
— अरुण कुमार त्रिपाठी —
बिहार में चल रही जाति जनगणना और एक मंत्री की रामचरितमानस पर टिप्पणी से उठा राजनीतिक विमर्श उत्तर प्रदेश तक पहुंच गया है। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के नेता स्वामी प्रसाद मौर्य ने भी उस विमर्श को बढ़ाया है और जिससे विवाद के साथ एक लहर बनने का भी दावा किया जा रहा है। हालांकि बहुजन समाज पार्टी की नेता मायावती ने इसे भाजपा और सपा की संयुक्त रणनीति बताया है ताकि बसपा को कमजोर किया जा सके। समाजवादी पार्टी के दफ्तर के बाहर लगे ‘गर्व से कहो हम शूद्र हैं’ नामक पोस्टर ने इस बहस की गर्मी को और हवा दी है। इस बीच सपा के नेता अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से रामचरितमानस की विवादित चौपाई का अर्थ पूछा है तो उन्होंने अखिलेश को अज्ञानी बताते हुए उनके दांव में फंसने से इनकार कर दिया है। हालांकि अखिलेश यादव इस रणनीति पर कायम हैं और उन्होंने ट्वीट करके दावा किया है कि भाजपा पिछड़ों और दलितों को सिर्फ वोट वाला हिंदू मानती है और वास्तविक हिंदू तो वह सवर्णों को ही मानती है। यही वजह है कि जब वे मुख्यमंत्री पद से हटे और योगी जी मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने मुख्यमंत्री आवास को गंगाजल से धुलवाया था। वे विधानसभा में योगी से पूछने वाले हैं कि क्या वे उन्हें शूद्र मानते हैं?
सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन का अध्ययन करने वाले लोगों का मानना है कि इस विवाद और बहस से भाजपा की जातिवादी सांप्रदायिकता से मुकाबला करने के लिए नई ऊर्जा पैदा होगी और दलित-पिछड़ा वर्ग संघ-परिवार से दूर छिटकेगा। क्योंकि भाजपा ने अगले चुनाव को राममंदिर के आधार पर लड़ने का फैसला लगभग कर लिया है। इसी विवाद के मध्य नेपाल से शालिग्राम की शिला ले आई गई है और उसके पूजन को धूमधाम से प्रचारित किया जा रहा है। भाजपा की योजना घर घर रामचरितमानस के पाठ के बहाने फिर से आस्था को जगाने और उसका चुनावी इस्तेमाल करने की है। इसलिए बिहार से शुरू हुई जाति जनगणना और पिछड़ी दलित जातियों और नारियों को नीचा दिखाने वाले धार्मिक ग्रंथों और उनकी पंक्तियों के बहाने एक गोलबंदी हो रही है जो इसे चुनौती दे सकती है।
समाजवादी पार्टी की यह रणनीति डॉ राममनोहर लोहिया की रणनीति से दूर डॉ भीमराव आंबेडकर की ओर खिसकती हुई दिखाई दे रही है। वरना कभी परशुराम की जयंती मनाने वाली समाजवादी पार्टी क्यों तुलसी के मानस पर आक्रामक होती। समाजवादी नेता डॉ लोहिया, डॉ आंबेडकर से 20 वर्ष छोटे थे। यानी वे अगली पीढ़ी के विचारक नेता थे। लेकिन उन्होंने डॉ आंबेडकर के जीवन के अंतिम दिनों में उनसे संपर्क साधने और उनके साथ मिलकर सत्ता और सामाजिक परिवर्तन की राजनीतिक योजना बनाई थी। वह योजना परवान नहीं चढ़ सकी लेकिन डॉ आंबेडकर के निधन पर उनकी यह श्रद्धांजलि बहुत मायने रखती है कि “वे गांधी के बाद इस देश के सबसे बड़े व्यक्ति थे और उनके होने से यह यकीन होता था कि इस देश से जाति व्यवस्था एक दिन खत्म हो सकेगी।”
यहां डॉ आंबेडकर और डॉ लोहिया के जाति उन्मूलन के सिद्धांत और रणनीति का अंतर स्पष्ट कर देना भी आवश्यक है।
जहां डॉ आंबेडकर यह मानते थे कि जाति व्यवस्था वास्तव में शोषक है, सुंदर बताई जाने वाली वर्ण व्यवस्था के पतन का परिणाम नहीं है। बल्कि वह सैद्धांतिक रूप से ही मनुष्य विरोधी है और उसके विचार हिंदू धर्मग्रंथों में विस्तार से उपस्थित हैं। इसीलिए वे मानते थे कि हिंदू धर्मग्रंथों से पूरी तरह से छुटकारा पाए बिना जाति व्यवस्था से लड़ा नहीं जा सकता। वे न सिर्फ हिंदू धर्मग्रंथों की वैचारिक, अकादमिक और राजनीतिक आलोचना करते थे बल्कि उनके विरुद्ध व्यावहारिक कार्रवाई भी करते थे। मनुस्मृति को जलाना और `रिडल्स इन हिंदुइज्म’ और `जाति प्रथा का समूल नाश’ इसके प्रमाण हैं। हालांकि यह बात ध्यान देने की है कि डॉ आंबेडकर ने मनुस्मृति को जलाए जाने में अपने ब्राह्मण मित्रों को आगे किया था। यानी वे समाज के हर वर्ग को यह बात बता रहे थे कि इस असमान और मानवता के लिए अपमानजनक व्यवस्था की जड़ें कहां पर हैं और उन्हें मिलकर उनसे लड़ना चाहिए। इसी लड़ाई को छेड़ते हुए जब उन्हें लगा कि इससे लड़ पाना उनके बस में नहीं है तो उन्होंने अक्तूबर 1956 में धर्म परिवर्तन किया और बौद्ध धर्म ग्रहण किया।
यहां पर डॉ राममनोहर लोहिया का नजरिया उनसे अलग है। डॉ लोहिया भी जाति प्रथा को खत्म करना चाहते थे लेकिन वे हिंदू धर्म त्यागने की सीमा तक नहीं गए। हालांकि वे नास्तिक थे और उन्हें सिर्फ हिंदू अस्मिता के दायरे में बांधना अन्याय होगा। फिर भी डॉ लोहिया का हिंदू धर्मदर्शन और उनके पौराणिक पात्रों से लगाव था। वे उनकी आलोचना भी करते थे लेकिन उनमें प्रेरक शक्ति भी देखते थे।
अगर ऐसा न होता तो वे राम, कृष्ण और शिव के चरित्र की व्याख्या करते हुए एक बेहद कल्पनाशील व्याख्यान न देते। न ही रामायण मेला के आयोजन के बहाने हिंदी समाज को परिवर्तन के लिए प्रेम से तैयार करने की योजना बनाते। वे वशिष्ठ और विश्वामित्र और द्रौपदी बनाम सावित्री की बहस भी चलाते थे। डॉ लोहिया भारतीय दर्शन के श्रेयस और प्रेयस की बात करते हैं ताकि स्वार्थ और लालच से ऊपर उठकर लोक कल्याण के लिए लगा जा सके। वे उपनिषदों से बहुत कुछ ग्रहण करने की कोशिश भी करते हैं। वैसे उपनिषद काल के बारे में डा भीमराव आंडेबडकर भी सकारात्मक हैं। वहां वे ज्ञान देखते हैं। लेकिन उन्हें मनुस्मृति की रचना और उसके प्रभाव के निर्मित होने वाले कालखंड में बड़ी बुराई दिखती है। यहीं पर वे स्त्रियों और शूद्रों के पतन की ढलान देखते हैं।
डॉ लोहिया को लगता था कि रोटी बेटी का रिश्ता कायम करने, आरक्षण देने और हिंदू धार्मिक प्रतीकों की नई व्याख्या से मामला सुलझ जाएगा और यह जातिव्यवस्था धीरे धीरे आधुनिकता के बोझ से दबकर टूट जाएगी। इसीलिए वे तुलसी और उनके रामचरितमानस के संदर्भ में मोती कूड़ा विवेक की बात करते हैं। उनका यह सिद्धांत बाकी अन्य ग्रंथों पर भी लागू किया जा सकता है। बल्कि इसे ज्ञान संबंधी विविध ग्रंथों पर लागू किया जा सकता है। इसका मतलब यह है कि मोती चुनते समय कूड़ा बीन लेना कोई जरूरी नहीं है और कूड़ा फेंकते समय मोती फेंकना आवश्यक नहीं। इसी को अंग्रेजी में कहते हैं कि डोन्ट थ्रो बेबी विथ द बाथ वाटर।
उधर महात्मा गांधी का मानना था कि डा आंबेडकर की तरह हिंदू धर्म दर्शन की कठोर आलोचना करने का रास्ता ठीक नहीं है। हिंदू धर्म दर्शन और जीवन पद्धति में बहुत कुछ अनुकरणीय है और कल्याणकारी है। यह बातें डा आंबेडकर की पुस्तक ‘जातिभेद का समूल नाश’ पर बहस के दौरान उनके लेखन में दिखाई पड़ती हैं। उसकी जाति प्रथा की बुराइयों से लड़ते समय उन्होंने सबसे पहले अस्पृश्यता को लक्ष्य किया था। वे उसे पूरी तरह से खत्म करने के बाद किसी और लड़ाई की ओर जाते। हालांकि डॉ आंबेडकर से बहस के दौरान वे लंबे समय तक चातुर्वर्ण्य को बचाते रहे और कहते रहे कि वह अपने में एक श्रेष्ठ व्यवस्था थी जो कालांतर में पतित हो गई। आज उसे फिर से शुद्ध करने की जरूरत है। लेकिन आखिर में उन्होंने भी वर्ण व्यवस्था से किनारा कर लिया। वे कहने लगे कि हमें सिर्फ एक वर्ण चाहिए। चूंकि वे विचारों को व्यवहार में जरूर लागू करते थे इसलिए उन्होंने सिर्फ उसी विवाह में जाने का फैसला किया जो अंतरजातीय हो और एक पक्ष अस्पृश्य हो तो और भी बढ़िया। इसीलिए वे अपने पुत्र जैसे प्रिय निजी सचिव महादेव देसाई के बेटे नारायण देसाई की शादी में नहीं गए। उनकी इसी बात पर टिप्पणी करते हुए डॉ आंबेडकर ने जब सविताबाई आंबेडकर से शादी की तो कनॉट प्लेस की रीगल बिल्डिंग के सामने प्यारेलाल से कहा कि आज अगर बापू होते तो बहुत खुश होते। यहां गांधी के लिए डॉ आंबेडकर द्वारा बापू शब्द का प्रयोग भी ध्यान देने लायक है। इससे पता चलता है कि सामाजिक परिवर्तन की राजनीति में जितनी तल्खी दिखाई पड़ती है हमारे पुरखे उसे निजी तौर पर नहीं रखते थे।
गांधी रामचरितमानस को अपना प्रेरक ग्रंथ मानते थे और गीता को मां कहते थे लेकिन यहां पर उनका एक कथन गौर करने लायक है।
वे कहते थे, “मैं समस्त हिंदू धर्मग्रंथों में विश्वास करता हूं लेकिन अपने विवेक के अनुसार उसमें परिवर्तन की छूट लेता हूं।‘’ यह गांधी का चालाकी भरा कथन भी कहा जा सकता है और बारीक रणनीति वाला भी। इसी को डॉ लोहिया के मोती कूड़ा विवेक के सिद्धांत से भी जोड़ा जा सकता है। यहीं पर गांधी का वह कथन भी अहम हो जाता है कि बृहदारण्यक उपनिषद का वाक्य-
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।
– सारे हिंदू धर्मग्रंथों पर भारी है। अगर सारे हिंदू धर्मग्रंथ नष्ट हो जाएं और यही एक पंक्ति बची रहे तो वे सभी की नए सिरे से रचना करवा सकते हैं।
यहां पर एक सवाल उठना लाजिमी है और वो यह कि क्या उत्तर प्रदेश और बिहार का दलित पिछड़ा नेतृत्व धार्मिक आख्यानों की नई व्याख्या करने वाले प्रतीकवाद के जरिए भाजपा के सांप्रदायिक और जातिवादी प्रतीकवाद से लड़ सकता है या उसका यह प्रयास उसी तरह से बेकार जाएगा जिस तरह से अतीत में मंडल के माध्यम से अयोध्या आंदोलन के प्रभाव से निपट पाने में सीमित कामयाबी के बाद आखिरकार विफलता हाथ लगी।
यहां यह बात समझ लेना जरूरी है कि भाजपा और संघ परिवार ने जाति और धर्म से खेलने का `नया कौशल’ हासिल किया है। उसने अपने सांप्रदायिक जातिवाद को भारतीय राष्ट्रवाद से नत्थी कर दिया है और फिर उसे पूंजीवाद के नए स्वरूप उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के बेस पर सजा दिया है। यह ऐसा पिज्जा है जो मध्यवर्ग को भी सुस्वादु लगता है और निम्न वर्ग को भी। उसका विरोध करने के लिए जो दृष्टि चाहिए वह या तो ऊपर की टापिंग में फंस कर थक जाती है या फिर बेस को काट नहीं पाती।
यह महज संयोग नहीं है कि मंदिर आंदोलन तब जोरशोर से शुरू हुआ जब अन्य पिछड़ी जातियों को मंडल के माध्यम से 27 प्रतिशत आरक्षण दिया गया। इसमें कोई दो राय नहीं कि मंदिर आंदोलन सवर्ण समाज की जलन को पहले बढ़ाने और फिर शांत करने के लिए किया गया। लेकिन ध्यान देने की बात है कि संघ परिवार इस जलन को अल्पसंख्यकों की ओर मोड़ना चाहता था और उसने वह काम कर दिया। इससे इस आंदोलन में सवर्णों के साथ पिछड़े भी जुड़े और दीर्घकाल में मंदिर आदोलन के भीतर मंडल आंदोलन समा गया। यही वजह है कि भाजपा ने कभी मंडल के आरक्षण का प्रत्यक्ष विरोध नहीं किया। इसी नाते उसे कभी मायावती तो कभी नीतीश कुमार तो कभी शरद यादव तो कभी रामविलास पासवान से गठजोड़ बनाने में आसानी हुई। इसी के कारण उसके साथ कल्याण सिंह, उमा भारती, शिवराज सिंह चौहान, केशव प्रसाद मौर्य और दूसरे पिछड़ा नेता कभी गठबंधन तो कभी विलय तो कभी पार्टी के झंडाबरदार बनते रहे। नरेंद्र मोदी उसी परिघटना के चरम हैं।
यह प्रतीकवाद संघ परिवार करता रहता है और उसी कड़ी में कभी रामनाथ कोविंद जैसे दलित नेता को राष्ट्रपति बना देता है तो कभी द्रौपदी मुर्मू जैसी आदिवासी महिला को। एक ओर वह दलित आंदोलन का हिंदूकरण करता है तो दूसरी ओर आदिवासियों के जल जंगल जमीन के सवालों वाले आंदोलनों को ठंडा करते हुए उनके हिंदूकरण और उन्हें वनवासी बताए जाने के सिद्धांत को मजबूती देता है।
इसी क्रम में वैश्वीकरण और उदारीकरण की प्रक्रिया को भी देखा जाना चाहिए। भाजपा और संघ परिवार का कथित स्वदेशी आंदोलन किसी प्रकार का स्वदेशी आर्थिक चिंतन नहीं है। वह एक मुखौटा है। जब उसके चहेते उद्योगपति किसी प्रकार की गड़बड़ी में फंसते हैं तब वह उस मुखौटे को लगा लेता है और जब उन्हें तरक्की(लूट) की जरूरत होती है तब वे उसे उतार कर फेंक देते हैं। निजीकरण की प्रक्रिया दलितों, पिछड़ों के आरक्षण को न सिर्फ बेअसर करती है बल्कि जनता और विभिन्न सामुदायिक समूहों के संसाधन को लूटती है जिसकी रक्षा के लिए वे लड़ते हैं।
ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या नीतीश कुमार, अखिलेश यादव और तेजस्वी यादव की ओर से शुरू हुई जातिजनगणना और सांप्रदायिक जातिवाद या ब्राह्मणवाद से लड़ने के लिए अपनाए गए प्रतीकवाद कुछ कारगर होंगे या वह भी हिंदुत्व के भीतर पहले की तरह समा जाएंगे? सवाल यह भी उठता है कि भारतीय समाज में उपजे चालाक और खतरनाक किस्म के प्रतिक्रियावाद से कैसे लड़ा जाए? उसके लिए डॉ आंबेडकर का तरीका कारगर है? डॉ लोहिया का तरीका कारगर है या फिर गांधी का तरीका? या फिर मार्क्सवादी तरीका जिसमें धर्म से कम से कम संवाद किया जाए और आर्थिक मुद्दों पर जोर दिया जाए।
जहां तक धर्म की बात है तो उससे पूरी तरह अलग होने की बात न तो डॉ आंबेडकर करते हैं, न गांधी और न ही लोहिया। अगर डॉ आंबेडकर कर रहे होते तो वे बौद्ध धर्म क्यों अपनाते और `बुद्ध और उनका धम्म’ जैसा ग्रंथ क्यों लिखते। इस बारे में डॉ लोहिया का एक कथन ज्यादा प्रासंगिक है जो धर्म और राजनीति के बीच एक रचनात्मक संवाद की बात करता है और कहता है कि धर्म अच्छाई की स्थापना करता है और राजनीति बुराई से लड़ती है। लेकिन किसी एक धर्म को किसी एक राजनीति से मिलाना ठीक नहीं है। इससे राजनीति कलही हो जाती है और धर्म अविवेकी। यही वजह है कि आज जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के मार्क्सवादी प्रोफेसर मणींद्र नाथ ठाकुर अपनी ताजा पुस्तक `ज्ञान की राजनीति’ में धर्म के साथ संवाद की बात करते हैं। उनकी इस पुस्तक में मोती कूड़ा विवेक का सिद्धांत भी ध्वनित होता है।
आज नीतीश कुमार और अखिलेश और उनके सहयोगी स्वामी प्रसाद मौर्य जो विमर्श चला रहे हैं उसके फायदे भी हैं और नुकसान भी। अगर वह काम आधी अधूरी तैयारी से किया जाएगा और इस लड़ाई के लिए समर्पित बौद्धिक और नेता नहीं तैयार किए जाएंगे तो उसका हश्र वही होगा जो पहले हुआ है। इसलिए यह सवाल लाजिमी है कि क्या उनकी तैयारी दक्षिण भारत के द्रविड़ आंदोलन जैसी है?
स्वामी धर्मतीर्थ ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक `हिस्ट्री आफ हिंदू इम्पीरियलिज्म’ में कहा भी है कि हिंदू धर्म के भीतर जातिव्यवस्था की असमानता दूर करने की जब जब कोशिश हुई है तो वह कोई न कोई नया रूप धर कर उसे खारिज कर देता रहा है या पचा लेता है। इस मामले में वे उत्तर प्रदेश और बिहार की स्थितियों में अंतर बताते हैं। उत्तर प्रदेश जिसे कांशीराम ब्राह्मण धर्म का पालना कहते थे और जहां अयोध्या, मथुरा और काशी जैसे तीर्थ स्थल संघ परिवार को काफी खाद पानी देने के लिए बैठे हैं वहां हिंदू धर्म की यह कोशिश आसान रही है जबकि बिहार जहां अवर्ण जातियों की बहुतायत है वहां मुश्किल रही है। लेकिन इसी के साथ यह भी सावधानी बरतनी होगी कि दलित और पिछड़ी जातियों के नेता यह काम किसी सनसनी और सत्ता की सौदेबाजी के लिए कर रहे हैं या फिर वास्तव में सत्ता और व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं?
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