एक रिपोर्ट के मुताबिक, अगले 27 वर्षों में भारत धान की पैदावार के लिए उपयुक्त करीब 450,000 वर्ग किलोमीटर भूमि खो सकता है.
1 मार्च. देश में शायद ही कोई घर होगा जहां चावल न बनता हो। लेकिन क्या आप जानते हैं कि अगले 27 वर्षों में भारत धान की पैदावार के लिए उपयुक्त करीब 450,000 वर्ग किलोमीटर भूमि खो सकता है। इसके लिए कहीं न कहीं जलवायु में आता बदलाव जिम्मेवार है।
देखा जाए तो इससे उत्पादन और खाद्य सुरक्षा के साथ-साथ किसानों पर भी व्यापक प्रभाव पड़ेगा। यह जानकारी मैकेंजी एंड कंपनी द्वारा जारी नई रिपोर्ट में सामने आई है। रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि 2050 तक भारत के 95 फीसदी छोटे किसान सूखा, बाढ़ और भीषण गर्मी जैसी किसी न किसी औसतन एक जलवायु आपदा का शिकार होंगे।
रिपोर्ट में जो आंकड़े साझा किए गए हैं उनके अनुसार 2050 तक देश के करीब 85 फीसदी छोटे किसानों पर सूखे का खतरा मंडरा रहा है। वहीं यदि नदियों में आने वाली बाढ़ की बात करें तो 74 फीसदी छोटे किसानों के लिए एक खतरा है।
इसी तरह बढ़ते तापमान के साथ आने वाले समय में आशंका है कि 81 फीसदी छोटे किसान भीषण गर्मी की चपेट में होंगे। वहीं तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि के साथ नौ फीसदी छोटे किसानों पर तटीय बाढ़ का खतरा मंडराने लगेगा।
रिपोर्ट के मुताबिक यह छोटे किसान कृषि से होने वाले करीब 32 फीसदी ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए जिम्मेवार हैं। वहीं दूसरी तरफ हाशिये पर जीवन बिता रहे यह किसान जलवायु में आते इन बदलावों से सबसे ज्यादा जोखिम में हैं।
जलवायु परिवर्तन से बचाव के लिए कृषि क्षेत्र में जरूरी है अनुकूलन
जलवायु परिवर्तन का कहर किस तरह से कृषि पर हावी है इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि इसके चलते 1961 के बाद से वैश्विक स्तर पर कृषि उत्पादन में पहले ही 21 फीसदी की गिरावट आ चुकी है।
वहीं आशंका है कि बढ़ते तापमान के साथ यह गिरावट कहीं ज्यादा बढ़ सकती है। गौरतलब है कि जलवायु वैज्ञानिकों ने 2050 तक तापमान में दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने की आशंका व्यक्त की है।
यदि इससे बचने के लिए उपाय न किए गए तो पैदावार में भारी कमी आ सकती है। उदहारण के लिए बढ़ते तापमान के साथ अफ्रीका में मक्का, चावल और गेहूं जैसी मुख्य फसलों के लिए कीटों के कारण होने वाला नुकसान 50 फीसदी तक बढ़ सकता है।
ऐसे में मैकेंजी ने अपनी रिसर्च में 30 से अधिक उपायों की पहचान की है जो छोटे किसानों को जलवायु परिवर्तन के अनुकूल बनाने और उसके प्रभावों को कम करने के लिए किसान अपना सकते हैं।
इनमें कृषि उत्पादन से जुड़ी प्रथाओं से लेकर, भूमि उपयोग में बदलाव और पैदावार के बाद होने वाले नुकसान को कम करने से जुड़े उपयोग को भी शामिल किया गया है। इन उपायों में क्लाइमेट स्मार्ट एग्रीकल्चर, कृषि वानिकी से लेकर उर्वरकों के उपयोग में कमी करना तक शामिल है।
गौरतलब है कि इसको ध्यान में रखते हुए भारत ने वर्ष 2014 में राष्ट्रीय कृषि वानिकी नीति जारी की थी। देखा जाए तो जलवायु परिवर्तन को कम करने और छोटे किसानों को इसका मुकाबला करने के काबिल बनाने के लिए इस तरह की योजना शुरू करने वाला भारत पहला देश है।
देखा जाए तो यह छोटे किसान वैश्विक खाद्य सुरक्षा के लिए भी बहुत मायने रखते हैं, क्योंकि छोटी जोत वाले खेत दुनिया का एक-तिहाई भोजन उत्पादित करते हैं। वहीं अनुमान है कि 2050 तक वैश्विक खाद्य मांग में 60 फीसदी की वृद्धि हो सकती है।
ऐसे में इन जलवायु अनुकूलन और शमन संबंधित उपायों को अपनाकर दुनिया के 51 करोड़ छोटे किसान जलवायु संबंधी खतरों से अपनी जीविका और पोषण की रक्षा कर सकते हैं। साथ ही कृषि क्षेत्र से होते उत्सर्जन को भी सीमित किया जा सकता है जो जलवायु परिवर्तन के दृष्टिकोण से भी फायदेमंद होगा।
– ललित मौर्य
(डाउन टु अर्थ से साभार)