— अरविन्द मोहन —
जन्म के क्रम और तारीख के हिसाब से तो मणिलाल, गांधी के दूसरे पुत्र थे, लेकिन गांधी को जीवन में उतारने और उनके मूल्यों के अनुसार जीने की कोशिश करने में वे नम्बर एक ही थे। खुद को गांधी के दक्षिण अफ्रीका के कामों को सँभालने और बढ़ाने में लगा देने के चलते हम हिन्दुस्तानी लोग उनके काम और नेतृत्व से वंचित हो गये वरना पूरा न सही एक और सच्चा गांधी हमें मिल गया होता। मणिलाल जी के ऊपर गांधी का व्यक्तित्व इस कदर हावी रहा कि वे बहुत कुछ आगे बढ़कर करने से बचते भी थे। और आखिर में उनका अंत भी बहुत जल्दबाजी में हो गया। पर जिस तरह का काम उन्होंने किया और जैसा जीवन जिया उससे गांधी के सबके पक्के और बड़े अनुयायी साबित होते हैं। हरिलाल के बागी बनने से भी यह पद उन्हें मिला।
मणिलाल तब निरे बालक थे जब गांधी कस्तूरबा के साथ बाकी सबको लेकर दक्षिण अफ्रीका गये और उनको विरोध झेलना पड़ा, पिटाई सहनी पड़ी। बालक मणिलाल पर इसका असर पड़ा होगा। सो शुरू से वे गांधी के सोलह आना अनुयायी बने और गांधी ने जिस-जिस तरह की कसौटी पर उनको कसा वे खरे उतरे। हरिलाल के विपरीत उन्होंने कभी स्कूली पढ़ाई नहीं की और न उनमें बड़े भाई की तरह डिग्री और ऊँची नौकरी की तरस थी। बापू की पढ़ाई और बाल विकास के सारे प्रयोग उनपर हुए। और स्वास्थ्य तथा खानपान का प्रयोग भी उन्होंने झेला। गम्भीर बीमार पड़ने पर गांधी ने डॉक्टरी सलाह के अनुसार मांस का शोरबा और दूसरी चीजें देने की जगह मिट्टी और पानी के इलाज का जो प्रयोग आजमाया वह मणिलाल पर ही हुआ। और अपनी आत्मकथा में गांधी ने स्वीकार किया कि उनकी जिद के चलते मणिलाल का जीवन सचमुच संकट में पड़ गया था और ईश्वर ने ही उसे बचाकर मेरी लाज रखी। पर उस वक्त भी मणिलाल बापू का इलाज ही कराने के पक्ष में थे। मणिलाल ने गांधी के सत्याग्रहों के साथ शरीर श्रम और उत्पादक कामों वाले प्रयोगों में भी हिस्सा लिया, कई भाषाएँ सीखीं और इण्डियन ओपिनियन के सभी चारों संस्करणों के बुनियादी काम सीखे। इनमें कम्पोजिंग, मशीन चलाना और अखबार का बंडल बनाकर वितरित करना भी शामिल है।
मणिलाल गांधी के साथ ही स्वदेश लौटे तब ठीकठाक समझ वाला युवा थे। पर 1916 की एक घटना ने उनकी और गांधी के जीवन की दिशा में महत्त्वपूर्ण बदलाव कर दिया। तब हरिलाल के बारे में तय हुआ था कि वे अपने मामा के साथ व्यापार में हाथ आजमाएँगे और परिवार लेकर कलकत्ता में रहेंगे। मणिलाल के जिम्मे अपनी भाभी और बच्चों को कलकत्ता पहुँचाने का जिम्मा मिला। पहुँचाने के बाद उन्होंने नयी गृहस्थी के लिए बड़े भाई को पाँच सौ रुपये अपनी तरफ से दे दिये। आज की तारीख तक किसी को यह साफ जवाब नहीं मालूम कि वे पैसे कहाँ से आये थे क्योंकि बापू की नाराजगी देखकर मणिलाल ने जीवन भर इस बारे में मुँह नहीं खोला और हरिलाल की बात पर किसी को भरोसा न था। गांधी को लगा कि यह सार्वजनिक धन की चोरी का मामला है। ज्यादा सम्भावना इस बात की है कि यह पैसा मणिलाल की अपनी कमाई का था क्योंकि तब टालस्टाय आश्रम में काम करने वालों को रहने-खाने के ऊपर पाँच रुपये की वृत्ति मिलती थी और मणिलाल यह खर्च नहीं करते थे।
गांधी का मानना था कि पैसे जहाँ से भी आए यह सार्वजनिक चोरी है और कायदे से इसकी जानकारी पहले दी जानी चाहिए थी। अगर ये पैसे बचे थे तो इसे आश्रम को या काँग्रेस को दान दे देते, इस तरह भाई को क्यों दिया। बापू का रुख देखकर मणिलाल की जान सूख गयी। वे एक ही चिन्ता से मरने लगे कि कहीं बापू मेरे इस ‘अपराध’ के प्रायश्चित्त के लिए उपवास न शुरू कर दें। सो वे हर सजा मानकर इस स्थिति को टालने का प्रयास करते रहे। बापू ने उन्हें कोचरब आश्रम से निकालने का फैसला कर लिया तो उन्होंने राहत की साँस ली। उन्होंने रो-रोकर अपना बुरा हाल कर लिया था और बापू को मुश्किल से राजी किया कि वे अनशन नहीं करेंगे। बापू के हाँ करने पर वे बहुत खुश हुए। उनको दक्षिण भारत भेजा गया जिसके लिए रेल टिकट का पैसा भी गांधी ने बड़ी मुश्किल से दिया। वे एक बुनकर परिवार में रहे, कताई और बुनाई सीख लिया।
तभी दक्षिण भारत के कामों में एक इमरजेंसी आयी। जो सज्जन ‘इण्डियन ओपिनियन’ निकालते थे अपना प्रेस लगा लिया और अखबार कई तरह के नुकसान के बाद बन्द होने जैसी स्थिति में आ गया था। गांधी के भारत लौट आने के बाद आश्रमों की गतिविधियाँ वैसे ही सीमित हो गयी थीं लेकिन अखबार जीवन की डोर बने हुए थे। अगर वह भी बन्द हो जाते तो गांधी, दक्षिण अफ्रीका के हिन्दुस्तानियों और गोरी सत्ता के प्रतिरोध के इतिहास का एक अध्याय ही छुप जाता। गांधी ने आपात प्रबन्ध के नाम पर मणिलाल को वहां भेजा और यह उनके लिए जीवन भर का फैसला बन गया। उन्होंने न सिर्फ इण्डियन ओपिनियन का हर काम सँभाल लिया बल्कि पैसों का रिसाव भी रोक दिया और भले अखबार घाटे में ही रहा लेकिन अब अखबार का चलना बंद होने का खतरा खत्म हो गया। बापू का निर्देश बाद तक आता रहा जिससे अखबार के संचालन में मदद मिली और लोगों की बेहतर पहचान होने तथा स्वार्थ से मुक्त काम करने के चलते मणिलाल ने वहाँ अच्छी टीम भी बना ली।
थोड़े समय बाद उन्होंने आश्रम के कामकाज का दायरा बढ़ाना शुरू किया और एक अर्थ में बापू के ऊपर लगने वाले आरोप के दाग को भी धो दिया। गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में गोरी हुकूमत से लोहा लिया, अपने सत्याग्रह का सफल प्रयोग करके उसे झुकाया लेकिन उनके आन्दोलन का विषय मोटे तौर पर हिन्दुस्तानी समाज के दुख-दर्द ही थे। मणिलाल ने उसे दक्षिण अफ्रीकी समाज पर हर तरह के अत्याचार, जिसमें रंगभेद और नस्लवाद प्रमुख था, के विरोध तक पहुँचाया। और शुरू में तो नीग्रो समर्थक रैलियों में उन्होंने अकेले भी भागीदारी की जो जल्द ही हिन्दुस्तानी समाज के प्रति समर्थन में बदली। उन्होंने आश्रम के स्कूलों में अश्वेत बच्चों को दाखिला देने का फैसला कराया। और अश्वेत आन्दोलनों की भागीदारी में एक सीमा से ज्यादा आगे न जाने का उनका फैसला इसलिए भी था कि वे गांधी को राष्ट्रीय आन्दोलन से इतर किसी और काम में उलझाना नहीं चाहते थे। लेकिन निजी तौर पर उन्होंने हर उस कानून को चुनौती देना जारी रखा जिसे वे भेदभावपूर्ण मानते थे। जिस जगह गोरों के अलावा किसी और को आने या बैठने की अनुमति न थी वहाँ जाकर वे जरूर बैठा करते थे, जिस तट पर अश्वेतों के आने की मनाही थी, वहाँ जरूर जाते थे। शुरुआती सख्ती के बाद भी जब उन्होंने अपना विरोध बन्द न किया तो गोरी हुकूमत ने उनके कानून तोड़ने की तरफ से आँख मूँदना शुरू किया। नाटाल कांग्रेस में इस सवाल पर विरोध रहा। लेकिन मणिलाल जी ने ज्यादा से ज्यादा सवालों पर अश्वेतों का साथ देकर गांधी के आन्दोलन की एक कमजोरी को दूर किया।
1927 में उनकी शादी सुशीला मश्रुवाला से हुई जो गांधी के अनन्य सहयोगी किशोऱलाल मश्रुवाला परिवार की थीं और गांधी के आन्दोलन के तौर-तरीकों से वाकिफ थीं। उनका साथ मिलने का मतलब मणिलाल के काम का ज्यादा व्यवस्थित और विस्तृत होना भी साबित हुआ। शादी के बाद वे हिन्दुस्तान में भी रहे और उन्होंने दाण्डी कूच में भी हिस्सा लिया। वे धरासणा के उस विख्यात सत्याग्रह में भी शामिल रहे जिसमें अँग्रेजी राज की क्रूरता और सत्याग्रहियों की बहादुरी दुनियाभर में चर्चित हुई। उनको गिरफ्तार किया गया और पन्द्रह महीने की सजा हुई। गांधी-इरविन समझौते से उनकी रिहाई कुछ पहले हो गयी। इसके बाद वे दक्षिण अफ्रीका लौटे तो फीनिक्स आश्रम पर ध्यान दिया और उसे सचमुच चमका दिया। वहाँ स्कूल और अस्पताल बना जो सभी के लिए खुले थे। इस दौर में वे एक और बड़ा काम करना चाहते थे लेकिन न कर पाये। वे ‘इण्डियन ओपिनियन’ अखबार के नाम में से ‘इण्डियन’ शब्द हटाना चाहते थे।
मणिलाल 1945 में तीन महीने के लिए भारत आए थे और ज्यादातर समय गांधी के आश्रम में ही बिताया। वे अपने स्वभाव से भी कम बोलने वाले थे और इस बार गांधी के आसपास की गतिविधियाँ और मुल्क की राजनीति की दिशा देखकर और कम बोल रहे थे। सो कई लोगों ने तो उनको बोलते हुए सुना ही नहीं। वे अक्सर बापू कुटी के आसपास बैठे प्रार्थना करते थे। सो कई उन्हें मौनी बाबा जैसा मानने लगे। लेकिन लोगों की जबरदस्त परख वाले मणिलाल ने गांधी से कहा कि बापू आपके आसपास अच्छे लोग कम हैं। उनको इन लोगों की मंशा पर भी शक रहा। कहना न होगा कि बँटवारा और सत्ता हस्तान्तरण के समय गांधी को भी इसी बात का एहसास हुआ और उन्होंने सवा सौ साल जीने की अपनी प्रसिद्ध इच्छा भी छोड़ दी। मणिलाल को दक्षिण अफ्रीका में ही 1956 में लकवा का दौरा हुआ और गलत इलाज से चीजें और बिगड़ गयीं। मार्च में उनको लकवा हुआ था और 15 अप्रैल को उन्होंने आखिरी साँस ली। मणिलाल के परिवार से तुषार गांधी आज सामाजिक जीवन और लेखन में काफी सक्रिय हैं जो उनके एकमात्र बेटे हैं।
(लेखक की पुस्तक ‘गांधी कथा’ से)