मौत का आभास था उन्हें

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— अरविन्द मोहन —

गांधी क्या चाहते थे, कैसे रहते थे यह बात भी जगजाहिर है। उसके लिए उन्होंने जीवन लगाया, अपना भी, अपने परिवार का भी और सबसे प्रियजनों का भी। और एक-एक आदमी का चुनाव तथा तैयारी उन्होंने कितनी सतर्कता और मेहनत से की थी यह देखकर माली भी शरमा जाए क्योंकि वह भी अपने लगाये पौधों की ऐसी देखभाल कहाँ करता हैं। किसके स्वभाव में क्या है, किसके शरीर में क्या चाहिए, किसके विचारों में क्या कमी-बेशी है, गांधी को सब पता था और इन चीजों पर उन्होंने काम किया था। और जब एक भी व्यक्ति या साथी बदलता था तब वे दुखी होते थे।

लेकिन अपने लिए उनकी ‘कलाकारी’ एकदम अलग है। आखिर में वे टूट गये लगते हैं पर 78 साल के बूढ़े ने जो कुछ करके दिखाया उससे दुनिया हैरान थी और आज भी है। बल्कि दंगों, मारकाट और विभाजन वाले दौर में इसका सौंदर्य कुछ ज्यादा ही निखरा। गांधी सवा सौ साल जीवित रहना चाहते थे लेकिन समाज के इस व्यवहार, शासन के व्यवहार और सबसे बढ़कर अपने साथियों के व्यवहार से दुखी होकर वे जल्दी मरने की इच्छा जाहिर करने लगे। पर जब सब चीजें हाथ से निकलती लगीं तो उन्होंने अपना सब कुछ दाँव पर लगाकर अपने कुछ भरोसेमन्द साथियों के साथ सीधे अग्निकुण्ड में उतरने का फैसला किया। इस दौर पर सुधीर चन्द्र ने अद्भुत किताब लिखी है,  ‘गांधी : एक असंभव संभावना’। वे बताते हैं कि जो चीज दो मुल्कों की सरकारें, फौज और खजाना हासिल न कर पा रहे थे वह इस अधनंगे फकीर ने हासिल की और नेहरू तथा जिन्ना दोनों उम्मीद के साथ उसकी तरफ देख रहे थे।

प्यारेलाल जी की ‘पूर्णाहुति’, मनु गांधी की डायरी और निर्मल कुमार बोस जैसे नजदीकी लोगों (जो नोआखाली में उनके लिए दुभाषिया का काम भी कर रहे थे) का लेखन गवाह है कि गांधी तब क्या कर रहे थे और कैसे कर रहे थे, कैसी असंभव लगने वाली सफलता हासिल कर रहे थे।

और जैसी चर्चा पहले हुई है उनके लिए प्रार्थना और भजन ही सबसे बड़े सहायक थे। इन्हीं के सहारे वे 46 गाँवों में घुसे, दंगापीड़ितों को हौसला दे सके, दंगाइयों में बची मानवता को झकझोर सके। परदानशीं औरतें उनको पीर मानकर उनके सामने आयीं और उनके काम को आगे बढ़ाया। सबसे बदनाम सुहरावर्दी भरोसे लायक सहायक बने। इस ब्योरे को यहाँ दोहराने की जरूरत नहीं है, प्यारेलाल जी ने इस पर करीब दो हजार पन्ने खर्च किये हैं।

गांधी की इस कलाकारी का चरम क्या था यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए। पर इतना बताना जरूरी है कि गांधी ने एकाधिक संकेतों और भावों से ही नहीं सीधे बोलकर भी यह जता दिया था कि देश और दुनिया बदलने का उनका लंबा संघर्ष अब ‘द एण्ड’ पर आ चुका है। वे अपना सामान्य धर्म निभाते जा रहे थे, सारे काम चला रहे थे, खास बातों का ध्यान रख रहे थे लेकिन अब उनकी चिंता कुछ और बात की थी। जहर भरे मनों को शांत करने के साथ वे सत्ता में गये लोगों की अलग किस्म की भूख की लड़ाई भी निपटाने में लगे थे। जिन हमलों को दुनिया ने देखा, गांधी उनके मायने न समझते हों यह नहीं था। और वे तो हमला करने वालों को भी अपना ही मान रहे थे, ज्यादा से ज्यादा भटका हुआ। पर इनकी संख्या, ताकत, समाज को नुकसान करने की उनकी क्षमता, सब चीजों को वे देख और समझ रहे थे। और ऐसा सिर्फ हिन्दुओं में ही नहीं था। गांधी यह भी देख चुके थे कि गफ्फार ख़ान के भतीजे सपरिवार, रफी अहमद किदवई के अधिकारी भाई जैसे नेशनलिस्ट मिजाज के मुसलमान भी दंगाइयों का निशाना बन रहे थे।

ज्यादा न जीने की बात वे कुछ समय से कर रहे थे लेकिन 30 जनवरी 1948 को जब उन्होंने अपनी पोती मनु से एक बात कही तो वे एकदम डर गईं। तब मनु उनके निजी काम के साथ सहायक का काम भी देख रही थी क्योंकि प्यारेलाल जी समेत सारे दूसरे लोग दंगा शांत करने और राहत के काम में लगाये गये थे। पटेल और नेहरू के बीच मनमुटाव निपटाने के लिए उन्होंने उस दिन पटेल को बुलाया था। उनकी बातचीत कुछ लंबी चली जिसके चलते प्रार्थना में कुछ देरी हुई थी। पर इस चक्कर में गुजरात से आये काडियावाड़ी नेता रसिक भाई और ढेबर भाई को दिया समय रह गया। मनु ने उनके लिए नया समय मांगा तो गांधी ने कहा, ‘उनसे कहो कि यदि जिंदा रहे तो प्रार्थना के बाद टहलते समय बातें कर लेंगे।’ बीस तारीख को मदनलाल पाहवा द्वारा कराये बम विस्फोट के बाद उनके व्यवहार से ऐसा बेगानापन दिखने लगा था। इस घटना पर सांत्वना देने आयीं लेडी माउंटबेटन को उन्होंने कहा कि यह कोई बहादुरी न थी।

मनु इस तरह की बात कई दिन से उनके मुंह से सुन रही थी और एकाध बुरा सपना देख चुकी थी। लेकिन एक रात पहले ही जब गांधी खाना खाकर सीधे सोने चले गये थो उसे हैरानी हुई कि वे सिर में तेल मालिश कराना कैसे भूल गये। जब वह मालिश करने लगी तो गांधी ने उससे कहा था, ‘आज एक बात तुझे कहना चाहता हूं, जो कई बार कह भी चुका हूं। यदि मैं किसी रोग से या छोटी सी फुंसी से भी मरूं, तो तू जोर-शोर से दुनिया से कहना कि यह दंभी महात्मा रहा। तभी मेरी आत्मा को, भले ही वह कहीं हो, शांति मिलेगी। भले ही मेरे लिए लोग तुझे गालियां दें, फिर भी यदि मैं रोग से मरू तो मुझे दंभी पाखंडी महात्मा ही ठहराना। और यदि गत सप्ताह की तरह धड़ाका हो, कोई मुझे गोली मार दे, मैं उसे खुली छाती झेलता हुआ भी मुंह से ‘सी’ तक न करता हुआ राम का नाम रटता रहूं, तभी कहना कि वह सच्चा महात्मा था…इससे भारतीय जनता का कल्याण ही होगा।’

जी हाँ, इसे माना जाना चाहिए परम कलाकारी। चौबीस घण्टे से कम समय में उस महात्मा के संग ऐसा ही हुआ और उसने राम का नाम ही लिया। सिपाही-पुलिस की सुरक्षा कब से ठुकरा रहा था। और तत्काल उसकी हत्या ने किस तरह फर्क डाला यह कहानी भी बताने की जरूरत नहीं है।

(वरिष्ठ पत्रकार-लेखक अरविन्द मोहन ने ‘गांधी कथा’ नाम से पांच पुस्तकों में एक बृहत् वृत्तांत लिखा है. यह लेख उसी वृत्तांत के चौथे खंड से लिया गया है. ‘गांधी कथा’ से कुछ और प्रसंग हम प्रस्तुत करेंगे. ‘गांधी कथा’ सेतु प्रकाशन से प्रकाशित हुई है.)

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