— योगेन्द्र यादव —
कर्नाटक के चुनाव में एक अनूठा प्रयोग हो रहा है। ‘येद्देलु कर्नाटक’ के नाम से प्रदेश और देश के अनेक सामाजिक संगठन और आंदोलन-समूह आगामी विधानसभा चुनाव में दखल दे रहे हैं। कहते हैं आवश्यकता आविष्कार की जननी है। इसलिए देश के इतिहास की इस असाधारण अवस्था में हो रहे इस असाधारण चुनाव ने इस असाधारण दखल को जन्म दिया है।
आगामी 10 मई को होने वाला कर्नाटक का विधानसभा चुनाव देश के इतिहास के उस कठिन मोड़ पर हो रहा है जब लोकतंत्र ही नहीं बल्कि हमारे गणतंत्र का अस्तित्व भी खतरे में है। पिछले कुछ वर्षों से भारत के स्वधर्म के तीनों स्तंभों (करुणा, मैत्री और शील) पर एकसाथ घातक हमला हो रहा है। लोकतांत्रिक संस्थाएं सत्ता के सामने चरमरा रही हैं, घुटने टेक चुकी हैं। ऐसे में भारत जोड़ो यात्रा देश के लिए एक उम्मीद की किरण बनकर आई थी लेकिन देश के जनमानस पर हुए उसके असर की परीक्षा होनी अभी बाकी है। भाजपा और उसके सहयोगियों का कहना है कि यह महज एक शगूफा था जिसका जनता पर कोई असर नहीं पड़ेगा।
पिछले 2 महीनों में विपक्ष ने देश में 2 बड़े सवाल उठाए हैं। पहला सवाल राजनीतिक लोगों और कॉर्पोरेट्स थैलीशाहों के घनिष्ठ संबंध का है जिसे राहुल गांधी ने गौतम अडानी का नाम लेकर शिद्दत से उठाया है। जवाब में सत्ताधारी दल ने राहुल गांधी की आवाज को दबाया, फिर संसद की कार्यवाही से उनके शब्द काटे, फिर संसद को ही ठप्प कर दिया और अंतत: आनन फानन में राहुल गांधी का संसद से निलंबन हुआ।
कर्नाटक के चुनाव में दूसरा बड़ा राष्ट्रीय सवाल भी उठ रहा है जिसका संबंध सामाजिक न्याय की राजनीति से है। जब भाजपा ने राहुल गांधी पर ओ.बी.सी. का अपमान करने का आरोप लगाया तो उसके जवाब में राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से कहा कि आपको ओ.बी.सी. से इतना ही प्यार है तो आप जातिवार जनगणना के ऑंकड़े सार्वजनिक क्यों नहीं कर देते? आपकी सरकार के प्रमुख अफसरों में दलित, आदिवासी या पिछड़े वर्ग से अफसरों की संख्या नगण्य क्यों है? कुल मिलाकर राहुल गांधी ने मंडल की लड़ाई के तीसरे चरण की शुरुआत कर दी है।
कर्नाटक का चुनाव भले ही सिर्फ इन दोनों मुद्दों पर न लड़ा जाए, लेकिन इस चुनाव के परिणाम को इन दोनों बड़े राष्ट्रीय अभियान की अग्नि परीक्षा के रूप में देखा जाएगा। दूसरी तरफ अगर भाजपा की हार होती है तो यह 2024 के चुनाव को पूरी तरह खोल देगी और आर्थिक व सामाजिक मोर्चे पर होने वाली राजनीतिक लड़ाई बहुत तीखी हो जाएगी।
कर्नाटक इस धर्मयुद्ध के लिए उपयुक्त कुरुक्षेत्र है जिसे पिछले कुछ वर्षों से दक्षिण भारत में भाजपा के प्रवेश द्वार के रूप में पेश किया गया। यह प्रदेश सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से बहुत समृद्ध है। आज भले ही कर्नाटक से हिजाब और अजान पर चलने वाले विवाद की खबर आती है, लेकिन यह प्रदेश बसावन्न जैसे वचनकारों का प्रदेश है, यह धार्मिक सहिष्णुता और साहित्य की धरती है।
कभी-कभार जन आंदोलनों के लोग पूरी तरह चुनावी राजनीति में कूद जाते हैं लेकिन ऐसे प्रयोगों का परिणाम बहुत अच्छा नहीं रहा है।
कर्नाटक चुनाव में जन आंदोलनों ने फैसला किया है कि वे स्वयं चुनावी राजनीति में दल या उम्मीदवार की हैसियत से नहीं उतरेंगे, लेकिन देश के इतिहास के इस कठिन मोड़ पर होने वाले इस चुनाव को वह महज एक दर्शक की तरह नहीं देख सकते। पहले की तरह चुनाव में किसी एक राजनीतिक शक्ति को हराने की अपील भर करके भी वे संतुष्ट नहीं हो सकते। इसलिए इस बार इन संगठनों और आंदोलनों ने कर्नाटक विधानसभा चुनाव में पक्षधरता का परहेज छोड़कर सीधे जमीनी दखल देने का मन बनाया है। यही है ‘येद्देलु कर्नाटक’।
इसकी शुरुआत सहबालवे यानी सद्भाव नामक अभियान से हुई जिसने प्रदेश में चल रही नफरत की राजनीति के खिलाफ सभी समुदायों में सद्भाव के विचार को सड़क पर उतारा। इस पहल के साथ तमाम किस्म के संगठन जुड़ते गए। कर्नाटक में राज्य रैयत संघ के नाम से चल रहे किसान आंदोलन, दलित संघर्ष समिति के अनेक गुट, अल्पसंख्यकों के अधिकारों की रक्षा के लिए संघर्षरत संगठन तथा लोकतांत्रिक मूल्यों व जन अधिकारों की रक्षा के लिए काम करने वाले अनेक संगठन और नागरिक भी इस संकल्प के साथ जुड़ते गए। भारत जोड़ो यात्रा के बाद बनाया गया भारत जोड़ो अभियान भी इसी पहल का हिस्सा बन गया और सबने मिलकर येद्देलु कर्नाटक यानी जागो कर्नाटक नामक इस अभियान की स्थापना की।
इस अभियान के तहत दो स्तर पर काम चल रहा है। पहला संवाद और प्रचार का काम, जिसमें इस अभियान के कार्यकर्ता सोशल मीडिया, पुस्तिका, पर्चे इत्यादि के माध्यम से झूठ और नफरत की राजनीति का पर्दाफाश कर रहे हैं। इसके साथ-साथ प्रदेश की लगभग 100 चुनिंदा सीटों पर इस अभियान की तरफ से टीमें बनाई गई हैं जोकि प्रदेश में सत्ता परिवर्तन के लिए उस सीट पर सबसे उपयुक्त उम्मीदवार के समर्थन में प्रचार-प्रसार का काम कर रही हैं।
अब तक भाजपा के उम्मीदवारों के समर्थन में संघ परिवार के सभी संगठन यह भूमिका अदा करते थे लेकिन उसका विरोध करने वाली पार्टियों के पास ऐसा कोई सामाजिक समर्थन नहीं था। येद्देलु कर्नाटक इस कमी को पूरा करने का एक अनूठा प्रयास है।