भयानक और चुभने वाली विषमता हो, क्या उसे भी गणतंत्र ही कहा जाना चाहिए? गणतंत्र का काम खाइयों को पाटना है या उनके दायरे को बढ़ाना?
वैसे तो कोई भी गैर-समाजवादी व्यवस्था अमीर और ताकतवर वर्ग के हित में ही काम करती है, लेकिन पश्चिमी दुनिया के गणतंत्रों में यह तथ्य इसलिए सह्य हो जाता है कि वहाँ साधारण जन की बुनियादी आवश्यकताओं को पूरा करने की व्यवस्था हो चुकी है। बेरोजगारी का प्रतिशत आम तौर पर पाँच और दस के बीच रहता है तथा ऐसे व्यक्तियों को सामाजिक कल्याण का भत्ता मिलता है, ताकि अभाव उन्हें मार न डाले। संक्षेप में कहा जाए, तो यही उनके लिए गणतंत्र का अर्थ है। बोलने की पूरी आजादी है और अभाव से मरने की मजबूरी नहीं है। गणतंत्र उनके जीवन में भी समानता नहीं ला पाया है, इससे स्पष्ट है कि गणतंत्र सिर्फ राजनीतिक समानता का सिद्धांत है (यानी एक व्यक्ति : एक वोट और सभी के वोटों का मूल्य एक समान), आर्थिक और सामाजिक समानता का सिद्धांत नहीं है।
विषमतारहित समाज के लिए और भी ऊंचा सिद्धांत चाहिए। कोई चाहे तो यह उच्चतर सिद्धांत गणतंत्र की बारीक व्याख्या से भी निकाल सकता है। लेकिन किसी भी जागरूक समाज में गणतंत्र इतना तो करता ही है कि कोई अपने को असहाय महसूस न करे। राज्य संपन्न व्यक्ति को और ज्यादा संपन्न होने की छूट और सुविधा देता है, तो विपन्न व्यक्ति को भी आवश्यक सुरक्षा प्रदान करता है। इसलिए हम पश्चिमी देशों में परिवार और पाठशाला से लेकर उच्चतम व्यवस्था तक में कुछ गणतांत्रिक तत्त्वों को देख सकते हैं।
भारतीय व्यवस्था ने गणतंत्र के नाम पर इतना ही अपनाया है कि अभिव्यक्ति की आजादी हो, वोट के माध्यम से शासकों को बदलने की सुविधा हो और न्यायपालिका के काम में सामान्यतः हस्तक्षेप न हो। लेकिन चूँकि संविधान में उल्लेख के बावजूद व्यवस्था के कोई मानवीय लक्ष्य निर्धारित नहीं किए गए हैं और व्यवस्था को चलाने वाले लोग स्वार्थ-सिद्धि के अलावा कोई और चीज नहीं जानते, न ही भारतीय संविधान के मूल्यों का सम्मान करते हैं- ज्यादातर तो इन्हें जानते ही नहीं, न ही उन्होंने संविधान पढ़ने का कष्ट किया है, इसलिए शासन, समाज और व्यक्तिगत जीवन में किसी प्रकार का लोकतंत्र दिखाई नहीं पड़ता। मंत्री और अफसर नागरिकों को- शिक्षित और मध्यवर्गीय नागरिकों को भी- कीड़ा-मकोड़ा समझते हैं, मंत्री और नेता को नागरिक के अस्तित्व का एहसास तभी होता है जब चुनाव का समय आता है तथा समाज में ‘जिसका लाठी उसकी भैंस’ का सिद्धांत लागू होता है। जाति प्रथा के कारण भारतीय समाज में पहले से ही बद्धमूल विषमता रही है। कुछ लोग जन्म से ही श्रेष्ठ हो जाते हैं और बाकी लोग जन्म से नीचे। जिस समाज में एक वर्ग को जन्म से ही विशेष स्थिति प्राप्त हो जाती है, वहाँ लोकतांत्रिक पद्धति कैसे उत्कर्ष प्राप्त कर सकती है? भारतीय समाज में स्त्री की हीन स्थिति भी एक जन्मजात घटना है- दूसरे सभी समाजों की तरह। यह हीन स्थिति सामाजिक और आर्थिक विषमताओं के साथ मिल कर स्त्री की हीन स्थिति को हीनतर कर देती है। इसलिए परिवार के भीतर जनतंत्र के लिए कोई स्थान ही नहीं बन पाता।
सच तो यह है कि परिवार, संस्थान, संगठन, तंत्र- जहाँ कही भी कोई व्यक्ति या समूह अपने जनतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग शुरू कर देता है, वहीं शांति भंग हो जाती है और उपद्रव तथा दमन शुरू हो जाता है। यही कारण है कि ताकतवर लोग गणतंत्र और गणतंत्र से जुड़ी हुई स्थितियों को खतरनाक मानते हैं। अगर गणतंत्र न होता, तो वे बहुत खुश होते।
फ्रांस के अप्रतिम चिंतक विक्टर हूगो ने ठीक ही कहा है कि जिस विचार का समय आ गया है, उसे कोई रोक नहीं सकता। यह बात फ्रांस की क्रांति के समय कही गई थी। लोकतंत्र भी ऐसा ही विचार है। पुरानी काट के राजा-महाराजाओं का युग बीत गया तो बीत गया। उनकी वापसी असंभव है। तानाशाह अभी भी बचे हुए हैं, पर उनके दिन भी गिने-चुने हैं। पूँजी का शासन जरूर मजबूत हो रहा है, लेकिन यह भी कितने दिन टिक सकेगा? दरअसल, जो भी चीज समाज के हित में नहीं है, वह कुछ ही दिनों तक बनी रह सकती है, क्योंकि समाज से उसका द्वंद्वात्मक रिश्ता बन जाता है और इतना शक्तिशाली कौन है, जो समाज को गुलाम बनाकर रख सके। ऐसा ईश्वर भी टिक नहीं सकता, जो विषमता को विचार मानता हो।
इसलिए तमाम गणतंत्र-विरोधी ताकतों के बने रहने के बावजूद गणतंत्र भारत में भी एक मुक्तिदात्री प्रक्रिया साबित हुआ है। भारत में गणतंत्र न होता, तो क्या दलित अपना आक्रोश इतनी तुर्शी से व्यक्त कर सकते थे? गणतंत्र की अनुपस्थिति में क्या मंडल क्रांति हो पाती? देश के सभी अल्पसंख्यकों को गणतंत्र से ही ताकत मिलती है। स्त्री-पुरुष संबंधों में भी पहलेवाली तानाशाही नहीं रही। स्त्री पहले कराह भी नहीं सकती थी। आज वह बराबरी की मांग करती है। गाँवों की पंचायतों में आधी संख्या स्त्रियों और दलितों की होती है। इसलिए यह कहना उचित नहीं है कि गणतंत्र से हमें क्या मिला? पूछना यह चाहिए कि गणतंत्र से हमें इतना कम क्यों मिला? इस प्रश्न का पूरा उत्तर ढूंढ़ने में ही गणतंत्र की शेष संभावनाएँ छिपी हुई हैं।