— शर्मिला जालान —
राग विराग की ऋतु वसंत का आगमन है.खिड़की से दिखाई देता है रुद्र पलाश का पेड़. बंगभूमि में दहक रहे हैं टेसू के फूल जिनसे होली में रंग बनेंगे. इस आलम में सुबह-सुबह हफ़ीज़ जालंधरी की लिखी, मल्लिका पुखराज और ताहिरा सैयद की जुगलबंदी ‘लो फिर वसंत आई ,फूलों पे रंग लाई’ सुनने को मिली. मन तल्लीन हो गया. संगीत की महीन बारीक ध्वनियों में वे चीजें सुनाई देने लगीं जो महानगर के जीवन में आमतौर पर सुनाई नहीं पड़तीं. नज़्म सुनते हुए आसपास के संसार और प्रकृति से ज्यादा गहराई से जुड़ने के क्षण नसीब हुए. ध्यान लग गया. संगीत का ऐसा संयोजन है कि मन हटता नहीं.
मल्लिका को गाते हुए सुन ऐसा लगा मानो उनके गायन में एक से दूसरी चीज की उपज हुई है और दूसरी से तीसरी की. नज़्म से नृत्य दिखाई देता है और नृत्य में चित्रकला की शृंखला दिखाई देती है. उनके गायन का रूपांतरण किया जा सकता है नृत्य में और पेंटिंग में. कलाएँ कलाओं में रहती हैं, बुनी हुई, पिरोयी हुई. इस उल्लास भरे गायन को सुनना मधुर क्षणों में रहना है.
आगे जब हम फैज़ अहमद फैज़ की लिखी नज़्म मल्लिका की आवाज़ में सुनते हैं, एकल गायन तब वसंत और ढाक के पत्ते और पत्तों का मर्मर नहीं सुनते, देखते हैं उस क्षण दूसरा कोई नृत्य. एक अलग भाव संसार में ले जाती है ये नज़्म –
‘ये कौन सखी है
जिनके रूह की अशर्फियाँ
छन छन, छन छन
धरती की पैहम प्यासी
कशकोल में ढलती जाती है,
कशकोल को भारती जाती है
छन छन छन छन छन छन’
गायन में बढ़त होती है. मल्लिका के अंदर जो चित्रकला, जो नृत्य कला बह रही है, वह उनके गाए जाने वाले स्वरों में रूपांतरित होती है.
मल्लिका के गाए गीत को मैं पुराना नहीं मानती. मैं उसे समकालीन मानती हूँ. इनमें जो ताल, छंद है, गति, लय, क्रम और विन्यास है उसमें समय और काल बहता है. जैसे वह अपने आप में स्वायत्त हो. उसमें काल और स्पेस को हम देख पाते हैं. डिजिटलाइजेशन के इस युग में अति आधुनिक गाने आ गए हैं पर मल्लिका को सुनने का सुख अनिवर्चनीय है. कभी ऐसा भी लगता है ये नज्में गाथा है जिसमें पूरी एक ऋतु, पूरी एक अवस्था के चढ़ाव और ढलान को सुन और देख लेते हैं. मल्लिका के अपने अंदर जो जीवन के अनुभव और दर्द बह रहे हैं उसको वे रूपांतरित करती है अपने स्वरों में.
मुझे यह बात अनूठी लगती है कि नज़्मों के बोल शोख हैं पर वे गाई जाती है गंभीरता से. यानी यौवन का जो दुख और सुख है, खुरदुरापन और मुलायमियत है, चंचलता और अल्हड़पन है, उसे हम महसूस करते हैं. उनके गाए हर गीत में हम यह देखते हैं कि कमसिन यौवन को, संयोग और वियोग के चक्र को प्रौढ़ता से संभाला गया है. उनके अपने अंदर जो पीड़ा और करुणा है उसका आविष्कार है गाने में.
एक कला से दूसरी कला में गुजरना. एक कलाकार में सामर्थ्य होती है दूसरी कला को साधने की. उनको जब गाते हुए सुनते हैं तो लगता है कि वह संवाद भी है नृत्य कला और चित्रकला के साथ में और जब सबसे मशहूर नज़्म सुनते हैं उस वितान में तो उनके आवाज़ का वैभव देखते हैं.
‘अभी तो मैं जवान हूँ
इबादतों का ज़िक्र है
नजात की भी फ़िक्र है
जुनून है सवाब का
ख़याल है अज़ाब का’
हफीज जालंधरी की लिखी उपर्युक्त नज़्म में जादू है और जादू किया है मल्लिका ने. अपनी तरह की आवाज. पता नहीं कौन सी जटिल, गहरी, कठिन साधना है. चेहरे पर गजब की धीरता है, जीवन का सत और निचोड़ है. इस तरह का धैर्य और संयम गहरे अनुशासन से भी आता होगा. उनकी बेटियां उनके बारे में कहती हैं. वे बहुत अनुशासनप्रिय हैं. जीवन में जिस अनुशासन से बॅंधी हैं, वही अनुशासन गाने में भी दिखाई देता है. उनके अंदर एक आंतरिक लौ दिखाई देती है. जिससे वे आलोकित रहती हैं. मल्लिका ने इस नज़्म की मौज को इस तरह से व्यक्त किया है कि सुनने वाले को लगता है वह कोई ऐसे स्पेस में है जहाँ कोई पारंपरिक स्थल है जो मानवीय संबंधों की कोमलता की संभाले हुए है.
एक कोयला जो अंगारा बनता है और जिससे अंगीठी, घर का चूल्हा जलता है, एक अंगारा जिससे बीड़ी सुलगती है और उससे दिल और गुर्दे में जान आती है. उसी तरह से मल्लिका की गाई गजल जान फूँकती है.
हम जानते हैं कि कुछ दरख्तों में कोटर होते हैं जिसमें लोग अपने दिल की बात कह देते हैं और चिरकाल के लिए वह बात वहाँ पर खुद जाती है अमर हो जाती है. बाद में उन दरख्तों में से शाखा पर शाखा निकलती जाती है, शाखाओं का इंद्रधनुष सा बन जाता है. मल्लिका जब ‘अभी तो मैं जवान हूँ’ गाती हैं तो हम उसी दरख्तों के इन्द्रधनुष की रोशनी महसूस करते हैं. लगता है कोई लैंपपोस्ट है जिससे रोशनी की फुहार बरस रही है.
मल्लिका पुखराज के अंदर अपनी विरासत को बचाए रखने की भी गहरी चिंता थी. इसलिए उन्होंने अपनी एक बेटी को गायकी के लिए तैयार किया. ताहिरा के साथ अख्तर शीरानी की नज़्म ‘ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर’ जिसमें संबंधों की कोमलता को, उसके आवेग और उसके बिखराव को, उसके तनाव को व्यक्त किया गया है गाती हैं तो दोनों की जुगलबंदी सुनते हुए ऐसे मालूम पड़ता है कि क्षणांश में ही संयोग और विप्रलंभ की यात्रा कर ली. प्रेम और क्रंदन का गुम्फन है. करुणा का जन्म होता है लगता है सामने कोई पीर बैठा है.
‘ऐ इश्क़ हमें बर्बाद न कर
ऐ इश्क़ न छेड़ आ आ के हमें हम भूले हुओं को याद न कर
पहले ही बहुत नाशाद हैं हम तू और हमें नाशाद न कर
क़िस्मत का सितम ही कम नहीं कुछ ये ताज़ा सितम ईजाद न कर
यूँ ज़ुल्म न कर बे-दाद न कर’
हम जानते हैं कि अच्छी क्लासिक चीजें गुम होकर अफसाना बन जाती हैं पर यह नज़्म बदलते हुए वक्त में समय के कोटर में गुम नहीं है.
अपने इंटरव्यू में मल्लिका कहती हैं कि उन्हें दो घंटा भी खाली बैठना पसंद नहीं. या तो वे सॉफ्ट टॉयज बनाती हैं हाथ की बुनाई कसीदा का काम करती रहती हैं. जिस तरह से लगातार कसीदा करती हैं, उसी तरह से वे अपनी गाई ग़ज़लों में भी एक ऐसा संसार बुनती हैं जिनके सम्मोहन में हम आज भी हैं. जो कसीदा करती हैं, जो खिलौने बनाती हैं वह एक कला से दूसरे कलाओं में अंतरण करना है. बहना है.
मल्लिका पुखराज के जीवन को याद करें तो छह बच्चों के बावजूद अपने पति सय्यद शब्बीर हुसैन के असामयिक निधन के बाद वे एकाकी हो गईं. बागवानी, कढ़ाई सिलाई में उन्होंने अपने जीवन के बाकी दिन गुजारे. उनके बेटे ने भी जायदाद संबंधी मामलों में छल किया. शास्त्रीय गायन और ग़ज़ल से जुड़ी कलाकार, भारत और पाकिस्तान में अपनी गायकी से शोहरत हासिल करने वाली मल्लिका पुखराज (1912-2004) ने उर्दू में 80 की उम्र में आत्मकथा लिखी और 93 वर्ष की उम्र में उनकी मृत्यु हो गई। मल्लिका पुखराज की आत्मकथा स्वतंत्रतापूर्व भारत से होती हुई सदी के अंत तक फैली हुई है। मूल रूप से उर्दू में लिखी इस आत्मकथा का तर्जुमा ‘सॉन्ग संग ट्रू’ शीर्षक से सलीम किदवई ने अंग्रेजी में किया.
इन नज्मों को सुनते हुए लगता है सामने पीरों की सवारी जा रही है. उनकी आवाज़ का असर दूर-दिगंत तक व्याप्त है. इन नज़्मों के असर से टेसू के फूल अपनी पूरी शान में लहरा रहे हैं.