— ध्रुव शुक्ल —
सुबह टहलते हुए मेरी बेटी ने मुझसे अपने मन की बातें कीं। वह कहने लगी कि पापा, आप कहते हैं कि पूरा संसार अनेक प्रकार के प्राणियों के शरीरों के रहने की जगह है और उन्हीं के साथ पृथ्वी पर सात अरब मनुष्य भी रहते हैं। इनमें से सवा सौ करोड़ हम भारत के लोग भी हैं। हम सबके शरीर संसार के संचालन में प्रकृति की रची टेक्नालाजी जैसे ही तो हैं। फिर क्यों हमें अपने जीवन के अलावा किसी और टेक्नोलॉजी की ज़रूरत है? क्या हमारे हाथ-पांव काफी नहीं हैं?
मेरी बेटी ने उगते हुए दिन की तरफ देखकर महात्मा गांधी को याद करते हुए कहा कि उन्होंने मनुष्य की दैहिक प्रविधि को अच्छी तरह पहचानकर प्रजातंत्र में उसके समृद्धिकारी उपयोग के लिए पंचायतराज प्रणाली की वकालत की थी। वे लोकल से ग्लोबल को देख रहे थे और उन्हें एकाधिकार वाली पार्लियामेंट नहीं सुहायी। गांधीजी की बात किसी ने नहीं मानी और आज हम पार्लियामेंट की हालत देखकर लज्जित हो रहे हैं। जनमत का आदर नहीं किया जा रहा बल्कि उसके मन को तात्कालिक लालच से भरकर लूटा जा रहा है। पार्लियामेंट में और सड़कों पर रोज गूॅंजता सत्तापरस्त शोर इसकी गवाही दे रहा है।
आपको शायद स्मरण होगा कि भारत में वैदिक काल से महात्मा गांधी तक मनुष्य के शरीर को साधने की कला ही विकसित होती आयी है और इसी को संसार के पालन- पोषण में कामयाब माना गया है। इस जीने की कला को साधने के लिए मनुष्य ही नहीं, सभी प्राणियों के हाथ-पॉंव, नाक-कान और ऑंखें ही काम आती हैं। उन्हें किसी आनलाइन टेक्नोलॉजी की कोई ज़रूरत ही नहीं। सोलहवीं सदी से पहले सब अपने श्रम और संयम से अपनी स्थानीयता (लोकल) से सार्वभौमिक (ग्लोबल) को साधते आये हैं। भारत के व्यावहारिक अध्यात्म में इस साधना को ही सनातन धर्म कहा गया है–अनादि प्रकृति प्रत्येक संवत्सर में अपने ऋतुकालों के माध्यम से बिना किसी भेदभाव के सबके पालन-पोषण में सहयोगी बनी रहती है। इस प्रकृति की उन्नति होती रहे, इसे ही राजधर्म कहा गया है।
आप जानते हैं कि जो व्यापारी और आक्रांता भारत में आते रहे वे उन्हीं साधनों को ही तो विकृत कर लूटते रहे जिन्हें भारत में अनादि प्रकृति का जीवन को वरदान माना गया और उन साधनों से ही जीवन में व्यावहारिक अध्यात्म को साधने का बार-बार उपदेश किया गया। वैष्णव, शैव और शाक्त संप्रदाय भी बने पर उन सबने संसार की रचना, पालन और संहार के स्वभाव को पहचान कर प्रत्येक मानव शरीर के आत्मबल को ऊंचा उठाने और निरंतर कर्मरत रहने के विभिन्न उपाय खोजे। पर आज इन संप्रदायों से जुड़े कुछ विवेक भ्रष्ट लोग इस दिशा में लोकहित का कोई पुरुषार्थ करने के बजाय भेदभाव की लकीरें खींच रहे हैं और कई नेता इन लकीरों को और गहरा कर रहे हैं।
मैं आज तक नहीं समझ पाया कि देश में किस हिन्दू धर्म पर गर्व किया जा रहा है ? क्योंकि भारत की मनीषा ने सदियों पहले से ही उस वैश्विक मानव धर्म की परख की जिसमें हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, पारसी आदि नामवाले सारे संप्रदाय और मज़हब समा जाते हैं। आपको याद होगा कि ख़ान अब्दुल गफ़्फार ख़ान भी इंसानी बिरादरी का नारा बुलंद करते रहे और आदमी को ख़ुदाई ख़िदमतगार बनने के लिए प्रेरित करते रहे। यह प्रेरणा उन्हें महात्मा गांधी से ही तो मिली और वे सीमान्त गांधी भी कहलाये। फिर हमारे देश के राजनीतिक दल सांप्रदायिकता की छाया से क्यों बाहर नहीं निकल पा रहे?
अगर कहने पे आयें तो कहने को बहुत कुछ है। पर सविनय निवेदन है कि आप भारत के उन करोड़ों आफलाइन बेरोजगार शरीरों की चिंता करें जो वैश्विक बाज़ार की आनलाइन कठिन प्रतियोगिता में जबरन धकेले जा रहे हैं जबकि उन्हें तो देश की प्रकृति के आंगन में अपनी पारंपरिक हुनरमंदगी और कारीगरी को विकसित करने के अवसर मिलने चाहिए। दरिद्रता को ही सबसे बड़ा दुख कहा गया है। यह दुख सबके हाथों में बसे हुनर से ही दूर हो सकता है। टेक्नोलॉजी तो वह रोग है जिसके कारण आदमी अपने आपको और अपने देश को भूलकर जीने लगा है।
आपसे बेहतर कौन जानता है कि आर्टिफीसियल इण्टेलीजेन्स और महामारियों की ओट में छिपकर विश्व व्यवस्था को मनमाने ढंग से बदलने के क्रूर उपाय किए जा रहे हैं। इससे बड़ा ख़तरा यही है कि एशिया और दुनिया के अभावग्रस्त जीवन को वैश्विक बाज़ार की उपनिवेशिक ग़ुलामी में खपना पड़ेगा। धरती अब बार-बार काॅंपकर चेतावनी भी दे रही है। अब चुनाव जीत लेना ही काफी नहीं है। इतने बड़े जनसागर में लोकतंत्र की नाव कैसे सबको पार लगा सके, यह चिन्ता जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के चेहरों पर दिखायी नहीं दे रही। दूसरों के सिर पर दोष मढ़ने का राजनीतिक तमाशा हम और कब तक देखते रहेंगे?
मैं आपसे पूरे आत्म विश्वास के साथ कहता हूं कि साध्य यह नहीं है कि अपने स्वधर्मपथ को लम्बा करके परधर्म की ओर मोड़ा जाये बल्कि साध्य यह होना चाहिए कि अपनी ओर लौटकर सबका कैसे हुआ जाये….
सादर