
— कश्मीर उप्पल —
नर्मदांचल में एक एवं दो अप्रैल को बान्द्राभान में जन आंदोलनों का राष्ट्रीय समन्वय (एनएपीएम) की बैठकें हुईं। देशभर में अलग-अलग राज्यों में चल रहे कई एकांतिक आंदोलनों से मिलकर यह एक महासंगठन बना है। इस संगठन के बैनर तले सामूहिक रूप से जो आवाज उठाई जाती है वह पूरे देश में सुनाई देती है। यह संगठन जल, जंगल, जमीन से जुड़े पर्यावरणीय मुद्दों का संगठन है। नर्मदा बचाओ आंदोलन की मेधा पाटकर के नेतृत्व में असम, केरल, गुजरात, म.प्र., बिहार आदि राज्यों में चल रहे जल, जंगल, जमीन के जन-जन से जुड़े मुद्दे उठाये जाते हैं। नर्मदा बचाओ आंदोलन का मुख्य योगदान विकास की एकपक्षीय नवउदारवादी सोच को, जिसका मूलमंत्र केवल अपना मुनाफा है, को चुनौती देना है।
इस आंदोलन ने अपने कई प्रयोगों के माध्यम से सिखाया है कि बिना बड़े बांधों के किस तरह आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था बनाई जा सकती है। एक पूरी नदी और एक पहाड़ से कितने लोगों को रोजागर मिलता है, कितने लोगों का पेट भरता है! यह काम दुनिया की कोई सरकार या पूंजीपति नहीं कर सकते हैं।
लाखों लाख किसानों और आदिवासियों को जंगल और नदी का आत्मनिर्भर जीवन छोड़ शहरों में या शहरों के पास मजदूर के रूप बदल दिया गया है। शहरों के छोटे-मोटे अनाज व्यापारियों का व्यापार-धंधा छीनकर बड़ी-बड़ी कंपनियों को सौंप दिया गया है। लोकतांत्रिक विकास में समाज के बहुसंख्यक लोगों के विकास की नीति को पलट दिया गया है। आजकल की अर्थव्यवस्था कुछ लोगों को करोड़पति और बहुसंख्यक छोटे व्यापारी, किसान, आदिवासी को गरीब बना रही है। हमारे समाज के लोग बराबरी की भावना से एकजुट नहीं होंगे तो अगले कुछ वर्षों में सभी की आनेवाली पीढ़ियॉं गरीबी में रहने को विवश होंगी।
नर्मदांचल में हर वर्ष केसला क्षेत्र के किसानों और आदिवासियों को संघर्ष का पाठ सिखाने वाले राजनारायण और सुनील की स्मृति में केसला-सम्मेलन में उन्हें याद किया गया है। इन दोनों साथियों की अप्रैल के महीने में आकस्मिक मृत्यु हुई थी। प्रतिवर्ष 20 अप्रैल को राजनारायण स्मृति भवन, आम का बगीचा, केसला में स्मृति-सम्मेलन आयोजित किया जाता है। उस दौरान के साथी फागराम, राजेन्द्र गढ़वाल और जुझारू गुलियाबाई, स्व सुनील व स्व राजनारायण के काम को आगे बढ़ा रहे हैं। आज लोग इन आदिवासी भाई बहनों से सीख सकते हैं कि कैसे संगठित होकर आगे बढ़ा जा सकता है।
किसी को भी यह नहीं भूलना चाहिए कि विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका के बाद मीडिया-पत्रकारिता को संविधान का चौथा स्तंभ माना गया है। पत्रकारिता हमारे समाज के दुखों और सुखों की खबर संसद, विधानसभा, अदालतों और सरकारों के शासन-प्रशासन को देती है। नई पूंजीवादी व्यवस्था में मीडिया की भूमिका सीमित कर दी गई है। उद्योगपति और पूंजीपति हरेक मीडिया साधन के मालिक बन बैठे हैं। इसलिए वैकल्पिक मीडिया का काम भी आंदोलनकर्मियों और फ्री लांसर पत्रकारों के जिम्मे आ गया है।
शासन-प्रशासन को यदि हम समाज का डॉक्टर मानें तो उन्हें यह समझना चाहिए कि समाज में आंदोलन करने वाले बता रहे हैं कि समाज के शरीर के किस भाग में दर्द हो रहा है। डॉक्टर के सामने हाय-हाय करने वाले मरीज को देख डॉक्टर समझ जाता है कि शरीर में कहॉं दर्द है। इसलिए आज राजनेताओं और शासन प्रशासन को समझना चाहिए कि समाज की पीड़ा को कैसे दूर किया जाए। मीडिया को भी इनके साथ सहानुभूति होनी चाहिए। इन आंदोलनकर्मियों की आवाज से ही मीडिया में न्यूज के फूल खिलते हैं। मीडिया के हिस्से का अगला काम करने वालों का हाथ आगे बढ़कर थामना ही मीडिया-धर्म है। इन दोनों आंदोलनों की देशभर में चर्चा होती रहती है। देश इन आंदोलनों से बहुत कुछ सीख रहा है। नर्मदांचल को इन आंदोलनों से पहचाना जाता है।
Discover more from समता मार्ग
Subscribe to get the latest posts sent to your email.