प्रकृति की आभा और जीवन का वैषम्य

2


— भोला प्रसाद सिंह —

नींद एक पेड़ है जिस पर सपनों के परिंदे उतरते हैं.

ह किसी कविता की पंक्ति न होकर औपन्यासिक कथा पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम की पंक्ति है। एकांत श्रीवास्तव के गद्य में भी काव्य की तरलता है। कहीं-कहीं आलोच्य उपन्यास की पंक्तियां काव्य-सरीखी लगती हैं। उपन्यास की घटनाओं और विवरणों के मध्य लघु कविता का आस्वादन भी पाठक कर सकते हैं-
‘भादो की दोपहर।
आकाश किंतु स्वच्छ, धूप खिली हुई है
प्रेम सो रही है
नींद में सपनों की चटाई बिछी हुई।
नहीं, शायद वह स्मृतियों की चटाई है।’

यहां वही प्रेम सो रही है जो कथा-नायिका है और जिसके जीवन संघर्ष की बहुमुखी दिशाओं को पाठकों के लिए संवेद्य बनाना उपन्यासकार का अभीष्ट है। कथा की हर पंखुड़ी पर प्रेम नाम अंकित है। शायद इसीलिए कथाकार ने इसका नाम ‘पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम’ रखा है।

प्रेम है कौन? क्यों वह उपन्यास के केंद्र में स्थित है? जितने भी कथावृत्त यहां खींचे गए हैं वे सभी सकेंद्रिक हैं और प्रेम केंद्रीय बिंदु है।

एकांत श्रीवास्तव

प्रेम फिंगेश्वर रियासत के दीवान बाबू बंसीलाल की छोटी बेटी है, बड़ी बेटी का नाम चंदा है। दोनों बहनें कम सहेली ज्यादा हैं। एकसाथ खेलना, गीत सीखना, नदी आदि का चक्कर लगाना। नियति का ऐसा खेल कि दोनों का विवाह एक ही परिवार चंदिया रियासत के दीवान के यहां संपन्न हुआ। इधर दो बहनें और उधर दो भाई। भाइयों के नाम केतन और कुंज हैं। चंदा का विवाह केतन से और कुंज का प्रेम से संपन्न हुआ। यद्यपि कथा की पृष्ठभूमि अत्यंत विस्तृत है। अंग्रेजी राज से लेकर स्वाधीन भारत तक। रेणु जी के उपन्यास ‘मैला आंचल’ की तरह। रेणु जी की कृति में पूर्णिया का मेरीगंज है तो एकान्त जी के उपन्यास में छत्तीसगढ़ की फिंगेश्वर रियासत है। इस रियासत के दीवान बाबू बंशीलाल हैं जिनकी हवेली तरजुंगा गांव में है यानी तरजुंगा में ही वे पूरे परिवार के साथ रहते हैं। दीवान बंशीलाल की बेटियों का विवाह चंदिया के रजवाड़े घराने में होता है। इसके दीवान हैं बाबू गिरधारी लाल। उनके बड़े बेटे केतन से चंदा का और छोटे बेटे कुंज का विवाह प्रेम से संपन्न होता है। खुशहाल परिवार की बेटियां खुशहाल परिवार में पहुंच जाती हैं। लेकिन उपन्यास दो राजपरिवारों की शान-शौकत, उनके अंतर्द्वंदों को व्यक्त न कर एक स्वतंत्र दिशा की ओर बढ़ता है। वास्तव में इसकी दास्तान एक स्त्री के बहुमुखी संघर्ष की दास्तान है। फिंगेश्वर के दीवान बाबू बंशीलाल की छोटी बेटी के जीवन संघर्षों की मार्मिकता को व्यक्त करना आलोच्य उपन्यास का अभीष्ट है।

प्रेम के संघर्ष का दायरा इतना बड़ा है कि उसमें तरजुंगा गांव की छोटी बड़ी घटनाएं समा जाती हैं। एक संपन्न परिवार की बहू को कदम-कदम पर इतने जंजालों से रूबरू क्यों होना पड़ा? पाठकों के मन में जिज्ञासा का होना स्वाभाविक है। इसका उल्लेख पहले किया जा चुका है कि प्रेम का विवाह कुंज से होता है। कुंज संवेदनशील और जागरूक युवक है। राजपरिवार में जन्म लेते हुए भी राजसी सुख और ऐश्वर्य के प्रति उसका झुकाव न होकर स्वाधीनता संग्राम की गतिविधियों की ओर है। उसे कलाम चाचा की सादगी और सद्भावना आकर्षित करती है। बांसुरी बजाना भी उसने बाबा कलाम से ही सीखा था। स्वाधीनता संग्राम की गतिविधियां उसे उद्वेलित करती थीं। स्वाधीनता संग्राम के दौरान पुलिस फायरिंग में उसकी मौत हो जाती है। विधवा होने के कुछ वर्षों बाद ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई कि प्रेम अपनी ससुराल में टिक नहीं पाई। तरजुंगा लौटने के लिए बाध्य हो गई। उसके जीवन संघर्ष की कहानी यहां से शुरू होती है।

अब प्रेम के साथ उसका बेटा भी है। तरजुंगा में उसे भैया-भाभी के आश्रय में रहना है। उसके मां-बाप गुजर चुके हैं। भाई तो हर तरह से बहन की देखभाल के लिए तत्पर है। लेकिन भाभी के लिए प्रेम धीरे-धीरे असह्य हो गई। प्रेम का बेटा बब्बू अब पढ़ने-लिखने लगा है। बब्बू के बेहतर भविष्य के लिए उसे रायपुर के बोर्डिंग स्कूल में दाखिला उसके मामा ने करवा दिया है। लेकिन पूर्वाग्रह से भरी भाभी ने भैया की अनुपस्थिति में प्रेम पर दुश्चरित्र होने का आरोप लगाया। अब प्रेम के लिए उस घर में रहना नामुमकिन हो गया। अकेले रहने की उसने ठान ली। उसने हवेली छोड़कर मंदिर में आश्रय लेना चाहा लेकिन मनबोध का प्रेम के प्रति अप्रतिम स्नेह के साथ गांव के कुछ लोगों के सहयोग से प्रेम की कुटिया खड़ी हो गई। उसकी जरूरतें अब गांव के एक समूह की जरूरतें बन गईं। मनबोध, दुर्गा आदि पारिवारिक सदस्यों की तरह प्रेम की देखभाल करने लगे। लेकिन प्रेम के अंदर कुछ विशेष करने का जज्बा था। वह भी गांव के लिए कुछ करना चाहती थी।

पूरी आस्था और दृढ़ता के साथ तरजुंगा में उसने एक खुली पाठशाला खोल दी। बच्चों को एक पेड़ के नीचे प्रेम पढ़ाने लगी। यह अनोखी पाठशाला थी। इसमें बच्चे-बूढ़े सभी आकर कुछ सीखते -पढ़ते। अक्षरों की दुनिया जिनके लिए अब तक अंधकारमय थी वह अब प्रकाशमय हो उठी। प्रेम के बचपन का साथी मनबोध नियमित उस खुली पाठशाला में आता और चुपचाप पीछे बैठ जाता। दुर्गा को भी पाठशाला और प्रेम से गहरी आत्मीयता हो गई। धीरे-धीरे प्रेम पूरे गांव की सुख-दुख की सहभागिनी बन गई।

दुर्गा एक बेटी की तरह उसकी छाया बनकर रहने लगी। इस अनोखी पाठशाला को उपन्यासकार ने तरजुंगा का शांतिनिकेतन कहा है। शस्य-श्यामला भूमि पर और मुक्त गगन के नीचे प्रेम की निशुल्क पाठशाला चल रही थी।

तरजुंगा और उसके आसपास के गांवों में निःशुल्क इलाज करने और दूसरों के दुख-तकलीफों को साझा करने वाले की चर्चा विस्तार से उपन्यास में की गई है। उस फकीर का नाम है चाचा कलाम। आमतौर पर श्रद्धा से उन्हें बाबा कहकर भी पुकारा जाता था। जिनका कोई स्थायी ठौर नहीं था। घर-परिवार के बंधनों से मुक्त दूसरों के कल्याण के लिए उनका जीवन प्रस्तुत रहता था। ऐसी बात नहीं कि इस दुनिया में उनका कोई नहीं था। बहुत उत्साह के साथ वे अपने युवाकाल में पत्नी और इकलौती बेटी के साथ सोनपुर मेला देखने गए। हर साल की तरह उस साल के मेले में भी भीड़ उफान पर थी।

लेकिन नियति का ऐसा दुश्चक्र चला कि मेले के भीषण अग्निकांड में युवा कलाम ने अपनी प्यारी पत्नी और बेटी को खो दिया। इस हादसे के बाद कलाम की उदासी दिन प्रतिदिन बढ़ती गई। वैराग्य का भाव उनमें बढ़ता गया। धीरे-धीरे दूसरों के दुख दर्द में अपनी पीड़ा और त्रासदी को ढूंढ़ने लगे। पीड़ा का यह मनोभव उन्हें फकीर में तब्दील कर दिया। अब उनका कोई स्थायी ठौर नहीं रहा। वह गांव-गांव घूमते लोगों के मर्ज का इलाज करते और गांव के किसी किनारे पर अपना ठौर बना लेते। साधारण यानी गरीब परिवार से जो भी भोजन मिलता उसे ग्रहण करते। केवल एक वक्त ही वे भोजन करते थे। लेकिन अमीर परिवार या हवेली से वे कुछ भी ग्रहण नहीं करते। इस संदर्भ में हुए टूक शब्दों में कहते- “हवेलियां ईंट, पत्थर और गारे से नहीं बनतीं। वह लोगों के खून और हड्डियों से, उनकी मांस-मज्जा से बनती हैं। मेरे लिए वहां का जल भी वर्जित है क्योंकि वहां के पानी से भी खून की गंध आती है।” कलाम चाचा का यह कथन उन्हें असाधारण फकीर की ऊंचाई पर आसीन करता है। वक्त के जख्मों ने उन्हें बहुत मांजा है। उनका वर्तमान रूप युवा कालीन कलाम से काफी भिन्न है। कुंज पर भी चाचा कलाम के विचारों का काफी प्रभाव पड़ा था। कुंज की बांसुरी में आवाज भरने का काम तो चाचा ने ही किया था।

इस औपन्यासिक कथा में कलाम, कुंज और प्रेम का जीवन उदात्त भूमि पर अवस्थित है। कुंज ने तो देश के लिए अपना बलिदान कर दिया। पति के रूप में कुंज का साथ प्रेम को थोड़े समय के लिए ही मिला। लेकिन उसकी छाया प्रेम पर आजीवन बनी रही।

फकीर कलाम, कुंज और प्रेम आलोच्य उपन्यास के उदात्त चरित्र हैं– दुख ने इन चरित्रों को एक नए सांचे में ढाला है– अज्ञेय के शब्दों में कहूं तो–
‘दुख सबको मांजता है
और स्वयं चाहे मुक्ति देना वह न जाने
किंतु जिनको मांजता है
उन्हें यह सीख देता है
कि सबको मुक्त रखें’

हताश और निराश मन में स्फुरण जगाना उपन्यास की खासियत है। कलाम और प्रेम की बदली हुई जीवन-स्थिति इसके उदाहरण हैं। निराशा की अलंघ्य दीवार चाचा कलाम तोड़ते हैं। वैधव्य की बाधाओं को तोड़कर प्रेम भी नई राह ढूंढ़ निकालती है। बेसहारा और प्रताड़ना को झेलने वाली पात्र कजरी भी है।

फिंगेश्वर के दीवान के छोटे भाई बृजभूषण के साथ उसका अवैध संबंध था। बृजभूषण की मृत्यु के बाद अपनी पीड़ा सावित्री से बांटना चाहती है। लेकिन सावित्री के मन में कजरी के प्रति इतना आक्रोश भरा हुआ था कि वह कजरी की कोई भी बात सुनने को तैयार नहीं थी। लेकिन कजरी की सहनशीलता के समक्ष सावित्री को पिघलना पड़ा। अब सावित्री और कजरी सौतन नहीं रहीं और अंतरंग सखी बन गई। इस बदली हुई स्थिति पर लेखक की टिप्पणी है–
“एक दुख को सिर टिकाने के लिए जब दूसरे का कंधा मिल जाए तो सुख के सगुन पंछी भी वापसी के लिए अपने पर तौलने लगते हैं।”

एकांत श्रीवास्तव उन थोड़े से गद्यकारों में हैं जिन्हें प्रकृति का अप्रतिम चितेरा कहा जा सकता है। अनगिनत फूलों की क्यारियों से इनका गद्य आच्छादित है। कहीं दूध मोगरा है तो कहीं टिशू के लाल फूल तो कहीं पलाश या परसा…..। फूलों का संसार द्विवेदी जी के ललित निबंध ‘शिरीष के फूल’, ‘अशोक के फूल’, ‘कुटज’ की याद दिलाते हैं। एकांत श्रीवास्तव की रचनाएं फूलों की कोमल पंखुड़ियों से ही आच्छादित नहीं हैं, यहां कंटीले बबूल की महिमा की ओर भी पाठक का ध्यान खींचा गया है। बबूल का पेड़ जीवन का पर्याय है–जहां फूल और कांटे दोनों हैं। फिर भी इनकी कंटीली टहनियों पर पड़की (पंडुक) गाती है और परिंदे उतरते हैं। प्रचंड गर्मी में धरती की हरियाली अगर कहीं बचती है तो केवल बबूलों पर–जैसे यह पेड़ न होकर धरती के संत हों–ताप सहकर धरती की हरियाली को बचाए हुए। प्रकृति की हरियाली के साथ चिड़ियों का अन्योन्याश्रित संबंध हैं। छोटी-बड़ी तमाम चिड़ियों का शरण स्थल तो वृक्ष की शाखा-प्रशाखा ही हैं। प्रकृति का चितेरा परिंदों की दुनिया के प्रति कैसे निरपेक्ष रह सकता है?

एकांत जी पहले कवि हैं बाद में गद्यकार। इनकी गद्य रचनाएं भी काव्य की तरह लयात्मक हैं। फल-फूल, सर-सरिता की तरह चिड़ियों के मधुर स्वर इनकी रचनाओं का वैशिष्ट्य है। छोटी-बड़ी-मझोली चिड़ियों की चहचहाहट से इनके मनोभाव आकार लेते हैं। इन चिड़ियों का समूह कभी-कभी भ्रम उत्पन्न करता है कि है कि हम सलीम अली की दुनिया में तो नहीं आ गए!

‘पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम’ में जीवन के वैषम्य का मार्मिक चित्रण भी है। छत्तीसगढ़ की भूमि उर्वर है। यह धान का कटोरा है। यहां कपास की भी खेती होती है। हमारे तमाम वस्त्र कपास के धागे से बने होते हैं। लेकिन ऐसे लोगों की संख्या कम नहीं है जिनके पास जरूरत भर के कपड़े भी नहीं हैं। कुछ स्त्रियों को तो एक साड़ी में गुजारा करना पड़ता है। नहाकर भीगे कपड़े का एक हिस्सा सुखाती हैं और एक हिस्सा पहनती हैं। कैसी दयनीय स्थिति में वे अपना जीवन गुजारती हैं। इस स्थिति में उपन्यासकार की टिप्पणी बहुत मौजूं है– “अभाव व्यक्ति को जीने की नई तकनीक सिखाता है।”…..खेतों में कपास सबके लिए बराबर उगता है लेकिन वस्त्र बनकर बंटते समय वह असमानता और अन्याय का शिकार हो जाता है।”

सामाजिक विषमता की बातें राजनीतिज्ञ भी करते हैं और कथा-सर्जक भी। लेकिन दोनों के तरीके अलग-अलग होते हैं। कवि-कथाकार वैषम्य की अभिव्यक्ति में प्रकृति को भी अपना साक्षी बनाते हैं। आलोच्य उपन्यास में इसका मार्मिक चित्र देखने को मिलता है–’स्त्रियों का एक वर्ग है जो एक दिन में तीन बार साड़ी बदलती हैं, दूसरी ओर एक बड़ी संख्या उन स्त्रियों की है जो एक साड़ी पर ही गुजारा करती हैं।’

अंत में आलोच्य उपन्यास के शीर्षक पर एक दृष्टि– ‘पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम’ प्रकृति की आभा बिखेरने वाली काव्य-पंक्ति का अंश सरीखा लगता है। मर्मज्ञ आलोचक अरुण कमल के शब्दों में–’एकांत ने प्रकृति के सौंदर्य को बिलकुल अछूते प्रसंगों, दृश्यों और चरित्रों से व्यक्त किया है।’

किताब : पंखुड़ी पंखुड़ी प्रेम (उपन्यास)
लेखक : एकांत श्रीवास्तव
राजपाल एंड सन्ज़, दिल्ली, मूल्य – 285/-

2 COMMENTS

  1. काव्यात्मक समीक्षा।सारगर्भित विश्लेषण।पठनीय।धन्यवाद सर

  2. समीक्षा उपन्यास के हर कोने को छू कर लिखी गई है। उपन्यास का कथ्य और उद्देश्य प्रेम की यात्रा और उसके विविध पड़ावों पर टिका है। उसके मर्म को साझा करने में आलोचक उसकी शैली में छलकते काव्य तरंगों की बरबस चर्चा करते हैं जो कि एकांत श्रीवास्तव जी की अपनी ही विशेषता है। पानी भीतर फूल, उनके पहले उपन्यास की तरह ही यह उपन्यास भी शब्दों के बोझ से दबा न होकर सहज गतिमान है। आलोचक उस गतिज ऊर्जा का प्रवाह बनाए रखने में सफल नजर आ रहे हैं।

Leave a Comment