एक अर्थशास्त्री के रूप में अलक्षित रहे बाबासाहेब

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शैलेन्द्र चौहान


— शैलेन्द्र चौहान —

र्थशास्त्री के रूप में बाबासाहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर के योगदान की ओर बहुत कम विद्वानों का ध्यान गया है। प्रायः लोग उन्हें संविधान निर्माता के रूप में जानते हैं। यह भी जानते हैं कि दलितों के उद्धार के लिए उन्होंने अनथक संघर्ष किया। उसके लिए अनेक समकालीन नेताओं की आलोचनाएं सहीं। वे अपने समय के सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मगर विवादित नेताओं में रहे। उनकी विद्वत्ता विरोधियों को पस्त करने वाली थी। वस्तुतः राजनीति और समाज सुधार के क्षेत्र में उनका योगदान इतना महान एवं युगांतरकारी है कि उनके जीवन के बाकी पहलुओं तक लोगों की नजर जा ही नहीं पाती। यहां तक कि दलित विद्वानों का लेखन भी उनके सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में योगदान तक सिमटा रहा है।

अर्थशास्त्री के रूप में आंबेडकर के योगदान को केवल एक लेख या लेखांश से आंकना असंभव है। अपने एक व्याख्यान में प्रख्यात अर्थशास्त्री श्रीनिवास अंबीराजन ने अर्थशास्त्र के क्षेत्र से राजनीति और कानून के क्षेत्र में अंतरण को अर्थशास्त्र की भारी क्षति बताया था। उनके अनुसार अगर वे राजनीति और समाज सुधार के क्षेत्र में नहीं आते तो दुनियाभर में दिग्गज अर्थशास्त्री के रूप में स्थान पाते।

इस बात में काफी सचाई भी है। 1947 आते-आते राजनीतिक क्षेत्र में डॉ आंबेडकर की व्यस्तता काफी बढ़ गयी थी। लेकिन उन दिनों भी उनका मन अर्थशास्त्र के क्षेत्र में छूटे हुए काम को आगे बढ़ाने का था। उसी वर्ष ‘प्रॉब्लम ऑफ रुपी’ के संशोधित संस्करण की भूमिका में उन्होंने अर्थशास्त्र के क्षेत्र में 1923 के बाद हुए बदलावों को लेकर पुस्तक का दूसरा खंड यथाशीघ्र तैयार करने का आश्वासन दिया था। मगर आजादी के बाद राजनीतिक जिम्मेदारियां बढ़ने की वजह से वे छूटे हुए कार्य को पूरा नहीं कर सके। अर्थशास्त्र आंबेडकर का सर्वाधिक प्रिय विषय था।

कोलंबिया विश्वविद्यालय में अध्ययन करते समय उनके पास कुल 29 विषय ऐसे थे, जिनका सीधा संबंध अर्थशास्त्र से थाथा। वहां से उन्होंने ‘इवोल्यूशन ऑफ पब्लिक फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ विषय में पीएचडी की डिग्री प्राप्त की थी। आगे चलकर लंदन स्कूल ऑफ इकॉनामिक्स से उन्होंने ‘प्राब्लम ऑफ रुपया : इट्स ओरिजिन एंड इट्स सोल्यूशन’ विषय पर डीएससी की डिग्री हेतु शोध प्रबंध लिखा। उस ग्रंथ की भूमिका महान अर्थशास्त्री एडविन केनन ने लिखी थी। अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनकी विद्वत्ता का अनुमान लगाने के लिए अमर्त्य सेन की टिप्पणी भी मददगार सिद्ध हो सकती है।

2007 में दिए गए एक व्याख्यान में अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आंबेडकर की अहमियत को स्वीकार करते हुए अमर्त्य सेन ने कहा था—‘आंबेडकर अर्थशास्त्र के क्षेत्र में मेरे आदर्श हैं। वे दलितों-शोषितों के सच्चे और जाने-माने महानायक हैं। उन्हें आजतक जो भी मान-सम्मान मिला है वे उससे कहीं ज्यादा के अधिकारी हैं।…अर्थशास्त्र के क्षेत्र में उनका योगदान बेहद शानदार है। उसके लिए उन्हें सदैव याद रखा जाएगा।’

अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आंबेडकर के योगदान की चर्चा करने से पहले इस विषय में उनकी प्रतिष्ठा को दर्शाने वाली एक और घटना का उल्लेख प्रासंगिक होगा। 1930 का दशक पूरे विश्व बाजार में भीषण मंदी लेकर आया था। ब्रिटिश सरकार के सामने भी गंभीर चुनौतियां थीं, खासकर उपनिवेशों में जहां आजादी की मांग जोर पकड़ती जा रही थी, वहां औपनिवेशिक सरकार की पकड़ को बनाए रखने के लिए स्थानीय समस्याओं का समाधान आवश्यक था। समस्याओं के मूल में कुछ वैश्विक मंदी का हाथ था और कुछ स्थानीय रोजगारों के उजड़ जाने से उत्पन्न मंदी का।

इसलिए अगस्त 1925 में ब्रिटिश सरकार ने भारत की मुद्रा प्रणाली का अध्ययन करने के लिए ‘रॉयल कमीशन ऑन इंडियन करेंसी एंड फाइनेंस’ का गठन किया था। इस आयोग की बैठक में हिस्सा लेने के लिए जिन 40 विद्वानों को आमंत्रित किया गया था, उनमें आंबेडकर भी थे। वे जब आयोग के समक्ष उपस्थित हुए तो वहां मौजूद प्रत्येक सदस्य के हाथ में उनकी लिखी पुस्तक ‘इवोल्यूशन ऑफ पब्लिक फाइनेंस इन ब्रिटिश इंडिया’ की प्रतियां थीं। बात यहीं खत्म नहीं होती। उस आयोग ने अपनी रिपोर्ट 1926 में प्रकाशित की थी। उसकी अनुशंसाओं के आधार पर कुछ वर्षों बाद ‘भारतीय रिजर्व बैंक’ की स्थापना हुई। इस बैंक की अभिकल्पना, नियमानुदेश, कार्यशैली और रूपरेखा आंबेडकर की शोध पुस्तक ‘प्राब्लम ऑफ रुपी’ पर आधारित है। उस समय तक उनका मुख्य लेखन अर्थशास्त्र जैसे गंभीर विषय को लेकर ही था। मात्र 27 वर्ष की उम्र में उन्हें मुंबई के एक कॉलिज में राजनीतिक अर्थशास्त्र के प्रोफेसर की नौकरी मिल चुकी थी। अध्यापन के अलावा वे विषय से संबंधित सैकड़ों लेख और व्याख्यान दे चुके थे। एक सभा में विद्यार्थियों के बीच पढ़े गए उनके लेख ‘रेस्पांसिबिलिटी ऑफ रेस्पांसिबिल गवर्नमेंट’ की प्रशंसा उस समय के महान राजनीति विज्ञानी, चिंतक हेराल्ड लॉस्की ने भी की थी। लॉस्की का कहना था कि ‘लेख में आए आंबेडकर के विचार क्रांतिकारी स्वरूप’ के हैं।

अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आंबेडकर के योगदान को और गहराई से समझने के लिए प्राचीन भारत की मुद्रा विनिमय प्रणाली के बारे में जानना आवश्यक है।

1893 तक भारत में केवल चांदी के सिक्कों का प्रयोग किया जाता था। 1841 में स्वर्ण मुद्रा का उपयोग भी होने लगा था। चांदी के सिक्के का मूल्य उसमें उपलब्ध चांदी के द्रव्यमान से आंका जाता था। इस तरह एक स्वर्णमुद्रा का मूल्य 15 चांदी के सिक्कों के बराबर था। 1853 में आस्ट्रेलिया और अमेरिका में स्वर्ण-भंडार मिलने से सोने की आमद बढ़ी। उसके बाद स्वर्ण-मुद्राओं में विनिमय का प्रचलन बढ़ने लगा। हालांकि उसका विधिवत चलन 1873 के बाद ही संभव हो पाया। लगभग उसी समय चांदी के नए भंडार मिलने से उसकी आमद भी बढ़ने लगी, परंतु भारत में स्वर्ण उत्पादन में अपेक्षित वृद्धि नहीं हो पायी थी। परिणामस्वरूप स्वर्ण-मुद्रा के मुकाबले भारतीय रजत-मुद्रा का निरंतर अवमूल्यन होने लगा। उस खाई को पाटने के लिए अधिक मात्रा में रजत-मुद्राएं ढाली जाने लगीं।

लेकिन वह समस्या का अस्थायी समाधान था। दूसरे, उससे उन व्यक्तियों के लेन-देन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ने वाला था जो केवल रजत-मुद्रा का इस्तेमाल करते थे। जनसामान्य के लिए वह प्रतिकूल स्थिति थी। मुद्रा का अवमूल्यन होने से महंगाई में वृद्धि हुई थी। जबकि आय ज्यों की त्यों बनी हुई थी। आंतरिक स्तर पर उससे प्रत्येक वर्ग को घाटा हो रहा था. 1872 से लेकर 1893 तक यही हालात बने रहे। आखिर 1893 में सरकार ने रजत-मुद्रा ढालने का काम अपने नियंत्रण में ले लिया। उस समय तक मुद्राओं का मूल्यांकन उनमें उपलब्ध धातु की मात्रा से आंका जाता था। 1899 में सरकार ने एक समिति का गठन किया, जिसने स्वर्ण-स्टैंडर्ड के स्थान पर स्वर्ण-मुद्रा के उपयोग की सलाह दी थी। तदनुसार मुद्रा का मूल्यांकन उसमें उपलब्ध धातु-मूल्य के बजाय सरकार द्वारा अधिकृत मूल्य जितना आंका जाने लगा। सरकार ने रजत-मुद्रा का मूल्य 1 शिलिंग, 4 पेंस के बराबर कर दिया। नए नियम के अनुसार स्वर्ण-मुद्रा का मूल्य लगभग स्थिर था। उसके मूल्यांकन का अधिकार सीधे ब्रिटिश सरकार के अधीन था, जबकि रजत-मुद्रा के मूल्य-नियंत्रण के लिए उस समय तक कोई व्यवस्था न थी।

मुद्राओं के मूल्यांकन को लेकर आंबेडकर का दृष्टिकोण मानवीय था। कल्याणकारी अर्थशास्त्रियों से मिलता हुआ। उनका कहना था कि लोगों के लिए मुद्रा का वास्तविक मूल्य उसके बदले मिलने वाली आवश्यक वस्तुओं से तय होता है। सोना बेशकीमती हो सकता है लेकिन वह आदमी की सामान्य जरूरतों को पूरा नहीं कर सकता। वह न तो किसी भूखे का पेट भर सकता है, न ही उससे किसी नंगे तन को ढका जा सकता है। यदि एक रजत-मुद्रा से उन्हें जरूरत की सभी चीजें प्राप्त हो जाती हैं, तो उन्हें स्वर्ण-मुद्रा की दरकार न होगी। इसके लिए मुद्रा का भरोसेमंद होने के साथ-साथ विनिमय प्रणाली में स्थायित्व भी जरूरी है।

मुद्रा के प्रति जनता का अविश्वास तथा उसकी मूल्य-अस्थिरता आर्थिक संकट को जन्म देती है। रजत-मुद्रा के उतार-चढ़ाव को देखते हुए आंबेडकर ने स्वर्ण-मुद्रा को अपनाने का सुझाव दिया; तथा एक रजत-मुद्रा का मूल्य एक शिलिंग तथा छह पैंस रखने की सलाह दी। उनकी अधिकांश अनुशंसाओं को सरकार ने ज्यों की त्यों अपना लिया था। उन्हीं के आधार पर आगे चलकर भारतीय रिजर्व बैंक की मूलभूत सैद्धांतिकी का विकास हुआ।

अर्थशास्त्र संबंधी अपने ज्ञान के आधार पर आंबेडकर एडम स्मिथ और डेविड रिकार्डो जैसे क्लासिकल अर्थशास्त्रियों की कतार में खड़े नजर आते हैं।

आगे चलकर राजनीति और समाज सुधार के क्षेत्र में उन्होंने जो काम किया, उसके आधार पर हम उनके अर्थशास्त्र संबंधी सिद्धांतों की तुलना इटली के विचारक विलफर्ड परेतो से करते हैं। परेतो ने यूरोपीय समाज में व्याप्त असमानताओं का गहरा अध्ययन किया था। उसका मानना था कि शीर्ष पर मौजूद अल्पसंख्यक अभिजन समूह अपने बुद्धि-चातुर्य द्वारा बहुसंख्यक समूह को छोटे-छोटे समूहों में बांटे रखता है। इस तरह संगठित अल्पसंख्यक अभिजन के आगे असंगठित बहुजन की शक्ति नगण्य हो जाती है।

‘कल्याणकारी अर्थशास्त्र’ के क्षेत्र में ‘परेतो दक्षता तुल्यांक’ की चर्चा लगभग सभी आधुनिक अर्थशास्त्री करते आए हैं। परेतो को स्पर्धात्मक उत्पादन प्रणाली से कोई शिकायत न थी लेकिन वह चाहता था कि सरकार समाजार्थिक समानता की स्थापना के दायित्व को समझे तथा उसके लिए समयानुसार आवश्यक कदम उठाती रहे। उसके अनुसार स्पर्धात्मक अर्थव्यवस्था में लाभार्जन की दर संतोषजनक बनी रहती है। न्याय-भावना के साथ काम करने वाली सरकार उस लाभ का एक हिस्सा जरूरतमंदों तक पहुंचाकर असमानता की खाई को पाटते रहने का काम कर सकती है। परेतो के शब्दों में—‘समाज में किसी एक नागरिक के साथ निकृष्टतम किए बिना, कम से कम किसी एक नागरिक के साथ श्रेष्ठतम किया जा सकता है।’ आंबेडकर को भी मशीनों और स्पर्धात्मक उत्पादन व्यवस्था से कोई शिकायत न थी लेकिन वे चाहते थे कि सभी प्रमुख और आधारभूत उद्योग सरकार के अधीन हों।

आंबेडकर मानते थे कि आर्थिक सुधार की कोई भी योजना बिना भूमि सुधार के असंभव है। इसके लिए उन्होंने बड़े भू-स्वामियों की आय को आयकर के दायरे में लाने का सुझाव दिया था।

1946 में अखिल भारतीय स्तर पर भूमि सुधार की आवश्यकता पर जोर देते हुए उन्होंने कहा कि भूमि वितरण में असमानता के कारण समाज के बड़े हिस्से को बहुत छोटी जोतों से काम चलाना पड़ता है. परिणामस्वरूप एक ओर जहां श्रमशक्ति का दुरुपयोग होता है, वहीं बहुत-सी श्रम-शक्ति निष्क्रिय पड़ी रहती है। आवश्यकता से कई गुना भूमि के स्वामी बने जमींदार अपनी श्रम-शक्ति का उपयोग इसलिए नहीं करते, क्योंकि उन्हें जरूरत से कई गुना श्रमशक्ति बेगार या मामूली मजदूरी पर उपलब्ध हो जाती है। यानी समाज का एक वर्ग संसाधनों के अभाव में अपनी श्रमशक्ति के लाभों से वंचित रह जाता है; जबकि दूसरा आवश्यकता से कहीं अधिक संसाधनों पर काबिज होने के कारण दूसरे के श्रम को कम मूल्य पर खरीदने में सफल हो जाता है। इस तरह न केवल श्रम का अवमूल्यन होता है, बल्कि समाज की बहुत-सी श्रमशक्ति व्यर्थ चली जाती है।

इसलिए आंबेडकर कृषि, उद्योग, बीमा, बैंकादि का संपूर्ण राष्ट्रीयकरण चाहते थे। वे व्यापक भूमि-सुधार के समर्थक थे। चाहते थे कि सरकार समस्त कृषियोग्य भूमि का अधिग्रहण कर उसे उचित आकार के फार्मों में विभाजित करे और उत्पाद का समुचित अनुपात में समाज के सभी सदस्यों के बीच संवितरण हो। समाजार्थिक समानता की स्थापना के लिए आंबेडकर की यह क्रांतिकारी सोच थी।

आंबेडकर के विचारों पर हम समाजवादी चिंतन की छाया देख सकते हैं। लेकिन भारत में समाजवादी आंदोलन का जो स्वरूप रहा है, उस अर्थ में वे कतई समाजवादी न थे। हम उन्हें आमूल परिवर्तनवादी कह सकते हैं। चूंकि वे सामाजिक समानता के लक्ष्य को दलितों की वर्गीय चेतना, शैक्षिक-सामाजिक उन्नयन तथा लोकतांत्रिक परिवर्तन द्वारा प्राप्त करना चाहते थे, इसलिए उन्हें गणतांत्रिक समाजवादी कहना भी उपयुक्त होगा। वस्तुतः जिस समाज के लिए वे काम कर रहे थे, उसके कल्याण हेतु आर्थिक समरसता का विचार पर्याप्त न था। लाहौर में ‘जात–पात तोड़क मंडल’ के वार्षिक अधिवेशन के लिए लिखे गए अपने लंबे भाषण ‘जाति का उन्मूलन’ में उन्होंने कई उदाहरण देकर बताया था कि आर्थिक समाधान कभी भी सामाजिक समाधान का विकल्प नहीं बन सकते।

एक उदाहरण उन्होंने गुजरात के गांव का दिया थाथा। वहाँ अछूत स्त्रियाँ घाट से पानी लाने के लिए मिट्टी के घड़ों का उपयोग करती थीं। जानूं गांव की खाते-पीते दलित परिवारों की कुछ स्त्रियों ने पानी लाने के लिए पीतल के घड़ों का उपयोग करना चाहा तो सवर्ण लोगों की त्योरियां चढ़ गईं। उन्होंने विरोध किया। पूरे भारत में यही हालात थे। जयपुर रियासत के चकवारा की घटना के बारे में उन्होंने बताया कि एक रईस अछूत तीर्थ यात्रा पर गया। लौटा तो परंपरानुसार उसने मित्रों-रिश्तेदारों को भोज देने का फैसला किया। तय किया कि भोज के लिए सभी व्यंजन देशी घी में बनाए जाएंगे। सवर्णों को पता चला तो उबलने लगे। अछूत देशी घी से बने व्यंजनों का भोज दे, यह उन्हें सहन न हुआ। सो ऐन भोज के समय दर्जनों दबंग समारोह स्थल पर जा धमके। पलभर में सारा भोजन तहस-नहस कर दिया।

समाजवाद मुख्यतः आर्थिक समानता को अपना लक्ष्य मानता है। यही कारण है कि भारत में समाजवादी राजनीति कभी भी दलितों की मददगार नहीं बनी। न ही संसाधनों के संवितरण की न्यायपूर्ण मांग रखने वाले आंबेडकर को किसी ने समाजवादी विचारक के रूप में मान्यता दी।

आंबेडकर ने मार्क्स की आलोचना करते हुए बुद्ध को अपनाया था। अपने विचारों के कारण लगभग आधी दुनिया पर छाए रहने वाली विश्व-इतिहास की इन महानतम हस्तियों में आपस में कोई स्पर्धा नहीं है। तो भी आंबेडकर के लिए बुद्ध इसलिए महत्त्वपूर्ण थे कि उन्होंने जाति पर सवालिया निशान लगाते हुए समानता आधारित समाज का सपना देखा था। साम्यवाद के रूप में समानता आधारित समाज का सपना मार्क्स का भी था। लेकिन मार्क्स की सीमा थी कि वे समानता को जीवन के आर्थिक पक्ष से आगे बढ़कर नहीं देख पाए थे। भारत के बारे में उन्होंने काफी लिखा था, तथापि वह जानकारी राजनीतिक और अखबारी सूचनाओं पर केंद्रित थी। जाति की भयावहता जिससे आंबेडकर का सीधा परिचय था और जिसकी विकृति को ढाई हजार वर्ष पहले जनमे बुद्ध भी समझते थे, मार्क्स उतनी गहराई से नहीं समझ पाए थे।

आंबेडकर मार्क्स की वर्ग-भेद की अवधारणा से सहमत थे परंतु इस संशोधन के साथ कि भारतीय समाज में वर्ग-भेद मुख्यतः सामाजिक-सांस्कृतिक रहा है। उनका मानना था कि जाति की समस्या के समाधान के बिना भारत में किसी भी सुधारवादी आंदोलन की सफलता संदिग्ध होगी।

समाजार्थिक परिवर्तन के लक्ष्य को आंबेडकर दलितों के प्रबोधीकरण द्वारा प्राप्त करना चाहते थे। इस रूप में वे अपने समय के किसी भी समाजवादी से बड़े और प्रतिबद्ध समाजवादी थे। भारतीय समाजवादी आंदोलन और राजनीति की यह विडंबना रही उसने आंबेडकर को मात्र दलितों का नेता मानकर उपेक्षित रखा। इसके लिए आंबेडकर का तो कोई नुकसान नहीं हुआ परंतु जाति के सवालों की ओर से मुॅंह मोड़े रहने के कारण भारत का समाजवादी आंदोलन लगातार अपनी प्रासंगिकता खोता रहा।

आंबेडकर का पूरा जीवन एक महागाथा है। एक लेख या पुस्तक में उनके जीवनकर्म को नहीं समेटा जा सकता। वे अपने मानक आप हैं। इसलिए लेख का समापन हम उन्हीं की बात से करना चाहेंगे। यह दरअसल एक चेतावनी है जो भारतीय संविधान को लोकार्पित करते हुए उन्होंने हम सबको दी थी। संविधान की प्रस्तावना की शुरुआत उन्होंने ‘हम भारत के लोग’ से की है। इसकी व्याख्या उनके भाषण में भी मिलती है –

‘‘मुझे याद है जब राजनीतिक रूप से सक्रिय हिंदुस्तानी ‘भारत के लोग’ कहने की अपेक्षा ‘भारतीय राष्ट्र’ कहना अधिक पसंद करते थे। मेरा विचार है कि ‘हम एक राष्ट्र हैं’ ऐसा मानकर हम एक बड़े भ्रम को बढ़ावा दे रहे हैं। हजारों जातियों में बॅंटे लोग भला एक राष्ट्र कैसे हो सकते हैं? सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टि से हम अभी तक एक राष्ट्र नहीं हैं, इस बात को हम जितनी जल्दी समझ लें उतना ही हमारे लिए बेहतर होगा। तभी हम राष्ट्र बनने की जरूरत को बेहतर समझ पाएंगे तथा इस लक्ष्य को हासिल करने के तरीकों और साधनों के बारे में बेहतर पाएंगे। (जातिप्रथा के रहते) इस उद्देश्य की प्राप्ति कठिन है….जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं। पहला कारण तो यह कि वे सामाजिक जीवन में अलगाव को बढ़ावा देती हैं। दूसरे, वे एक जाति और दूसरी जाति के बीच ईर्ष्या और असहिष्णुता को ले आती हैं। अगर हम सच में राष्ट्र बनना चाहते हैं तो हमें इन सब मुश्किलों से मुक्ति पानी होगी। असली भाईचारा तभी कायम हो सकता है, जब राष्ट्र मौजूद हो—लेकिन बगैर बंधुत्व के समानता, स्वाधीनता और राष्ट्रीयता महज दिखावा ही होंगी।’’

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