— नारायण देसाई —
राष्ट्रवाद सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी। सकारात्मक राष्ट्रवाद ऐसे राष्ट्र का निर्माण करता है जो देश में मौजूद विभिन्न धार्मिक, भाषाई, जातिगत और सामुदायिक विभेदों को एक सूत्र में जोड़ता है और कभी भी अपने को समूची मानवता से अलग नहीं समझता या बाकी दुनिया के विरोध में खड़ा नहीं होता। नकारात्मक राष्ट्रवाद राष्ट्रीय दंभ और सारी दुनिया से अपने को अलग समझने की भावना पर निर्मित होता है तथा अन्य देशों के प्रति घृणा या तिरस्कार की भावना पर फलता-फूलता है। आप चाहें तो पहले प्रकार के राष्ट्रवाद को अहिंसक राष्ट्रवाद या गांधी का राष्ट्रवाद भी कह सकते हैं। दूसरे प्रकार के, यानी संकीर्ण और अपने को सबसे ऊपर समझने की प्रतिस्पर्धा वाले राष्ट्रवाद को हम कह सकते हैं हिंसक राष्ट्रवाद या हिटलर का राष्ट्रवाद।
गांधी जब युवा हुए, भारत अपनी पराधीनता के प्रति सजग हो रहा था। दूसरों का गुलाम होना गांधी की प्रकृति के खिलाफ था। गांधी ने ऐसे राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया जिसने भारत को एक संपूर्ण इकाई के रूप में ऐक्यबद्ध किया। उन्होंने भारत को तरह-तरह के विभाजनों में देखा था। ढेर सारे राजनीतिक ग्रुप थे, रियासतों में भी और ब्रिटिश शासन वाले भारत में भी; धार्मिक समूह थे, जैसे कि हिंदू और मुसलमान, और हजारों जातियां थीं। फिर, वर्गीय विभाजन भी थे। गांधी से पहले अनेक नेताओं ने ऐसी शक्ति खड़ी करने की कोशिश की थी जो ब्रिटिश हुकूमत से लोहा ले सके, पर उनकी दिलचस्पी विभाजन की शक्तियों को घटाने और एक समरस राष्ट्र बनाने में ज्यादा नहीं थी।
ऐसे समय जब भारत का जनसाधारण राजनीतिक स्वाधीनता के प्रति उदासीन था, गांधी ने उनमें एक राष्ट्रीय आलोड़न पैदा किया। इस लिहाज से, वे भारत के राष्ट्रपिता थे। दरअसल, महान राष्ट्रवादी नेता सुभाषचंद्र बोस ने, स्वाधीनता-प्राप्ति के तरीके को लेकर जिनके गांधी से गहरे मतभेद थे, गांधी को सबको जोड़ने वाली महान शक्ति के रूप में पहचाना था, और इसीलिए, सबसे पहले उन्होंने ही गांधी को राष्ट्रपिता कहा था। बाद में, स्वतंत्र भारत की संसद ने इस पर अपनी मुहर लगा दी।
गांधी का राष्ट्रवाद कभी भी वर्जनशील नहीं रहा। 4 अप्रैल 1929 के ‘यंग इंडिया’ में उन्होंने कहा, ‘‘मेरा लक्ष्य केवल भारतीयों के बीच भाईचारे की स्थापना नहीं है। मेरा लक्ष्य केवल भारत की स्वतंत्रता नहीं है; यद्यपि इसमें संदेह नहीं कि आज मेरा लगभग पूरा जीवन और पूरा समय इसी में लगा है। लेकिन भारत की आजादी हासिल करने के जरिए मैं संपूर्ण मानवता के बीच भाईचारे के लक्ष्य को प्राप्त करना चाहता हूं। मेरी राष्ट्र-भक्ति कोई एकांतिक वस्तु नहीं है। यह सर्वसमावेशी है और मैं उस राष्ट्र-भक्ति को नकार दूंगा जो अन्य राष्ट्रीयताओं के दुख और शोषण पर सवार होने का प्रयास करेगी। राष्ट्रभक्ति की मेरी धारणा निरर्थक है यदि संपूर्ण मानवता की अधिक भलाई के साथ इसकी, निरपवाद रूप से, पूरी-पूरी संगति न हो।’’
जैस-जैसे गांधी बड़े हुए, एक सकारात्मक (अहिंसक) राष्ट्रवाद की उनकी परिकल्पना भी विकसित होती गई। उनकी देशभक्ति के शुरुआती लक्षण आहार के उनके प्रयोग में देखे जा सकते हैं, जिसे उन्होंने जल्दी ही सुधार लिया था। मांस खाने के पहले प्रयास के पीछे न तो उत्सुकता थी न स्वाद की ललक। उसके पीछे तो उनके एक दोस्त की यह खोज थी कि मांस खाने से शरीर में ताकत आती है और अंगरेजों से लड़ने के लिए यह जरूरी है। जाहिर है, मांस खाने के लिए तैयार होने के पीछे वैयक्तिक नहीं, बल्कि बड़ा प्रयोजन था।
दरअसल, अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं या जरूरतों से आगे जाकर व्यापक उद्देश्य के लिए काम करने की प्रेरणा उनके बचपन में भी मौजूद थी, और फिर यह उनकी युवावस्था से लेकर जीवन के अंत तक जारी रही। इंग्लैंड में जब वे विद्यार्थी थे, खुद के स्वार्थ के काम करके संतुष्ट नहीं हो गए। भारत से इंग्लैंड जाने वाले युवाओं के लिए उन्होंने एक गाइडबुक लिखी। यह उनकी लिखी पहली किताब थी, जिसके बारे में प्रायः शोधार्थी भी नहीं जानते हैं। यह छोटी-सी पुस्तिका इस मकसद से लिखी गई थी कि उस पराए देश में बाद में जाने वाले युवाओं के लिए यह उपयोगी सिद्ध होगी। इसमें रिहाइश, खानपान, शिष्टाचार, पहनावे आदि के बारे में व्यावहारिक जानकारी दी गई थी, इस खयाल से कि इससे दूसरों को मदद मिलेगी, जिन्हें वैसी ही मुश्किलें झेलनी पड़ सकती हैं जैसी उन्हें वहां पहली बार जाने पर झेलनी पड़ी थीं। यह दूसरों के लिए कार्य करने की प्रेरणा थी; यह दूसरों की मदद करने की इच्छा थी और यही उनकी सार्वजनिक गतिविधियों की बुनियाद थी- एक ऐसी अभिलाषा जिसने उनका दायरा वैयक्तिक से बढ़ाकर निकटतम पड़ोसी तक और फिर पूरी मानवता तक कर दिया।
दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने उन लोगों के साथ काम शुरू किया, जिन्होंने उन्हें अपने वकील के सहायक के तौर पर नियुक्त किया था। दादा अब्दुल्ला और उनके एक रिश्तेदार के बीच पुराना कारोबारी झगड़ा चला आ रहा था जिसने लंबी कानूनी लड़ाई का रूप ले लिया था। गांधी ने दोनों पक्षों को समझा-बुझा कर, अदालत से बाहर समझौता कराकर, उनके बीच फिर से सौहार्द कायम करके, इस गतिरोध को खत्म कराया। पर यह तो बस शुरुआत थी।
गांधी ज्यादा समय तक खुद और अपने परिवार और अपनी वकालत तक सीमित नहीं रह सके। वे जल्दी ही दक्षिण अफ्रीका में रहने वाले भारतीय समुदाय के प्रवक्ता बन गए।
यह सच है कि जब उन्होंने वहां भारतीय समुदाय के लिए काम करना शुरू किया, वे दक्षिण अफ्रीकी अश्वेतों की समस्याओं में बहुत दिलचस्पी नहीं रखते थे। भारतीय समुदाय की ओर से उन्होंने जो शुरुआती प्रार्थनापत्र तैयार किए थे उनमें एक में यह शिकायत की गई थी कि गोरे भारतीयों के साथ वैसा ही अपमान-भरा व्यवहार करते हैं जैसा कि देश के ‘मूलवासी’ या ‘बर्बर’ अश्वेतों के साथ करते हैं। हालांकि किसी को यह लग सकता है कि तब तक वे इस ऊंचाई पर नहीं पहुंचे थे कि सभी मनुष्यों को समान समझें, पर उन दिनों भी उन्होंने कभी भी किसी अश्वेत (काले) के साथ क्षुद्र बर्ताव नहीं किया था। दूसरी ओर, प्रार्थनापत्र का मुख्य जोर इस तर्क पर था कि एशियाइयों (खासकर हिंदुस्तानियों) के खिलाफ बने भेदभावकारी कानूनों के चलते उनके और यूरोपीय समुदाय के बीच सौहार्द बिगड़ता है। मुद्दा हालांकि इंसानी भाईचारे के व्यापक मसले की तुलना में सीमित था, पर उसकी दिशा सौहार्द की ही थी।
दक्षिण अफ्रीका में गांधी ने जो संगठन बनाया और बीस वर्षों तक जिसका नेतृत्व किया उसका नाम अफ्रीकी इंडियन कांग्रेस रखा गया था, एक ऐसा नाम, जो इसी ओर संकेत करता है कि गांधी उन्नीसवी सदी के आखिरी दशक के शुरुआती वर्षों में ही इंडियन नेशनल कांग्रेस से प्रेरणा ले रहे थे। यह भारत में राष्ट्रवाद के अंकुरित होने का समय था और उतनी दूर होते हुए भी गांधी स्वदेश में होने वाली घटनाओं में पूरी दिलचस्पी रखते थे। तब वे ब्रिटिश साम्राज्य के वफादार नागरिक थे और भारतीय राष्ट्रवाद को उस साम्राज्य के शत्रु के रूप में नहीं देखते थे।
अपने दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान जब भारत के दौरे पर आए, तो यहां उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में शिरकत की, और इतने शरमीले थे कि भाषण देने से बचते रहे। इसके बजाय उन्होंने कांग्रेस के अधिवेशन में साफ-सफाई और वालंटरी सेवा की अन्य गतिविधियों की पहल की। उन्होंने दादाभाई नौरोजी और गोखले जैसे दिग्गजों के साथ सम्मानपूर्ण संबंध प्रगाढ़ किए और देश के प्रति उनकी समर्पित सेवा से प्रेरणा ली। बीसवीं सदी का पहला दशक उनके जीवन का सबसे निर्धारक काल था। यह वह काल था जिसने गांधी को गढ़ा। दूसरा दशक शायद महत्व में पहले दशक से अधिक वजन रखता था। उस पहले दशक या उससे कुछ अधिक बरसों में वे जिन तीव्र परिवर्तनों से गुजरे उसे रूपांतरण ही कहा जाएगा। अनुभवहीन और झेंपू व्यक्ति से स्वाभाविक नेता में, अच्छी-खासी कमाई करने वाला और अपनी हैसियत के मुताबिक ठाठ-बाट से खर्च करने वाला वकील निहायत सादगी-भरा जीवन जीने वाले व्यक्ति में बदल गया था। एक अभिजात वकील ने मजदूर जैसा जीवन जीना मंजूर कर लिया था। धार्मिक विचारों के बारे में सतही ज्ञान रखने वाला विभिन्न धर्मों का गहन विद्यार्थी बन गया था। शायद सबसे ज्यादा रूपांतरण उनके आंतरिक जीवन और सोच में हुआ था। उनमें हुए इस अनूठे परिवर्तन के संकेत हमें उनकी कृति ‘इंडियन होम रूल’ में दिखते हैं।
‘इंडियन होम रूल’ या ‘हिंद स्वराज’ गांधी की सबसे आधारभूत कृतियों में से एक है, एक मौलिक कृति, जिसमें जीवन के विभिन्न पक्षों की बाबत उनके अधिकांश चिंतन के बीज समाहित हैं। अपनी राजनीति के संबंध में उनका बुनियादी विचार ब्रिटिश पार्लियामेंट के बारे में उनकी कड़ी आलोचना तक सीमित नहीं था, जिसने बहुत-से लोगों को चौंकाया था, बल्कि वह उनके इस कथन में था कि ‘सत्ता जनता में निहित होती है’। यही वह सिद्धांत था जिस पर गांधी का राष्ट्रवाद पल्लवित-पुष्पित हुआ।
यह किताब (हिंद स्वराज) बहुत-से राजनीतिक नेताओं से, जिनमें कई भारतीय विद्रोही भी थे और जो ब्रिटिश हुकूमत से आजादी के लिए योजना बनाते या ख्वाब देखते हुए इंग्लैंड में अपने बेचैनी-भरे साल बिता रहे थे, चर्चा और बहस के बाद, स्व के संधान के तौर पर लिखी गई थी। ये चर्चाएं उन्हें भारत की स्वाधीनता के उद्देश्य, उसकी प्रकृति व अंतर्वस्तु की बाबत अपने विचारों में और स्पष्टता लाने में मददगार साबित हुई होंगी।
(बाकी हिस्सा कल)
अनुवाद : राजेन्द्र राजन