— सुज्ञान मोदी —
अपना जीवन सात्विक बनाएँ
गांधीजी अपने जीवन में इतने बड़े-बड़े कार्य कर पाए। इसका कारण था कि उनका जीवन अत्यंत सात्विक था। उन्होंने सात्विकता के रहस्य को समझ लिया था। दुनिया के महान संतों, पैगंबरों, बुद्धों, ऋषियों और तीर्थंकरों के जीवन में उन्हें एक बात समान लगी और वह थी उन सबकी सात्विकता। यहाँ तक कि दुनिया के जिस हिस्से में भी वे गए और वहाँ जिन गृहस्थों से भी वे प्रभावित हुए, उन सबका जीवन प्रायः सात्विक ही था। युवावस्था में लंदन में वेजिटेरियन सोसाइटी के तत्कालीन सदस्यों और पूर्व सदस्यों के जीवन और लेखन ने भी उन्हें बहुत प्रभावित किया। यहीं पर उन्हें बुद्ध के जीवन और उपदेशों के साथ-साथ भगवदगीता को भी गंभीरता से पढ़ने का प्रथम अवसर मिला।
बाद में तो गीता उनके जीवन की पथ-प्रदर्शिका ही बन गई और उसे उन्होंने ‘गीता-माता’ की संज्ञा दी। गीता पर उन्होंने विस्तार से भाष्य लिखे। गीता में उन्हें विशेषकर सत, रज और तम रूपी तीनों गुणों के विज्ञान ने अत्यंत प्रभावित किया। उन्हें एक ऐसा सूत्र हाथ लग गया जिससे वे पूरी मानवजाति की प्रवृत्तियों का ठीक-ठीक अध्ययन करने और उनकी समस्याओं का समाधान सुझा पाने में समर्थ होते गए। सन् 1926 में जब गांधीजी गीता पर विस्तृत भाष्य कर रहे थे तब 2 अक्टूबर को अपने 57वें जन्मदिवस पर उन्होंने लिखा- ‘हमें अधिक से अधिक सात्विक बनना चाहिए।’
लंदन से भारत वापस आने पर श्रीमद् राजचंद्र से जब उनकी भेंट हुई तो श्रीमद् की सात्विक जीवन-चर्या ने उन्हें बहुत प्रभावित किया। गृहस्थ जीवन में रहते हुए भी श्रीमद् का जीवन इतना पवित्र और साधनामय था, यह देखकर वे अभिभूत हो गए। पवित्र दाम्पत्य का सूत्र भी उन्हें उन्हीं से मिला। इसलिए उन्होंने बाद में लिखा कि जिस व्यक्ति के प्रत्यक्ष संपर्क ने मुझपर सबसे अधिक असर डाला वे श्रीमद् राजचंद्र ही थे। अन्य दो सत्पुरुषों जिनसे गांधीजी ने सर्वाधिक प्रभावित होने की बात लिखी है- वे थे लियो टॉलस्टॉय और जॉन रस्किन। इन दोनों महापुरुषों का जीवन भी पवित्र और सात्विक था।
सात्विकता को संक्षेप में ऐसे समझा जा सकता है कि स्वयं को तमोगुण और रजोगुण की ऐसी प्रवृत्तियों से मुक्त करना जो हमारी उच्चतर चेतना के विकास में बाधक होते हैं। तमोगुण की प्रबलता में मनुष्य भ्रम, आलस्य, नशा, मांसाहार, निद्रा और जागते हुए भी बेहोश की तरह आचरण करता रहता है। रजोगुण की प्रबलता में मनुष्य अंतहीन कामनाओं और सांसारिक आकर्षणों के लिए अतृप्त महत्वाकांक्षाओं को बढ़ाता जाता है। इसमें मनुष्य रूप, पद, शरीर बल, धन, सत्ता, पुरस्कार, मान-बड़ाई, प्रचार और यश आदि के लिए व्याकुल रहता है और इसके लिए किसी भी हद तक जाने को आमादा रहता है।
जबकि सत्व गुण शांत-स्वभाव, सद्गुण और शुद्धता को चित्रित करता है। इसमें शाकाहार, सादगी, भीतर और बाहर की स्वच्छता, निर्लोभता, उदारता, बिना प्रचार के परोपकार, संयम और श्रद्धा से भरा हुआ जीवन होता है। तमोगुण और रजोगुण का असंतुलन हमारे जीवन को आलस्य, जड़ता, अस्वच्छता, दुर्गंध, वासना, क्रोध, लोभ, अहंकार, भय, कलह-क्लेश, अशांति और रोग आदि से भर देता है। जबकि सात्विक जीवन-चर्या हमें अनंत प्रेम, करुणा, आरोग्य, निर्भयता, विनम्रता, मोद, मैत्री और सच्चे आनंद से भर देती है। गांधीजी के जीवन में ऐसी ही सात्विक प्रवृत्तियों का सुंदर संयोग देखने को मिलता है। हम प्रयासपूर्वक ऐसे जीवन को अपनावें तो हमारा जीवन भी सुंदर, पवित्र, आनंददायी और सार्थक हो सकता है।
स्वयं को और अपने परिवार को हीनताबोध से मुक्त करें
गांधीजी ने जब ‘हिंद स्वराज’ लिखी तो उसमें पहली बार किसी भारतीय ने पश्चिमी सभ्यता और जीवन-शैली का एक कठोर मूल्यांकन मजबूती से प्रस्तुत किया। उस सभ्यता का एक हिंसक पक्ष दुनिया के सामने रखा। उन्होंने कहा कि अंग्रेजों ने भारतीयों को मानसिक रूप से भी गुलाम बनाकर रखा है, क्योंकि उन्होंने अपनी हिंसक, भोगवादी और युद्धवादी सभ्यता-संस्कृति का ऐसा आडंबर प्रस्तुत कर रखा है कि आम भारतीय उसके रौब और चकाचौंध को देखकर ही हीनता से ग्रसित हो जाते हैं। बल्कि उन्हें आधुनिक, सभ्य, उदार और उपकारी समझने की भूल करते हैं। गांधीजी ने भारतीयों को इस हीनताबोध से निकल जाने को कहा। गांधीजी पश्चिम के सांस्कृतिक आक्रमण को लेकर भी बहुत सतर्क रहते थे। वे जानते थे कि सांस्कृतिक श्रेष्ठताबोध को बहुत सूक्ष्म रूप से दूसरों के मन में बिठा देना भी गुलामी कायम रखने का एक प्रमुख औजार होता है। आज भी वर्धा स्थित सेवाग्राम आश्रम में एक पट्टिका पर गांधीजी का यह वक्तव्य लिखा हुआ है कि “मैं अपने घर की खिड़कियों को खुला रखता हूँ जिससे कि सभी ओर से ताजा हवा के झोंके अंदर आ सकें। लेकिन इससे मैं अपने घर को उड़ नहीं जाने दूंगा।”
कुछ हद तक राजनीतिक आजादी मिल जाने के बावजूद भारत का समाज सांस्कृतिक और मानसिक गुलामी से अब भी मुक्त नहीं हो पा रहा है। आज भी यहाँ भाषा, पहनावा, रूप, धन, पद, जाति, मजहब, त्वचा के रंग, नाक के आकार, क्षेत्र और लिंग आदि के आधार पर हीनता और श्रेष्ठता का भेद कायम रहता है। इनमें से किसी भी बात को आधार बनाकर दूसरों को हीनता का बोध कराया जाता है।
लोग स्वयं भी हीनता का शिकार होकर या तो नकल और अंधानुकरण का हास्यास्पद प्रयास करने लगते हैं या फिर असंतोष और पीड़ाबोध के चलते हताश-निराश, प्रतिक्रियावादी और आक्रामक हो जाते हैं। यह स्थिति समाज और देश के लिए ठीक नहीं है। गांधीजी को अपने देशज वेश में इंग्लैंड के सम्राट के सामने जाकर विनम्रतापूर्वक अपनी बात रखने में कोई हिचक नहीं हुई।
गांधीजी को एक बार दो युवा भाइयों ने अंग्रेजी में पत्र लिखा। वे दोनों भाई उच्च शिक्षा पाए हुए थे। गांधीजी ने उनकी अंग्रेजी में बहुत सारे दोष और अशुद्धियाँ निकालते हुए जवाबी पत्र में लिखा कि यदि आपने यह पत्र उस भाषा में लिखा होता जिसमें आप सहज हैं तो मुझे ज्यादा प्रसन्नता होती। मुझे यह देखकर दुख होता है कि किस तरह हीनताबोध के चलते हमारे युवकों के जीवन का बहुत सारा समय किसी विदेशी भाषा को सीखने या उसमें अपनी दक्षता प्रमाणित करने या इसके माध्यम से दूसरों को प्रभावित करने में ही बीत जाती है। तब भी ऐसी हास्यास्पद और कारुणिक हीनताबोध की स्थिति कायम ही रहती है।
गांधीजी अंग्रेजी या किसी भी भाषा के विरोधी नहीं थे। वे बस यह बताना चाहते थे कि भाषा के आधार पर जो वर्गीय श्रेष्ठता और हीनता की भावना मनुष्यों में भरी जाती है वह स्वराज और सर्वोदय के मार्ग में बहुत बड़ी बाधा है।
हीनताबोध से मनुष्यों के व्यक्तिगत जीवन में तो समस्याएँ पैदा होती ही हैं। परिवार, समाज और देश भी भेड़चाल, अंधानुकरण और नकलची बनने के राह पर चल पड़ते हैं। इससे एक नए प्रकार की पतनशीलता और गुलामी की स्थिति उत्पन्न हो जाती है।
इसलिए गांधीजी की यह सीख भी जीवन में अपना सकें तो बहुत-सी मानसिक और सामाजिक समस्याओं का समाधान होगा। हमारे जीवन में आत्मविश्वास तभी आएगा जब हम स्वयं में सद्गुणों का विकास करेंगे। सादगी, संयम, शुचिता और सात्विकता का जीवन जिएंगे। फिर हम अपना आदर्श चुनने में भी सजग-सतर्क बनेंगे।
अपने व्यक्तिगत जीवन से उदाहरण प्रस्तुत करें
गांधीजी ने जब कहा कि मेरा जीवन ही मेरा संदेश है, तब उन्होंने हमें यही समझाने की कोशिश की कि हम सबका जीवन ही हमारा वास्तविक संदेश होता है। हम मुँह से कुछ भी कहते रहें, बड़ी-बड़ी बातों से भरे लेख लिखते रहें, लेक्चर और भाषण देते रहें, संस्था-संगठन और प्रकाशन-प्रसारण आदि करते रहें, लेकिन यदि वे विचार हमारे स्वयं के जीवन में और आचरण में न हो, तो उसका कोई फायदा न तो हमें स्वयं मिलेगा और न ही कोई सकारात्मक प्रभाव दूसरे मनुष्यों पर पड़ेगा। बल्कि समाज में पाखंड और दोहरे चरित्र का संदेश ही जाएगा। परस्पर-अविश्वास की स्थिति ही पैदा होगी। उपहास और निराशा की स्थिति ही पैदा होगी।
इसलिए गांधीजी ने कहा कि सौ उपदेशों से भी बढ़कर यह है कि हम अपनी एक-आध बात पर ही स्वयं अमल करके दिखावें। ‘परोपदेश पांडित्यम’ से काम नहीं चलेगा। बल्कि हमें अपने जीवन और आचरण से ही श्रेष्ठ उदाहरण प्रस्तुत करना होगा। तभी वह अपने लिए फायदाकारी और दूसरों के लिए प्रभावकारी हो पाएगा।
गांधीजी का विचार था कि ‘स्व’ को समझे बिना हम वास्तविक स्वराज की प्राप्ति नहीं कर सकते। इसके लिए उन्होंने ‘एकादश-व्रतों’ की सुंदर जीवन-योजना हमारे सामने रखी। ‘मंगल-प्रभात’ में उसका सरल और संक्षिप्त वर्णन प्रस्तुत कर उसे जीवन में अपनाने के लिए प्रेरित किया। ‘स्व’ को, शुद्ध चैतन्य आत्म को अथवा ‘सत्य’ को श्रद्धापूर्वक समझे बिना न तो हमें स्वयं अपने जीवन में कोई समाधान मिल पाएगा और न ही हम दूसरों के कल्याणमित्र बन सकेंगे। अन्यथा तो सभी प्रयास, सारे संसाधन और उपक्रम निष्फल ही जाएंगे या कुफलदायी ही साबित होंगे। यह बात हम सबको ठीक-ठीक समझ लेनी चाहिए।