मधु लिमये का आत्ममंथन

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— आनंद कुमार —

भारतीय समाजवादी आंदोलन के मार्गदर्शक मधु लिमये की जन्मशताब्दी को उल्लास से मनाना हर समाजवादी का ही नहीं, बल्कि हर देशभक्त और लोकतंत्र समर्थक भारतीय का पुनीत कर्तव्य है। उनकी 1 मई 1922 से शुरू और 8 जनवरी 1995 को पूरी हुई आठ दशक लंबी रोमांचक जीवनयात्रा गांधी के नेतृत्व में भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन, लोहिया के नेतृत्व में समाजवादी आंदोलन, और जे.पी. के नेतृत्व में लोकतंत्र रक्षा आंदोलन में योगदान के तीन अध्यायों की महागाथा है। इस दौरान 1949 और 1971 के बीच वह समाजवादी पार्टी के उच्च पदाधिकारी रहे। भारत की लोकसभा के लिए बिहार से 4 बार – 1964, 1971, 1973 और 1977 के चुनावों में विजयी हुए। मधु जी 1977-78 के दौरान जनता पार्टी और 1979-81 में लोकदल के महामंत्री बने।

उनका व्यक्तित्व विचार और कर्म का आदर्श समन्वय था। वह सत्याग्रह से लेकर संसदीय मोर्चे तक हमेशा एक आकर्षक समाजवादी नायक की भूमिका में रहे, उन्हें अपने नेताओं से अपार स्नेह और अनुयायियों से असीम आदर मिला। उन्होंने भी अपनी पूरी जिंदगी स्वतंत्रता, लोकतंत्र और समाजवादी समाज रचना के लिए समर्पित की। 

लेकिन यह याद रखना जरूरी है कि यशस्वी समाजवादी नेता मधु लिमये का राजनीतिक जीवन सदा सुगम नहीं रहा। उनको आत्मसंशय और निरर्थकता का भी सामना सकना पड़ा। 7 चुनावों में से 4 चुनाव में जीते और तीन बार पराजय मिली। समाजवादी परिवार में 1983 के बाद राजनीतिक अकेलेपन के विषाद का भी अनुभव मिला था। नयी पीढ़ी के समाजवादी कार्यकर्ता के लिए यह जानना उपयोगी रहेगा कि मधु जी जैसे शिखर-पुरुष ने अवसाद और निराशा के दौर का कैसे सामना किया? पथभ्रमित होने से कैसे बचे?

मधु जी की जीवनसंगिनी चंपा लिमये के अनुसार इसमें से 1955 से 1957 की अवधि तो अत्यंत असमंजस और आत्ममंथन की थी। इस दौर में हुए आत्ममंथन को समझने के लिए उनकी गोवा डायरी को पढ़ना चाहिए। मधु जी गोवा की पुर्तगाल से मुक्ति के सत्याग्रह में जेल में कैद थे। पुर्तगाली सरकार ने पहले उनको बहुत पीटा और तनहाई में बंद रखा, फिर उन्हें 12 साल की कैद की सजा सुनाई। जेल में उनका शरीर दमा की बीमारी से ग्रसित था। उनकी पत्नी चंपा लिमये एक साल के शिशु अनिरुद्ध को साथ लिये आर्थिक चुनौतियों से जूझ रही थीं। सभी भाई-बहन अभावग्रस्त परिवार की पीड़ा से गुजर रहे थे। मधु जी ने जिस समाजवादी पार्टी के लिए अपनी युवावस्था, विश्वविद्यालयी शिक्षा, पारिवारिक रिश्ते और भौतिक सुख-सुविधा को दाँव पर लगाया था, वही बिखराव का शिकार हो गई थी। अनेकों प्रिय नेता और निकट सहयोगी मुँह मोड़कर दूर चले गए थे। मधु जी इस प्रकरण में अपने को सर्वाधिक प्रिय नेताओं- जयप्रकाश नारायण और एस.एम.जोशी – के व्यवहार से बेहद दुखी हुए, सिर्फ लोहिया की नीतिगत दृढ़ता से ढांढस महसूस किया।

फिर गोवा आंदोलन (1955-56) के हीरो की 1957 के महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जमानत जब्त हो गई। इससे उनके मन में बंबई और महाराष्ट्र के लोगों के इस अप्रत्याशित निर्णय को लेकर गहरी व्यथा हुई। 1979-1983 के बीच भी उन्हेंसरकार गिराने और जनता पार्टी तोड़ने का दोषी बताया गया था। मधु जी के सुपुत्र अनिरुद्ध लिमये ने लिखा है कि इस दुष्प्रचार के कारण मधु जी अपने अंतिम वर्षों में मुंबई आने से बचते रहे।

लेकिन मधु लिमये ने अपने इन अनुभवों को समय के साथ पीछे छोड़ दिया। संबंध सुधार के मौके बनाए। गाँठ नहीं पड़ने दी। इसीलिए उन्होंने 1974-79 के बीच जयप्रकाश नारायण से निकटता बनाने में कोई संकोच नहीं किया। अपनी आत्मकथा को एस.एम.जोशी और साने गुरुजी को समर्पित किया। डॉ. लोहिया के गैरकांग्रेसवाद की रणनीति से असहमति के बावजूद उन्होंने लिखा कि लोहिया चाहते थे कि विधायक और सांसद बनने के लिए अवसरवादी समझौतों का रास्ता बिल्कुल बंद होना चाहिए, परंतु कुछ वर्षों के बाद उन्हें लगने लगा कि समाजवादी दल बढ़ नहीं पा रहा है। कुछ समय तक उन्हें यह भी आशा थी कि शायद मार्क्सवादी कम्युनिस्ट, जनसंघ, प्रसोपा आदि को सोशलिस्ट पार्टी के साथ मिलाकर बदलाव की पार्टी बन सकेगी। लेकिन यह स्वप्न रंजन मात्र साबित हुआ। अतः 1963 से वे कांग्रेस को हराने के लिए तालमेल के हिमायती बन गए।

संसद के अंदर और संसद के बाहर लोहिया तथा उनके अनुयायियों ने जो सतत संघर्ष किया, देश को गरमाने का काम किया उसके फलस्वरूप 1967 के चुनाव में कांग्रेस 8 राज्यों में पराजित हुई। लोहिया की ख्वाहिश थी कि राजनीति में प्रवाहशीलता आए। कांग्रेस का एकाधिपत्य समाप्त हो। राजनीतिक दल कार्यक्रम अभिमुख बनें। यह एक दैवदुर्विलास है कि कांग्रेस के एकाधिपत्य को समाप्त करते-करते सारा विपक्ष कांग्रेसी और सिद्धांतहीन बन गया।

मधु लिमये को एक गंभीर और अंतर्मुखी नेता के रूप में जाना जाता रहा है। लेकिन गोवा की मुक्ति के लिए सत्याग्रह करके 1955 में बंदी-जीवन का वरण करने वाले मधु लिमये की आयु कुल 33 बरस थी। उन्होंने सिर्फ तीन बरस पहले राष्ट्रसेवा दल के शिविर के दौरान परिचित बनी सुशिक्षित चंपा गुप्ते से अंतर्जातीय विवाह किया था। उनता नवजात शिशु अनिरुद्ध एक बरस का था। उधर पुर्तगाल की साम्राज्यवादी सरकार ने उन्हें 12 साल कैद की सजा सुनाई थी। इस कैद के दौरान मधु लिमये ने 26 जुलाई 55 से 1 फरवरी 57 तक की अवधि के बारे में गोवा डायरी लिखी। यह आत्म संवाद का दुर्लभ दस्तावेज युवा मधु लिमये के अनुभवों, मनोभाव और आशाओं-आशंकाओं का दिलचस्प विवरण उपलब्ध कराता है। इसकी एक स्थायी महत्ता है क्योंकि यह हमारे दौर के एक महानायक की मनोदशा के समग्र चित्रण जैसा है। इसमें अनेक आदर्शवादी युवजनों को अपनी दुविधाओं की झलक मिलेगी। कई सवालों की गूँज सुनाई पड़ सकती है। गोवा की जेल में कैद का पहला महीना पूरा होते-होते मधु लिमये अपनी शुरुआत के बरसों की उपलब्धियों से प्रफुल्लित होते मिलते हैं :

21 अगस्त, रविवार

अतीत के बारे में सोचते हुए मुझे 1947 में हुए बदलावों का खयाल आता है। देश को आजादी मिली। मेरी जिंदगी भी एकदम परिवर्तित हो गयी। मैंने पहली बार दो राष्ट्रीय सम्मेलनों में हिस्सा लिया। कलकत्ता, बनारस, आगरा, दिल्ली, कानपुर, नागपुर तक यात्राएँ कीं। खानदेश से बाहर निकला। उंबेरगांव शिविर में नए मित्र बने। अंत में यूरोप की यात्रा हुई जिससे मैं जिला-प्रांत की दुनिया से उठकर राष्ट्रीय राजनीति में प्रविष्ट हुआ। वैसे 1937 भी अंततः क्रांतिकारी सिद्ध हुआ था। कालेज का जीवन, समाजवाद, केलावाला, एस.एम. (जोशी)।

 फिर अगले ही दिन मधु जी का अपने से ही कुछ जरूरी सवाल पूछने का मन करता है :

22 अगस्त, सोमवार

मेरा क्या जीवन दर्शन है? मेरा जिंदगी के बारे में क्या दृष्टिकोण है? राजनीति में हिस्सा लेने के पीछे क्या प्रेरणा रही है? सच से मुँह मोड़ना या दोस्ती का तकाजा? बहादुरी दिखाने का जज्बा?देशभक्ति? समाजवादी आस्थाएँ? या सबका मिलाजुला असर !!

25 अगस्त, बृहस्पतिवार

मुझे जब भी जेल से रिहाई मिलेगी तो बाहर की दुनिया बदल चुकी होगी। नया माहौल, नयी संभावनाएँ, नए रिश्ते, नए दोस्त। यदि 1957 तक नहीं छूटा तो चुनाव भी हो जाएंगे। मेरी कोई भूमिका नहीं हो सकेगी।

(27 अगस्त को चंपा जी और पोपट (अनिरुद्ध) मधु जी से पहली मुलाकात के लिए जेल में आते हैं। मधु जी को स्नेह और अपनत्व से अच्छा महसूस हुआ। लेकिन फिर 30 अगस्त से 3 सितंबर अस्थमा का कष्ट सताता है। इसी बीच गांधी, चर्चिल और एमिल जोला की किताबें भी पढ़ते हैं।)

4 सितंबर 1955

जेल का एक जैसा हर दिन का जीवन। एक निरर्थकता। अस्तित्व का क्या अर्थ है? (इसके बाद गोरे लोगों की वर्चस्वता पर एक लंबी टिप्पणी। फिर भूदान और रचनात्मक कार्यक्रम    की हानिकारक भूमिका और पंगु और निंदावादी समाजवाद का जिक्र। आरामतलबी का दबाव) फिर संबंधियों-मित्रों का स्मरण करते मिलते हैं। तभी के जेल-जीवन के शुरुआती 45 दिनों में 8,000 पृष्ठों की पढ़ाई की बात दर्ज की जाती है।

23 सितंबर, शुक्रवार

अस्थमा के कारण तीन रातों तक लगातार अनिद्रा का कष्ट। 

25 सितंबर, रविवार

क्या भारत में समाजवाद और सोशलिस्ट पार्टी का कोई भविष्य है?क्या भारत का और एशिया का कोई भविष्य है?

29 सितंबर, बृहस्पतिवार

नाना साहब को 12 साल की सजा सुनाई गयी। यदि पूरी अवधि सजा रही तो 60 बरस की उम्र में रिहा होंगे। मैं 45 बरस की होने पर छूटूँगा। कोई बात नहीं। जिंदगी में और क्या हासिल करना है?इसे इसी तरह खत्म हो जाने दो।

10 अक्टूबर, सोमवार

कल मैंने सामाजिक सुधार, धर्म, तर्क, राष्ट्रीय एकता, हिंदू-मुस्लिम संबंध के बारे में अँग्रेजी में खुद से बात करता रहा। आज अपनी पार्टी के बारे में हिंदी में आत्मलाप हुआ लेकिन अधूरा रह गया। जेपी का असफल नेतृत्व। उनके सोच में अस्थिरता और कोई सिलसिला न होना। दृढ़ता और धीरज का अभाव। कभी कम्युनिस्टों का अनुकरण। अब विनोबा का। हमेशा नेहरू के पीछे आँख मूँदकर।

12 अक्टूबर, बुधवार

आज मैंने अपने आत्मालाप के बाद तय किया कि पलायनवादिता और दिवास्वप्नों से दूर रहना है। वास्तविकताओं के आधार पर काम करना है। चाहे इसकी वजह से अगले बीस बरस तक समाजवाद और पार्टी के लिए बियाबान में ही भटकना पड़े।

(मधु लिमये की गोवा डायरी में आखिरी विवरण 1 फरवरी, 1957 को दर्ज किया गया था।)

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