भय के बीच अभय का एक प्रसंग

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कार्टून साभार


— विवेक मेहता —

डवाणी जी, अरे वही प्राइम मिनिस्टर इन वेटिंग वाले ने कभी आपातकाल के संदर्भ में कहा था- झुकने का बोला गया था, वे तो रेंगने लगे। शायद उनका चरित्र है। अब शायद रेंगने का बोला गया तो बताते हैं, तलवे चाट रहे हैं।

जेएनयू,जामिया मिलिया या कोई भी विश्वविद्यालय ले लीजिए। ज्यादातर में जुगाड़ बिठाकर मुख्य पोस्ट पर बैठे अपने लोग एक तरफ तलवे चाटते हैं तो दूसरी तरफ छात्रों पर अपना रौद्र रूप झाड़ते हैं। उन लोगों को आत्मसम्मान, जिम्मेदारी, नैतिकता से भरा यह किस्सा शायद ही पसंद आए, जो एक अध्यापक को एक अलग ही ऊंचाई पर पहुंचाता है।

किस्सा है श्री एस.बी. जून्नारकर से संबंधित। इनकी अप्लाइड मैकेनिक्स, मैकेनिक्स आफ स्ट्रक्चर और थियरी आफ स्ट्रक्चर पढ़े बिना पुरानी पीढ़ी सिविल इंजीनियर नहीं बनी होंगी।

आजादी के बाद भीखाभाई, आणंद(गुजरात) में इंजीनियरिंग कॉलेज शुरू कर रहे थे। उन्होंने श्री जून्नारकर को कराची से बुलाया और बिरला विश्वकर्मा महाविद्यालय का फाउंडर प्रिंसिपल बनाया। इस चक्कर में जून्नारकर साहब का वेतन भी कम हो गया। जब कालेज का निर्माण कार्य चालू था तब तक वे 10’×10′ के एक कमरे में अपने परिवार के साथ रहकर निर्माण कार्य की देखरेख करते रहे। यह स्थिति जून 1948 में कालेज चालू होने तक रही। उनके दादा जूनागढ़ के दीवान भी रहे।

बाद में कॉलेज में एक कार्यक्रम के लिए वृहद मुंबई राज्य के मुख्यमंत्री श्री मोरारजीभाई देसाई को आमंत्रित किया गया। गुजरात तब उस राज्य का भाग था। बतंगड़ का किस्सा उसी का हिस्सा है।

मोरारजीभाई अपने साथ कार्यक्रम में निर्माण विभाग के एक मंत्री को भी लाए। मोरारजी ने प्रासंगिक भाषण दिया। भाषण के बाद छात्रों को प्रश्नोत्तर के लिए आमंत्रित किया। यह कहकर कि निर्भयता से, खुले मन से छात्र प्रश्न पूछ सकते हैं। प्रश्न राजनीति से संबंधित हो तो भी कोई परेशानी नहीं।

राजनीतिक लोगों के लिए निर्भयता, सापेक्ष रूप में होती है। यह जानकारी कम उम्र के छात्रों को कैसे हो सकती थी? जबकि आपको और हमको भी अभी तक नहीं है।

एक छात्र ने सवाल किया- ‘आपके साथ बैठे मंत्री, निर्माण कार्य में भ्रष्टाचार कर पैसे बना रहे हैं। क्या आपकी जानकारी में है?

सवाल सुनकर मोरारजी गुस्से से बोले- ‘तुम क्या बोल रहे हो? तुम्हें जिम्मेदारी का भास है?’

यह सुनकर श्रोताओं में बैठी अर्थशास्त्र की प्रोफेसर डॉक्टर आलु बहन दस्तूर ने विद्यार्थी का बचाव किया। गुजराती मोरारजी भाई का गुस्सा आसमान पर था। उन्होंने ऊंचे स्वर में प्रश्न किया- ‘क्या यह तुम्हारा पुत्र है?’

डॉक्टर दस्तूर अविवाहित थीं। इस प्रश्न को सुनकर दूसरे प्रोफेसर डॉक्टर आर.डी. पटेल खड़े हो गए। बोले- ‘यह हमारे सहयोगी कालेज में प्रोफेसर हैं। हर एक छात्र को पुत्र की तरह प्यार करती हैं। आपने छात्रों को किसी भी प्रकार के प्रश्न पूछने की छूट दी थी। अखबारों में प्रकाशित समाचार के आधार पर ही छात्र ने यह प्रश्न पूछ कर कोई अशिष्टता नहीं की है।’

जिद्दी मोरारजी का गुस्सा अब सातवें आसमान पर पहुंच गया था। अपनी आदत के अनुसार वे गरजकर बोले – ‘बेजवाबदार विद्यार्थी और अशिष्ट प्रोफेसरों को यहां से बाहर निकालो। विद्यार्थियों को क्या यही संस्कार दिए जाते हैं?’
सभा में सन्नाटा छा गया।

बतंगड़ की बात तो उसके बाद हुई। उसका असर आज के दो-चार तथाकथित बुद्धिजीवियों पर भी हो जाए तो- ‘पर उपदेश कुशल बहुतेरे’ की जरूरत नहीं पड़े।

विद्यालय के प्राचार्य जून्नारकर खड़े हुए। दृढ़, संतुलित आवाज में बोले- ‘आदरणीय मुख्यमंत्री जी, छात्र ने कोई भी अशिष्ट व्यवहार नहीं किया है। यहां ‘अभय’ बनने की शिक्षा दी जाती है। आपकी आज्ञा के बाद छात्र ने प्रश्न किया था। प्रश्न से आप असहज हो गए। मैं इस संस्था में प्राचार्य हूं। मेरे विद्यार्थियों का सम्मान बना रहे यह देखना मेरा कर्तव्य है। मैं अब आपको आगे बोलने से नम्रतापूर्वक मना करता हूं। सभा को समाप्त करता हूं।’

जून्नारकर साहब की कोई फाइल नहीं थी। ब्लैकमेल संभव नहीं था। तब उत्तर प्रदेश में, असम में किसी की भावना भी आहत नहीं हुई थी। ना कोई केस बना। विद्यार्थियों के बीच उनकी इज्जत बढ़ी। वे बाद में बड़ौदा में भी रहे। 29 अक्टूबर 1954 को जब वे 60 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त हुए तो उनके छात्रों ने सम्मानस्वरूप 27,751 रुपये की धनराशि भेंट की। उस समय यह बहुत बड़ी रकम थी।

शायद इस तरीके की घटना के बाद से ही विद्यार्थी से प्रश्नोत्तरी रिहर्सल के बाद करने की सावधानी बरती जाती हैं। या फिर मन की बात से काम चला लिया जाता है।

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