— श्रवण गर्ग —
सूरत की सेशन्स कोर्ट द्वारा राहुल गांधी को दी गई जमानत और सजा के निलंबन की खबर के बाद कांग्रेस को कितने उत्साह के साथ राहत की सांस लेनी चाहिए? जमानत को ही राहत के लिए पर्याप्त मान लेना चाहिए या निचली अदालत द्वारा सुनाई गई सजा के खिलाफ दायर अर्जी के निपटारे तक उत्साह पर रोक लगाकर खामोश रहना चाहिए? कहा जा सकता है कि सूरत एपिसोड की निर्णायक शुरुआत अब हुई है!
तेरह अप्रैल को सजा पर स्टे के लिए दायर अर्जी और तीन मई को सजा के खिलाफ दायर अर्जी पर सुनवाई होगी। तब तक के लिए देश का राजनीतिक सस्पेंस बना रहने वाला है। लोकसभा सदस्यता की बहाली के लिए सजा पर स्टे जरूरी है। अपनी सजा के खिलाफ दायर अर्जी में राहुल गांधी ने जो तर्क कोर्ट के समक्ष प्रस्तुत किए हैं उसका एक-एक शब्द झकझोर देने वाला है।
सूरत की निचली अदालत द्वारा तेईस मार्च को सुनाई गई सजा के बाद से चले घटनाक्रम से कांग्रेस और भाजपा के दो अघोषित ओपिनियन पोल्स संपन्न हो गए हैं ! कांग्रेस के लिए यह कि राहुल के खिलाफ हो सकने वाले किसी अदालती फैसले अथवा राजनीतिक विद्वेष की कार्रवाई की देश की जनता, बाहरी मुल्क और विपक्षी दलों पर किस तरह की प्रतिक्रिया हो सकती है ! भाजपा के लिए यह कि विपक्ष के एक प्रभावशाली नेता के खिलाफ होने वाली कार्रवाई प्रधानमंत्री की व्यक्तिगत छवि और पार्टी के वोट बैंक को कितनी क्षति पहुँचा सकती है?
इस सवाल का कोई भी ईमानदार जवाब राहुल गांधी ही दे सकते हैं कि सूरत में जो कार्रवाई तीन अप्रैल को की गई वह 24 या 27 मार्च को ही क्यों नहीं हो सकती थी?
देश को ग्यारह दिनों तक संशय में क्या भाजपा के इस प्रचार-प्रहार की प्रतीक्षा में रखा गया कि फैसले को चुनौती देने के तमाम कानूनी दरवाजे खुले होने के बावजूद राहुल गांधी ‘विक्टिम कार्ड’ खेल कर वोटों की राजनीति करना चाह रहे हैं, या फिर कोई और कारण था?
एक कारण यह हो सकता है कि राहुल गांधी दो-तीन अप्रैल के पहले तक तय नहीं कर पा रहे हों कि उन्हें किसकी सलाह मानकर अंतिम निर्णय लेना चाहिए? निचली अदालत की सजा के खिलाफ अपील में हुए विलंब से अब यह संदेश अवश्य जा सकता है कि महत्त्वपूर्ण मसलों पर भी कांग्रेस अंदर से एकमत नहीं है। ऐसा मानकर चलने से राहुल गांधी की कोई अवमानना भी नहीं हो जाएगी कि जिस तरह की सहानुभूति उन्होंने सजा सुनाए जाने और लोकसभा की सदस्यता से निष्कासन के बाद देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्राप्त की थी न सिर्फ उसमें ही बल्कि उनकी अविस्मरणीय ‘भारत जोड़ो यात्रा’ की उपलब्धियों में भी पार्टी के असमंजस और उनकी लीगल टीम की कमजोरियों ने सेंध लगा दी !
यह एक हकीकत है कि जैसे-जैसे दिन बीत रहे थे आगे की कानूनी कार्रवाई को लेकर कांग्रेस का अंदरूनी संकट उजागर होता जा रहा था। पार्टी के कार्यकर्ताओं को भी नेतृत्व के असली इरादे पता नहीं चल पा रहे थे। ऐसा भी मानकर चला जा रहा था कि राहुल शायद अपील न भी करें, तीस दिनों की मियाद खत्म होने के अंतिम दिनों में करें या फिर जेल में प्रवेश करने के बाद ही इस दिशा में कोई कदम उठाएं !
इस सवाल का उत्तर किसी आगे की तारीख के लिए सुरक्षित रखा जा सकता है कि क्या पार्टी के किसी प्रभावशाली खेमे के दबाव के चलते ही राहुल को आगे की कानूनी कार्रवाई के लिए राजी होना पड़ा? कांग्रेस के एक तबके का ऐसा सोच भी रहा है कि चाहे कुछ समय के लिए ही सही, राहुल को एक बार तो जेल अवश्य जाना चाहिए। ऐसा हो जाने से कांग्रेस एक राष्ट्रीय पार्टी के रूप में ज्यादा आक्रामक बनकर प्रकट होगी ! पार्टी की अंदरूनी लड़ाइयाँ भी बंद हो जाएँगी और वह एक होकर भाजपा से मुकाबले के लिए जुट जाएगी।
दूसरी ओर, राहुल की अनुपस्थिति में विपक्षी दल भी आपसी एकता के प्रयास ज्यादा ईमानदारी से करेंगे! विपक्षी नेताओं को सरकार की मुखालिफत के लिए राहुल की मौजूदगी की अहमियत भी तब ज्यादा संजीदगी से समझ आएगी। जनता भी सरकार के खिलाफ हरकत में आने लगेगी! सबसे बड़ी उपलब्धि यह कि भाजपा प्रतिरक्षात्मक मुद्रा में आ जाएगी!
समूचे घटनाक्रम से जो एक बात स्पष्ट नजर आती है वह यह कि राहुल गांधी को लेकर भाजपा में खासा भय व्याप्त हो गया है। राहुल अगर अपनी सूरत यात्रा कुछ दिनों के लिए टाल देते या वहाँ जाते ही नहीं तो भाजपा के सामने उत्पन्न होने वाली चुनौतियों की केवल कल्पना ही की जा सकती है।
कहा जा सकता है कि राहुल गांधी के सूरत पहुँचकर जमानत प्राप्त कर लेने से कांग्रेस के मुकाबले भाजपा ने ज्यादा राहत महसूस की होगी। भाजपा समझ गई है कि राहुल गांधी का कुछ दिनों के लिए भी जेल जाना उसका पूरा चुनावी एजेंडा बदल सकता है। राहुल गांधी कांग्रेस के पक्ष में 1980 का इतिहास दोहरा सकते हैं। सूरत की निचली अदालत के फैसले के बाद राहुल गांधी ने सरकार की ओर अंगुली उठाते हुए कहा भी था : ‘आपने विपक्ष के हाथों में एक बड़ा हथियार दे दिया है।’
लोकतंत्र की नियति से जुड़े इस संयोग के गूढ़ कोड को कोई तपस्वी मनोवैज्ञानिक अथवा महान वास्तु विशेषज्ञ ही तोड़ सकता है कि रामनवमी के पवित्र अवसर पर जब देश के कुछ भाग सांप्रदायिक दंगों में झुलस रहे थे, राहुल गांधी असमंजस में पड़े हुए थे कि उन्हें सूरत जाना चाहिए अथवा नहीं, प्रधानमंत्री तीस मार्च की शाम लोकसभा स्पीकर के साथ निर्माणाधीन नये संसद भवन के काम की प्रगति की जानकारी प्राप्त कर रहे थे। मुमकिन है सत्तारूढ़ दल और संघ के ही कुछ सहृदय शुभचिंतकों ने भी इसी दौरान राहुल गांधी को कहलवाया हो कि उनका जेल से बाहर रहना बेहद जरूरी है और उन्हें सूरत अवश्य जाना चाहिए।