गांधीजी, गीता और श्रीमद् राजचंद्र जी

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— सुज्ञान मोदी —

गवत् गीता भारतीय वाङ्मय के सबसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में से एक है। महाभारत की रचना के बाद के जितने भी महान धर्मसाधक और संतपुरुष भारतवर्ष में हुए हैं, उन सबने कहीं-न-कहीं गीता का अवगाहन किया ही है। उन सबने आदरपूर्वक उसका स्मरण भी किया है। गांधीजी और विनोबा सरीखे कर्मयोगी संतों ने तो गीता को न केवल अपने जीवन का मुख्य मार्गदर्शक माना बल्कि उन्हें गीता माता की संज्ञा दी।

‘हरिजन’ पत्रिका के 24 अगस्त, 1934 के अंक में गांधीजी ने लिखा—“आज गीता मेरी बाइबल या कुरान ही नहीं, बल्कि उनसे भी ज्यादा है–वह मेरी माँ है। मुझे जन्म देने वाली अपनी लौकिक माँ को मैं बहुत पहले ही खो चुका हूँ। लेकिन इस शाश्वत माता ने तभी से मेरे निकट रहकर मेरी माँ के अभाव को पूरी तरह दूर किया है। यह कभी नहीं बदली है, उसने मुझे कभी निराश नहीं किया है। जब मैं कठिनाई या कष्ट में होता हूँ तो इसी की छाती से जा लगता हूँ।”

यहाँ यह उल्लेख करना बहुत सुखद है कि गांधीजी का जब श्रीमद् राजचंद्र जी के साथ सत्संग शुरू हुआ तो एक बार उन्होंने श्रीमद् से पूछा कि मुझे कौन-सा ग्रंथ पढ़ना चाहिए। इसपर श्रीमद् ने उन्हें अन्य ग्रंथों के साथ-साथ भगवत् गीता भी पढ़ने को कहा था। 5 नवंबर 1926 को जब गांधीजी ने श्रीमद् पर विस्तार से अपना संस्मरण लिखकर प्रकाशित किया तो उसमें उन्होंने इस बात का विशेष उल्लेख करते हुए लिखा—
“मुझे कौन-सी पुस्तकें पढ़नी चाहिए, इस प्रश्न के उत्तर में रायचंदभाई ने मेरी रुचि और मेरे बचपन के संस्कार को ध्यान में रखकर ‘गीता’ का अध्ययन करने के लिए कहा और प्रोत्साहित किया तथा दूसरी पुस्तकों में ‘पंचीकरण’, ‘मणिरत्नमाला’, ‘योगवासिष्ठ’ का वैराग्य प्रकरण, ‘काव्य दोहन’ पहला भाग और अपनी ‘मोक्ष माला’ पढ़ने का सुझाव दिया।”

युवा रायचंद भाई और युवा गांधी

आगे जब गांधीजी ने भी भगवत् गीता पर ‘अनासक्ति योग’ सहित अपने एकाधिक भाष्य लिखे तो उस दौरान उन्होंने श्रीमद् राजचंद्र को कई बार स्मरण किया है। गांधीजी, गीता और श्रीमद् राजचंद्र से संबंधित एक और सुंदर प्रसंग यह है कि गांधीजी ने दक्षिण अफ्रीका के डरबन शहर से जब श्रीमद् राजचंद्र जी को 1894 में एक विस्तृत पत्र लिखकर उनसे 27 आध्यात्मिक प्रश्न पूछे थे तो उसमें एक प्रश्न गीता के विषय में भी था। गांधीजी द्वारा पूछा गया दसवाँ प्रश्न था— ‘गीता किसने बनाई? ईश्वरकृत तो नहीं है? यदि वैसा हो तो उसका कोई प्रमाण है?’ श्रीमद् ने 20 अक्टूबर, 1894 को बंबई से इस प्रश्न के उत्तर में लिखा—

“उपर्युक्त उत्तरों से कुछ समाधान हो सकने योग्य है कि ‘ईश्वर’ का अर्थ ज्ञानी (सम्पूर्णज्ञानी) ऐसा करने से वह ईश्वरकृत हो सकती है, परंतु नित्य अक्रिय ऐसे आकाश की तरह व्यापक ईश्वर को स्वीकार करने पर वैसी पुस्तक आदि की उत्पत्ति होना सम्भव नहीं है, क्योंकि यह तो साधारण कार्य है कि जिसका कर्तृत्व आरंभपूर्वक होता है, अनादि नहीं होता। गीता वेदव्यास जी की बनायी हुई पुस्तक मानी जाती है और महात्मा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को वैसा बोध किया था, इसलिए मुख्यरूप से कर्त्ता श्रीकृष्ण कहे जाते हैं, जो बात सम्भव है। ग्रन्थ श्रेष्ठ है, ऐसा भावार्थ अनादि से चला आता है; परंतु वे ही श्लोक अनादि से चले आते हों, ऐसा होना योग्य नहीं है; तथा निष्क्रिय ईश्वर से भी उसकी उत्पत्ति हो, यह सम्भव नहीं है। सक्रिय अर्थात् किसी देहधारी से वह क्रिया होने योग्य है। इसलिए सम्पूर्णज्ञानी वही ईश्वर है, और उसके द्वारा उपदिष्ट शास्त्र ईश्वरीय शास्त्र है, ऐसा मानने में कोई बाधा नहीं है।”

ऐसा लगता है कि भगवत् गीता के द्वितीय अध्याय में आए स्थितप्रज्ञ की महिमा वाले प्रकरण से श्रीमद् प्रभावित थे, क्योंकि ऐसे समत्व की सत्यानुभूति उन्हें स्वयं हो रही थी। संवत् 1948 में श्रावण सुदी 4 को एक पत्र में श्रीमद् जी भगवत् गीता से ही उद्धृत करते हुए लिख रहे हैं— “आत्मप्रदेश-समस्थिति से नमस्कार! जिसमें जगत सोता है उसमें ज्ञानी जागता है। जिसमें ज्ञानी जागता है उसमें जगत सोता है। जिसमें जगत जागता है उसमें ज्ञानी सोता है। — ऐसा श्रीकृष्ण कहते हैं।”

भगवत् गीता का मूल श्लोक इस प्रकार है—
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः॥
(भग्वद्गीता, अध्याय-2, श्लोक- 69)

ठीक इसी से मिलते-जुलते श्लोक और वाक्य आचारांग-सूत्र और परमात्म प्रकाश में भी आए हैं। आचार्य योगीन्दु अथवा योगीन्द्रदेव रचित परमात्म प्रकाश में इसे इस रूप में कहा गया है—
जा णिसि सयलहं देहियह, जोग्गिउ तहिं जग्गेइ।
जहि पुणु जग्गइ सयल जगु, सा णिसि सणिवि सुवेई॥
(परमात्म प्रकाश 2-47)

वास्तव में तो सभी संतों की सत्यानुभूति एक जैसी ही रही है, क्योंकि सत्य तो एक ही है। श्रीमद् और गांधीजी के भगवत् गीता पर हुए सत्संग के प्रसंग सत्य साधकों के लिए अत्यंत प्रेरक और मार्गदर्शक रूप हैं।

सत्पुरुषों का योगबल जगत का कल्याण करे प्रभु!

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