— योगेन्द्र यादव —
मैं बीबीसी सुनते हुए बड़ा हुआ। घर में नियम था कि रोज शाम 8 बजे खाना होता था। साथ में रेडियो पर बीबीसी हिंदी सर्विस की खबर और विश्लेषण को सुना जाता था। ओंकारनाथ श्रीवास्तव खबर पढ़ते थे, रत्नाकर भारतीय विश्लेषण करते थे और दिल्ली से मार्क टली खबर भेजते थे। राजस्थान के एक छोटे-से सीमावर्ती शहर श्रीगंगानगर में रहने के बावजूद वर्षों तक हर शाम बीबीसी सुनने के कारण देश और दुनिया से कटा हुआ महसूस नहीं किया। बीबीसी के चलते बचपन में ही समसामयिक विषयों पर राय बनाना सीखा, चाहे मामला वियतनाम युद्ध का हो या फिर बांग्लादेश का, चाहे वाटरगेट घोटाला हो या फिर जयप्रकाश आंदोलन हो।
मुझे याद है इमरजेंसी के अंधकारमय दिनों में बीबीसी की खबर सच का एकमात्र प्रकाश होती थी। आकाशवाणी बीस सूत्री कार्यक्रम की सफलता का सरकारी मिथ्या प्रचार करती थी। अखबार इंदिरा गांधी के सामने बिछे रहते थे। सिर्फ बीबीसी से पता चलता था कि इमरजेंसी के विरोध में देश और दुनिया में क्या किया और बोला जा रहा था।
जाहिर है इंदिरा गांधी की सरकार बीबीसी की इस भूमिका से बौखलाई रहती थी। इंदिरा गांधी ने एक बार नहीं दो बार बीबीसी को भारत से बैन किया। मार्क टुली को देशनिकाला दे दिया। लेकिन ध्वनि तरंगों से आने वाले बीबीसी के सच को इंदिरा गांधी रोक ना पायीं।
उसी बीबीसी ने इंदिरा गांधी की हार की खबर देश तक पहुंचाई। जिस दिन 1977 के ऐतिहासिक चुनाव में वोट की गिनती हो रही थी उस दिन देर शाम तक आकाशवाणी केवल आंध्र प्रदेश में कांग्रेस की बढ़त की खबर दे रही थी। पहली बार बीबीसी ने खबर दी कि पूरे उत्तर भारत में कांग्रेस हार रही है और खुद संजय गांधी और इंदिरा गांधी भी अपने चुनाव क्षेत्र में पिछड़ रहे हैं। बीबीसी ने ही ऑपरेशन ब्लू स्टार का सच देश के सामने रखा। विधि की विडंबना देखिए कि उसी बीबीसी ने इंदिरा गांधी की मृत्यु की प्रामाणिक सूचना सबसे पहले दुनिया को दी।
बीबीसी की खबर भले ही लंदन से ब्रॉडकास्ट की जाती थी लेकिन उसमें विदेशी होने की बू नहीं थी। ब्रिटिश राजनीति की खींचतान और पश्चिमी देशों के काले कारनामों पर उतनी ही खुलकर चर्चा होती थी जितनी भारतीय राजनीति पर। शहरी बुद्धिजीवियों में ही नहीं गांव देहात की चौपाल में भी बीबीसी को सच की कसौटी माना जाता रहा है।
टीवी युग आने के बाद बीबीसी का जलवा कुछ कम हुआ है, लेकिन पूरी दुनिया में उसकी प्रतिष्ठा बरकरार रही है। एक बार नहीं अनेकों बार बीबीसी ने ब्रिटेन की सत्ताधारी पार्टी, ब्रिटिश सरकार और यहां तक कि ब्रिटेन के हितों को दरकिनार करते हुए स्वतंत्र खबरें प्रसारित कीं। ब्रिटेन और अर्जेंटीना के बीच हुए फौकलैंड युद्ध के दौरान बीबीसी ने ब्रिटिश फौज की तरफदारी करने से इनकार कर दिया और ब्रिटेन की संसद तक में उसपर देशद्रोह के आरोप लगे। बीबीसी के डायरेक्टर ने अनेकों बार ब्रिटेन के प्रधानमंत्री से खुलकर असहमति व्यक्ति की। इस इतिहास के आधार पर बीबीसी ने अपनी प्रतिष्ठा बनाई और बचाई है।
जैसे इंदिरा गांधी की सरकार ने बीबीसी पर हाथ डाला था वैसे ही आज मोदी सरकार ने बीबीसी के खिलाफ कार्रवाई की है।
इनकम टैक्स नियमों के उल्लंघन का बहाना बनाकर बीबीसी के दिल्ली और मुंबई दफ्तर पर धावा बोला गया। तीन दिन तक वहां सरकारी अफसर बैठे रहे, बीबीसी पत्रकारों के फोन बंद कर दिए गए, उनके लैपटॉप और कंपनी के सभी कंप्यूटरों का मुआयना किया गया। सरकारी प्रवक्ता मासूमियत से कहते हैं कि बीबीसी पर “छापा” नहीं मारा गया है, केवल उनका “सर्वे” किया जा रहा है। लेकिन बच्चा बच्चा जानता है कि मोदी सरकार बीबीसी से बदला ले रही है। प्रधानमंत्री को खुंदक इस बात की है कि बीबीसी ने पिछले महीने गुजरात के 2002 के दंगों में मुसलमानों के कत्लेआम के बारे में एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म दिखाई है जिससे तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल उठते हैं।
पत्रकारों के तमाम स्वतंत्र संगठनों, प्रेस क्लब ऑफ इंडिया और संपादकों की शीर्षस्थ संस्था एडिटर्स गिल्ड ने बीबीसी पर की गई कार्रवाई को देश में स्वतंत्र पत्रकारिता का गला घोंटने की एक और मिसाल बताया है। दुनिया भर के मीडिया ने इस घटनाक्रम पर टिप्पणी की है, भारत में मीडिया की स्वतंत्रता खत्म होने पर चिंता व्यक्त की है। नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से दुनिया में मीडिया की स्वतंत्रता के मामले में भारत 130वें पायदान से फिसलकर अब 152 पर लुढ़क गया है।
सरकारी और दरबारी लोग अब पलटकर बीबीसी पर आरोप लगा रहे हैं, उसे साम्राज्यवाद का एजेंट बता रहे हैं भारत की राजनीति में विदेशी हाथ का खतरा दिखा रहे हैं। ठीक वैसे ही जैसे इमरजेंसी से पहले और उसके दौरान इंदिरा गांधी के दरबारी हर छोटी बड़ी बात में विदेशी हाथ ढूंढ़ा करते थे। जाहिर है बीबीसी पर यह हमला प्रधानमंत्री की शह के बिना नहीं हो सकता। विडंबना यह है कि खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2013 में कह चुके हैं कि जनता आकाशवाणी और दूरदर्शन के बजाय बीबीसी पर भरोसा करती रही है।
सवाल यह है कि क्या सरकार इतनी बौखला गई है कि वह सच को पूरी तरह से बंद करने की मुहिम में जुटी है? क्या इमरजेंसी के विरुद्ध भूमिगत होकर काम करने वाले कार्यकर्ता नरेंद्र मोदी बीबीसी की आवाज बंद करने की नाकाम कोशिश के सबक भूल गए हैं?