— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
एक खांटी राजनैतिक कार्यकर्त्ता को किन-किन दुर्गम कांटों भरी राह में से गुजरना पड़ता है उन सभी कष्ट प्रदान मार्गों से मधु लिमये गुजरे। 1938 में जब वे इंटर में थे तो उनका कार्यक्षेत्र पार्टी के अध्ययन मंडल (स्टडी सर्कल), पार्टी की बैठकें, जिला कांग्रेस कमेटी तथा विद्यार्थी आंदोलन था। उनकी ज़िंदगी को एक निर्णायक तथा स्थायी दिशा देनेवाली घटना वर्ष 1938 के अंत में घटी। एस.एम. जोशी के साथ उन्होंने पहली बार खानदेश अमलनेर की यात्रा की। खानदेश में धुलिया, अमलनेर, जलगांव और चालीस गाँव ये कपड़ा मिलों के चार केंद्र और भुसावल का रेलवे, ऐसे कुल पाँच औद्योगिक केंद्र थे। कम्युनिस्ट औद्योगिक क्षेत्र में घुसना चाहते थे, वह कम्युनिस्टमय हो रहा था, कांग्रेस सोशलिस्ट पक्ष में फूट हो रही थी, साने गुरुजी सीधे-सादे स्वभाव की वजह से कम्युनिस्ट प्रभाव में आ रहे थे। खानदेश की राजनीति के बारे में मधु जी की उत्सुकता बढ़ने लगी। ट्रेड यूनियन कांग्रेस के बारे में ही नहीं बल्कि रेलवे संगठनों का इतिहास तथा वर्तमान ट्रेड यूनियन राजनीति के बारे में गहरी जानकारी हुई। मधु जी के साथ केशव गोरे (मृणाल गोरे के पति) भी थे। अमलमेर परिषद् में भाग लेकर पूना लौटने के बाद मधु जी तथा केशव गोरे ने अपने समकालीन दोस्तों को खानदेश परिषद् में कम्युनिस्ट राजनीति से संबंधित मिले अनुभवों की जानकारी दी।
अपने आदर्श, सपनों को पाने के लिए 16 वर्ष के मधु लिमये और उनके साथियों ने जो संकल्प लिया था, वह अद्भुत, अविश्वसनीय, प्रेरणादायक है।
31 दिसंबर, 1938 की शाम में सोशलिस्ट नौजवानों बंडू (केशव गोरे), माधव लिमये, अण्णा साने, विनायक कुलकर्णी, गंगाधर ओगले तथा मधु लिमये ने आपस में चर्चा करके एक मत से निर्णय लिया कि हम अपना जीवन स्वतंत्रता तथा समाजवादी आंदोलन के हेतु खर्च करेंगे। हमारी चर्चा का सारांश तथा निर्णय निम्नानुसार था।
1. संपूर्ण स्वतंत्रता की प्राप्ति यह हमारा सर्वोच्च ध्येय है।
2. लेकिन समाजवाद की संस्थापना के बगैर हिंदुस्तान की ग़रीबी नहीं हटेगी तथा देश का सर्वथैव विकास भी नहीं होगा।
3. समाजवादी विचार प्रणाली को श्रमिकों के बीच ठोस रूप से बोये बगैर मज़दूर तथा किसान स्वतंत्रता आंदोलन में बड़े पैमाने पर न हिस्सा लेंगे और न ही कांग्रेस आंदोलन में नया जोश आएगा।
4. घर, परिवार, शिक्षा, नौकरी, कैरियर, पैसा, संपत्ति, (सत्ता लोभ के बारे में तब सवाल ही नहीं उठता था) का मोह त्यागकर स्वतंत्रता तथा समाजवाद के लिए अपनी ज़िंदगी को दांव पर लगाना चाहिए और तद्नुसार कठोर निर्णय लेना चाहिए।
5. कांग्रेस समाजवादी पक्ष ही इन दोनों ध्येयों की प्राप्ति करवा सकता है इसलिए इस पक्ष के झंडे तले हमें कार्य करना होगा।
6. समाजवादी आंदोलन का पूरे महाराष्ट्र में प्रचार तथा प्रसार करने हेतु नेताओं के साथ विचार-विमर्श कर अपना कार्यक्षेत्र छांटकर, एक सुनिश्चित योजना के अनुसार हम सबको पूरे प्रांत में संगठन का जाल बिछाना पड़ेगा।
जो संकल्प इन्होंने लिया था, उसको अमली जामा पहराने का दिन भी आ गया। उन्होंने अपने नेताओं (एस.एम. जोशी इत्यादि) से कहा कि अब संघर्ष की तैयारी करनी चाहिए। घर-परिवार, कॉलेज तथा विश्वविद्यालय आदि बातों को छोड़कर राष्ट्रीय स्वतंत्रता तथा समाजवाद के आदर्शों के लिए ज़िंदगी दॉंव पर लगाने का समय आ गया है। पार्टी के नेताओं ने इसके लिए हामी भर दी। बंडू और मधु जी दोनों को धुलिया में पार्टी का पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनकर जाना तय हो गया।
एक मित्र के हाथों मधुजी ने माँ को संदेशा भिजवाया-
“मुझे अब घर वापिस आने तथा कॉलेज जाने में कोई दिलचस्पी नहीं है। यह बात मैंने तय की है तथा अब इसमें परिवर्तन होने की कोई गुंजाइश नहीं है।”
वैसे उसको (माँ) काफ़ी दुख हुआ होगा क्योंकि पढ़ाई तथा शिक्षा के बारे में उसके दिल में काफ़ी सम्मान था। वह चाहती थी कि उसके बच्चे पढ़ें, बी.ए., एम.ए. करें, लेकिन मैंने उसकी आशाओं पर पानी फेर दिया।
सन् 1939 के सितंबर में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ गया। युद्ध विरोधी आंदोलन की अगुवाई समाजवादियों ने की थी। इस सिलसिले में जयप्रकाश नारायण, यूसुफ मेहर अली, डॉ. राममनोहर लोहिया पूना आये। यहीं पर मधु जी का परिचय इन महान समाजवादियों से हुआ। कम उम्र होने के कारण कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का सदस्य बनना संभव नहीं था, लेकिन राष्ट्रीय स्वतंत्रता और समाजवाद का जोड़ मधु जी के मानस में बैठ गया था, जो मृत्यु पर्यन्त तक चला।
हम धुलिया चले गए, हम दोनों के लिए 30 रुपये माहवार भेजने की व्यवस्था पार्टी ने की, काफ़ी तंगी, तकलीफ़ होती थी। लेकिन ध्येय के आगे हमने इन बातों की ओर ध्यान नहीं दिया।
अमलनेर की परिषद् में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के खानदेश के कार्यकर्ता कम्युनिस्ट पार्टी में जा रहे थे। पार्टी का अस्तित्व किस तरह नष्ट हो रहा था मैंने खुद देखा था। इसलिए खानदेश की भूमि में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के काम का फिर बीज बोने की चुनौती मेरे सामने थी और यह चुनौती मैंने बड़ी ख़ुशी से स्वीकार की। धुलिया में मधु लिमये कामगारों की बस्तियों, मिल मज़दूर यूनियनों के साथ-साथ विभिन्न कांग्रेस कार्यकर्ताओं से संपर्क बढ़ाने, ग्रामीण इलाकों में दौरे कर पार्टी का प्रचार कर रहे थे। इसी मध्य विश्वयुद्ध की आग भड़क गयी। सोशलिस्टों ने कहा यह विश्व युद्ध हमारा नहीं है, अंग्रेज़ों ने हमें ज़बरदस्ती इस युद्ध में झोंक दिया है। हम युद्ध के लिए न एक पाई देंगे और न एक सिपाही।
मधु लिमये धुलिया में, पैदल, तांगे, बैलगाड़ी और बस से घूम-घूम कर युद्ध फंड न देने तथा सेना में भर्ती न होने का आह्वान करने लगे। जल्दी ही पुलिस ने उन्हें गिरफ़्तार कर मैजिस्ट्रेट की अदालत में पेश कर दिया। गिरफ़्तार होने पर पुलिस लॉकअप में एक छोटा सा निवेदन जो अंग्रेज़ी में तैयार किया था, उसको मैजिस्ट्रेट के सामने पढ़कर सुनाया, जिसमें कहा गया था :
“वर्तमान युद्ध, प्रजातंत्र तथा राष्ट्रीय स्वतंत्रता का मुद्दा न होकर साम्राज्यशाही स्वार्थ हेतु चलाया गया मुद्दा है। इस युद्ध में भारतीय जनता को उसकी इच्छा के विरुद्ध ज़बरदस्ती घसीटा गया है। इसलिए इस युद्ध के लिए अपना सहयोग न देना भारतीय जनता का कर्तव्य है। मैं उस कर्तव्य को निभा रहा हूँ। आप जो चाहे, वह सजा मुझे दे दीजिए। मैं उसकी ज़रा भी परवाह नहीं करता।”
मैजिस्ट्रेट ने आदेश सुनाया, “अभियुक्त की छोटी उम्र को मद्देनज़र रखते हुए तथा यह उसका पहला अपराध है, इसलिए उसे नौ महीनों की कैद बा-मशक्कत और सौ रुपये का जुर्माना न देने की स्थिति में तीन महीने की कैद बा-मशक्कत की सजा दी जा रही है।” इसके साथ ही उन्हें धुलिया की जिला जेल में बंद कर दिया गया।
जेल में मधु जी के साथ डॉ. अब्दुल हमीद काजी भी बंद थे। उन्होंने काजी जी से उर्दू भाषा भी सीख ली। ग्यारह महीने बीत जाने पर जेल से उनकी रिहाई हुई।
1942 ई. में गांधी जी द्वारा ‘अंग्रेज़ो भारत छोड़ो’, ‘करो या मरो’ का उदघोष किया गया। इक्कीस वर्ष के मधु लिमये को पुनः 1943 ई. में आज़ादी की इस जंग में डिफेंस ऑफ इण्डिया रूल में गिरफ़्तार कर वर्ली, यरवडा एवं विशापुर की जेला में बिना कोई मुकदमा चलाए रखा गया।
दो साल बाद 1945 ई. में युद्ध समाप्ति के बाद इनकी रिहाई हुई। देश आज़ाद हो गया था, परंतु गोवा अभी भी पुर्तगालियों के अधीन था। मधु लिमये ने गोवा की आज़ादी के लिए पुनः संघर्ष किया। पुर्तगाली मिलिट्री शासन ने इन्हें बारह वर्ष की सजा देकर कैद कर लिया। इस आंदोलन में मधु जी को पुलिस के द्वारा इतनी बुरी तरह से पीटा गया कि एक बार तो यह खबर उड़ गयी कि मधु लिमये नहीं रहे।
मधु जी ने अपना लड़कपन आज़ादी पाने के लिए लगा दिया। जब भारत को आज़ादी मिली तब मधु जी पच्चीस साल के थे। उनकी बुद्धिमत्ता, त्याग, संघर्ष के कारण जयप्रकाश नारायण, डॉ. राममनोहर लोहिया ने उन पर विविध ज़िम्मेदारी डाली। अंतरराष्ट्रीय मामलों की गहरी जानकारी होने के आधार पर पच्चीस वर्ष के लिमये को 1947ई. में एंटवर्प में होनेवाले ‘सोशलिस्ट इंटरनेशनल’ के सम्मेलन में भाग लेने के लिए सोशलिस्ट आंदोलन का प्रतिनिधि बनाकर भेजा। उसके बाद एशियाई सोशलिस्ट ब्यूरो के सेक्रेटरी के रूप में रंगून भेजा गया। इसी मध्य वे इंग्लैंड, फ्रांस, चेकोस्लोवाकिया, स्विट्ज़रलैंड और इटली भी गये। वापिस आने पर उन्होंने पार्टी को यूरोप के तत्कालीन हालात की विस्तृत पृष्ठभूमि की जानकारी देते हुए अमरीका की मार्शल योजना, सोवियत संघ के अंदर अधिनायकवादी साम्यवाद, अन्य देशों में कम्युनिस्ट पार्टियों द्वारा समाजवादी दलों के अंदर घुसपैठ और कुछ पूर्वी यूरोपीय एवं इटली के समाजवादी दलों द्वारा सोवियत संघ के प्रति पक्षपात या नाराजगी से डर, ब्रिटेन की लेबर पार्टी द्वारा ब्रिटिश साम्राज्यवादी व राष्ट्रीय हितों के रक्षार्थ सोवियत संघ की घुसपैठ पर चुप्पी, अन्य देशों के समाजवादियों द्वारा भी उपनिवेशों के प्रश्न पर निश्चिंतता, सम्मेलन में एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमरीका के संबंध में कोई उल्लेख तक न होने का पूरा विवरण दिया है।
जब शीतयुद्ध की शुरुआत हो रही थी, सोवियत संघ के आदेश पर दुनिया भर के कम्युनिस्ट उसके प्रसारवाद के हित साधक बनने लगे थे। तब पूरी सफाई के साथ मधु लिमये ने इस सारे षड्यंत्र का गहरा विश्लेषण किया। दूसरी ओर यूरोप पर अमरीका के बढ़ते प्रभाव और पश्चिमी यूरोप के समाजवादियों द्वारा अमरीकी मार्शल योजना के समर्थन और सम्मेलन के पूर्णतः यूरोप केंद्रित होने को भी रेखांकित किया। वास्तव में यह रिपोर्ट विश्वयुद्ध के खात्मे के हालात से लेकर 1947 के अंतिम दिनों तक का पूरा दस्तावेज़ है।
मैंने लगभग सत्तावन साल पहले मधु जी को देखा था, तब से लेकर उनके इंतकाल के दिन तक मुझे उनके साये तथा वात्सल्य पाने का सुनहरा मौका मिला था जिसका एक बड़ा कारण मेरा दिल्ली का बाशिंदा होना था।
मधु जी 1964 में बांका (बिहार) से लोकसभा चुनाव जीत कर दिल्ली आ गए थे। नार्थ एवेन्यू, दिल्ली में संसद सदस्यों के लिए बने फ्लैटों में वे रहने लगे थे। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी दिल्ली के सदर मास्टर नुरुद्दीन साहब हुआ करते थे। जामा मस्जिद पर उनकी कबाड़ी की दुकान थी, मास्टर साहब अक्सर जामा मस्जिद चौक पर सोशलिस्ट पार्टी का ‘हंगामी जलसा’ एक हैंडबिल जो आधा हिंदी में आधा उर्दू में होता था बंटवाते। उनकी कोशिश रहती थी कि सोशलिस्ट पार्टी का कोई संसद सदस्य उसमें भाग ले, इस सिलसिले में वह एक दिन मुझे और दो-तीन साथियों को तांगे में बैठाकर साउथ एवेन्यू में मधु जी को जलसे में बुलाने के लिए गए। घंटी बजाने पर हाथ से धुली खादी की आधी बाँह की बनियान तथा पायजामा पहने हुए मधुजी ने दरवाज़ा खोला। मास्टर साहब का मधु जी से पहले ही लोहिया के फर्रुखाबाद लोकसभा चुनाव में परिचय हो चुका था। मास्टर साहब ने मधु जी से कहा कि आप जलसे में आइए, मधु जी ने इनकार कर दिया। बात बीच में छोड़कर मधुजी तेज़ी से रसोईघर में चले गए, वहाँ वो कुछ पका रहे थे, वापिस आकर उन्होंने पूछा पानी पियोगे? हमारे इनकार करने पर हाथ जोड़कर वे रसोईघर की ओर चले गए। मास्टर साहब और मुझे बुरा लगा, हमें लगा कि ये तो बड़े रूखे लीडर हैं। पहली बार रू-ब-रू मधु जी को देखा था।
1966 में दिल्ली में समाजवादी युवजन सभा तथा स्टूडैन्ट फैडरेशन के संयुक्त आह्वान पर छात्र मार्च रखा गया था। मैं तब तक दिल्ली विश्वविद्यालय छात्रसंघ का उपाध्यक्ष चुन लिया गया था। इस सिलसिले में मैं हमारे नेता प्रो. विनय कुमार मिश्रा, ब्रजभूषण तिवारी, सत्यदेव त्रिपाठी मधु जी से मिलने गए। उस दिन मधुजी दूसरे ही रूप में लगे, चम्पा जी (मधु जी की पत्नी) बम्बई से आयी हुई थीं, एक मराठी मिठाई तथा नमकीन मधु जी प्लेट में लेकर खुद बाहर आए। हम सब हड़बड़ाहट में उठ खड़े हुए, विनय कुमार जी ने मधु जी से कहा आप बैठिए, हम अपने आप ले लेंगे। बातचीत में मेरा विशेष परिचय करवाया गया। इतनी देर में चम्पा जी भी आ गयी थीं। मधु जी ने चाय के लिए पूछा, हम सबने समवेत स्वर में मना कर दिया। पहले के मिलने तथा दूसरी बार के मिलने पर मेरा मधु जी के बारे में इम्प्रेशन बिलकुल बदल गया था।
उस समय दिल्ली विश्वविद्यालय में विद्यार्थियों के बीच वैचारिक रूप से अपने शक्ति प्रदर्शन की होड़ चलती थी। सोशलिस्ट, कम्युनिस्ट, विद्यार्थी परिषद्, यूनिवर्सिटी के कन्वोकेशन हॉल में अपने लीडर को किसी विषय पर भाषण करवाने के लिए बुलाते थे तथा हॉल में सबसे ज़्यादा हाजिरी हो इसका प्रयास करते थे। डॉ. लोहिया, राजनारायण, मधु लिमये तथा बाद में जॉर्ज फर्नांडीस, हमारे प्रमुख लीडर थे। सबसे पहले हमने डॉ. लोहिया को दिल्ली यूनिवर्सिटी के जुबली हॉल में भाषण के लिए बुलवाया। डॉ. स्वरूप सिंह जो कि कभी दिल्ली सोशलिस्ट पार्टी के सदर रह चुके थे वे जुबली हॉल के वार्डन थे। रमा मित्रा जी डॉ. साहब के साथ वहाँ आयी थीं।
इसी सिलसिले में मैं मधु जी को बुलाने उनके घर गया था, सर्दी के दिन थे कोई आया हुआ था। मधु जी उनसे पूछ रहे थे कि रजाई कहाँ मिलेगी, मैंने बीच में ही कहा कि मधुजी जामा मस्जिद चौक पर 6-7 दुकानें हैं, मेरा घर भी वहीं है, मैं ले आऊँगा। मधु जी अचकचाये। उसी दिन जामा मस्जिद से दो रजाइयां खरीद कर मैं मधु जी के घर पहुँच गया। मधु जी थोड़े हैरान थे, उन्होंने पूछा कितने पैसे, मैंने आनाकानी की। मधु जी ने लगभग डांटते हुए, शायद एक-दो रुपया ज़्यादा ही था मुझे दिये तथा पहली बार अपने हाथ से तैयार कॉफ़ी पीने को दी।
उस दिन से मेरी एन्ट्री मधु जी के घर में हो गयी। दरअसल मधु जी बहुत ही व्यवस्थित, व्यस्त जीवन जीते थे, स्वभाववश वे बहुत जल्दी निजी रूप से किसी से जुड़ते नहीं थे। मेरा आना जाना शुरू हो गया। उन दिनों मधु जी संसद में छाये हुए थे, अध्ययन और किताबों में डूबे रहते थे।
मधु जी से पहले ही मेरा रिश्ता राजनारायण जी के साथ जुड़ चुका था। जामा मस्जिद के हंगामी जलसे में राजनारायण जी रामसेवक यादव जी के साथ तकरीर करने आए थे। हमारे नेता प्रो. विनय कुमार, राजनारायण जी के सचिव के रूप में 95 साउथ एवेन्यू में उनके साथ ही रहते थे। दोनों नेताओं के लिए मेरी पूर्ण आस्था थी। राजनारायण जी, जिनका घर एक धर्मशाला की तरह था, हर कार्यकर्ता बे रोक-टोक उनसे मिल सकता था तथा व्यक्तिगत परेशानी बयां कर सकता था। संघर्ष का मुसलसल सिलसिला उनकी दिनचर्या में शामिल रहता था।
डॉ. साहब के इंतकाल के बाद लगता था कि उनके विचारों, सिद्धांतों, चिंतन को आगे बढ़ाने का कार्य मधु जी करेंगे तथा अन्याय, जुल्म, गैर-बराबरी के खि़लाफ़ सिविल नाफरमानी की कमान राजनारायण जी सॅंभालेंगे।
(जारी)