— एड आराधना भार्गव —
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस यानी समान काम के लिए समान वेतन, काम के समान घंटे और मताधिकार की मांग से शुरू होने वाला यह प्रतीक दिवस हर साल महिला सशक्तीकरण के लिए नवीन और अतिरिक्त प्रयास के लिए प्रेरित करता है. तीन मार्च को हाथरस प्रकरण का फैसला आ गया जिसमें हाथरस काण्ड में प्रशासनिक लापरवाही स्पष्ट तौर से दिखाई दी. मेडिकल परीक्षण पर कई सवाल उठ रहे हैं. अगर समय रहते उत्तर प्रदेश की सरकार पीड़िता के साथ खड़ी रहती तो आज सारे अपराधी जेल की सलाखों के पीछे रहते. समय रहते थाने में पीड़िता की काउंसलिंग की जाती, उसका मेडिकल परीक्षण समय पर किया जाता तो बलात्कारी जेल की सींखचों से बाहर हो ही नहीं सकते थे. समय रहते पीड़िता के गुप्तांग की जांच हो जाती तथा उसके कपडे़ जब्त हो जाते तो अपराधी छूट ही नहीं सकते थे. पीड़ित महिला दलित समाज से थी जिसके शरीर में इतनी चोटें थीं कि वह बेहोशी की हालत में थी और उसे इलाज के लिए दिल्ली सफदरजंग अस्पताल में भर्ती कराया गया था. घटना की रिपोर्ट प्रार्थी के बेहोश होने के कारण भाई ने लिखाई थी.
होश में आने के बाद प्रार्थी ने उसके साथ क्या क्या घटना घटी और किस किस ने उसके साथ क्या क्या अपराध किया है यह भी बताया. घटना के आठ दिन बाद तो बलात्कार के सारे सबूत मिटा दिए गए. अस्पताल में सफाई की दृष्टि से कई बार कपडे़ बदल दिए गए. प्रार्थी ने, जिसके शरीर पर गंभीर चोटें थीं, मृत्यु पूर्व बयान तथा पुलिस के समक्ष बयान देते समय बयान में कुछ बदलाव हो सकता है, यह सामान्य सी बात है कि एक स्वस्थ्य व्यक्ति भी एक घटना को अनेक लोगों को बताता है तो उसमें कुछ न कुछ फर्क अवश्य होता है.
हाथरस की घटना इस बात को सोचने पर भी हमें मजबूर करती है कि जिस महिला को इतनी गंभीर चोटें पहुंचाई गई हों तथा उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया गया हो उसकी मानसिक दशा कैसी होगी? उसके साथ अगर पुलिसवालों का तथा जॉंच करने वालों का व्यवहार अपराधियों की तरह होगा तो ऐसे ही नतीजे होंगे. प्रार्थी शारीरिक और मानसिक तौर पर भी डरी-सहमी होने के कारण बीमार थी. उसके साथ शासन तथा प्रशासन के लोगों को मानवता के आधार पर व्यवहार करना था. पीड़िता से मृत्यु-पूर्व बयान लेते समय अधिकारी को ऐसे प्रश्न पूछने चाहिए थे जिससे पीड़िता को भय नहीं सुरक्षा का अहसास होता. पूरे मामले को अगर हम घटना की तारीख श से फैसले की तारीख तक सिलसिलेवार देखें तो हम सबको यह एहसास होगा कि शासन-प्रशासन पीड़ित महिला के साथ न खड़ा होकर दूसरी तरफ खड़ा दिखाई दिया. बात सिर्फ इतनी सी थी कि एक दलित महिला ने यह सन्देश दिया था कि उसके शरीर पर उसका पूरा अधिकार है।
उस सन्देश को शासन प्रशासन समाज और न्यायपालिका ने नकार दिया और आरोपी बलात्कार के अपराध से बरी हो गए!
हाथरस की घटना के बाद समाजसेवियों, पत्रकारों, राजनीतिक दलों के लोगों को हाथरस जाने पर रोक लगा दी गई थी. पीड़िता तथा पीड़िता के परिवार के लोगों से बात करना तो दूर, मिल भी नहीं सकते थे.केरल के पत्रकार कप्पन को तो हाथरस जाने के पहले ही गिरफ्तार कर लिया तथा जेल के अंदर डाल दिया. कई महीने बाद उन्हें जमानत पर रिहा किया गया. सरकार ने घटना के समय पीड़िता के परिवार को आर्थिक मदद करने, निवास के लिए मकान देने तथा परिवार के जीविकोपार्जन के लिए एक व्यक्ति को सरकारी नौकरी देने की घोषणा की थी. बलात्कार के आरोपियों को बरी कराकर सरकार ने शायद महिलाओं को यह सन्देश दिया कि अपने शरीर पर अपने अधिकार की बात करोगी तो इसी तरह रात में मिट्टी के तेल डलवाकर जिलाधीश द्वारा तुम्हें खत्म कर दिया जाएगा, वरना गलत तरीके से जांच करने तथा अपराधियों को बचाने वालों के खिलाफ सरकार कोई वैधानिक कार्रवाई करती तथा पीड़िता को निवास के लिए मकान और सरकारी नौकरी देकर देश और दुनिया के सामने यह सन्देश देती कि वह अपराधियों के साथ नहीं देश की बेटियों के साथ खड़ी है.
सरकार की दृष्टि में महिलाएँ महज वोटबैंक की वस्तु हैं. मध्यप्रदेश की सरकार चुनाव में महिलाओं के बल पर अपनी नैया पार लगाना चाहती है. मप्र सरकार ने लाडली बहना योजना लांच करके बहनों से कहा कि कोई दलाल रुपये मांगे तो 181 पर फोन कर देना. मंत्री जी शायद यह नहीं जानते कि पहले तो 181 पर कोई फोन नहीं उठाएगा और अगर उठा लिया तो बार-बार फोन करके यह कहा जाएगा कि अपनी शिकायत वापस ले लो, समस्या का निदान हो गया है. मप्र सरकार हर माह महिलाओं को 1000 रु.देगी. प्रदेश में कितनी महिलाओं को यह पैसा मिल पाएगा? क्या गरीब महिला 1000 रु. प्रतिमाह प्राप्त कर पाएगी, या वे बड़ी बिल्डिंगों वाले लोग, जिन्होंने सांठगांठ करके अपना नाम गरीबी रेखा की सूची में दर्ज करा लिया है, उन परिवारों की महिलाओं को ही इस योजना का लाभ मिल पाएगा?
जो फॉर्म भरने की जटिल प्रक्रिया है वह तो गरीब महिलाओं के बस का नहीं है. फिर देश की 53 फीसद महिलाएँ तो प्रतिदिन घर से बाहर ही नहीं निकल पाती हैं, उन पर घरेलू काम का बोझ इतना रहता है. प्रदेश की किसी भी महिला ने सरकार से 1000 रु. लेने की मांग नहीं की क्योंकि रसोई गैस का सिलेंडर ही 1100 रु में आ रहा है. अगर महिलाओं को सशक्त ही करना था तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर घोषणा कर देते कि भारतीय जनता पार्टी विधानसभा चुनाव में महिलाओं को 50 फीसद आरक्षण देकर उन्हें विधानसभा में पहुंचाकर प्रदेश में निर्णय लेने वाली भूमिका में पहुंचाएगी.
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर देश की महिलाएँ प्रधानमंत्री तथा मुख्यमंत्री से यह प्रश्न करती हैं कि निर्णय की मेज पर पहुंचने में अथवा सड़क या घरों से संसद तक पहुंचने में और कितने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस लगेंगे? निर्भया प्रकरण या उससे भी अधिक गंभीर प्रकृति का अपराध हाथरस काण्ड की दलित पीड़िता के साथ किया गया. जांच अधिकारी सत्ताधीशों के इशारे पर जांच करते रहे. नतीजा आपके, हमारे, देश की बेटियों के सामने है. निर्भया काण्ड में छाया शर्मा जैसी जांच अधिकारी नहीं होती तो अपराधियों को सजा दिलाना दूर की कौड़ी होती, अपराधियों को पकड़ा जाना भी संभव नहीं होता. निर्भया काण्ड में निर्भया का अंतिम संस्कार निर्भया के माता-पिता की उपस्थिति में किया गया तथा जांच अधिकारी पर कोई दबाव नहीं डाला गया, स्वतंत्र ढंग से उन्हें जांच करने दिया गया, मेडिकल रिपोर्ट में भी किसी प्रकार की हेराफेरी नहीं की गई.
हाथरस काण्ड में भी अगर छाया शर्मा जैसी संवेदनशील महिला ऑफिसर जांच कर रही होती तो जांच का नतीजा निर्भया मामले जैसा ही आता. जब जब इस प्रकरण में सीबीआई जांच की मांग की गई तब तब राज्यपुलिस द्वारा प्रकरण के सबूत मिटा दिए गए. सबूत मिट जाने के पश्चात सीबीआई जांच भी कोई महत्त्व नहीं रखती. अगर सरकार देश की महिलाओं के साथ खड़ी होती तो अव्वल तो जांच अधिकारी, मृत्यु पूर्व बयान लेने वाले आफिसर की जिम्मेदारी महिला को देती, क्योंकि बलात्कार के प्रकरण में जब कोई पुरुष उससे प्रश्न करता है तो पीड़िता को लगता है की उसके साथ दुबारा बलात्कार हो रहा है, पीड़िता बोलने में भी संकोच करती है. निर्णय देते समय न्यायाधीश को भी महिला की मानसिक स्थिति और परिस्थितियों पर भी अपनी न्यायिक दृष्टि डालना पड़ेगी, क्योंकि देश में हर तीन मिनट में एक महिला बलात्कार का शिकार हो रही है. अगर इसी तरह बलात्कारी तकनीकी आधार पर बरी किये जाएंगे तो देश की बेटियाँ किस तरह सुरक्षित होंगी?
जब तक इस देश की बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं, अंतरराष्ट्रीय महिल दिवस एक मखौल मालूम पड़ता है!