— प्रोफेसर राजकुमार जैन —
बर्तानिया हुकूमत तथा पुर्तगाली गुलामी से हिंदुस्तान को आजादी दिलाने के लिए तो मधु जी ने लंबा कारावास भोगा ही था, परंतु आजाद हिंदुस्तान में भी अन्याय, गैर-बराबरी तथा नागरिक आजादी के खात्मे के विरुद्ध लगातार संघर्ष किया।
1958 में हिसार (हरियाणा), 1968 में मुंगेर तथा 1970 में बनारस में उनकी गिरफ्तारी हुई, 1972 में इलाहाबाद, 1975 में आपातकाल में मध्य प्रदेश में भी वे गिरफ्तार हुए।
मधु जी अदालत में अपने केस तो खुद ही लड़ते थे तथा जेल में निर्दोष सताए हुए नागरिक आजादी के लिए लड़नेवाले लोगों के केस की भी हैबियस कार्पस के माध्यम से पैरवी करते थे।
मुझे भी मधु जी के साथ जेल काटने का मौका मिला है। मई 1974 में मधु जी सुप्रीम कोर्ट में अपना केस लड़ने के लिए दिल्ली की तिहाड़ जेल लाए गए थे। जॉर्ज फर्नांडीज भी रेल हड़ताल के कारण बंदी थे। दिल्ली के दिल्ली कॉलेज ऑफ इंजीनिरिंग, कश्मीरी गेट के छात्र आंदोलन के सिलसिले में मैं भी तिहाड़ में बंदी था।
मधु जी के द्वारा नागरिक आजादी के लिए लड़ने का जज्बा मैंने तिहाड़ जेल में देखा। हमारे वार्ड में तीन कैदी– रामसिंह, रामचंद, ललित कुमार झाडू लगाने के लिए आए थे। मधु जी ने उऩसे पूछा कि तुमने क्या अपराध किया है। उस समय फौजदारी कानून की 55/109 या 151/107 धाराओं के अंतर्गत पुलिस किसी भी सामान्य व्यक्ति को इस आधार पर गिरफ्तार कर सकतीफ थी कि उसके पास कोई वैध आजीविका साधन नहीं है, उसकी बुरी नजर कार चुराने की थी। आवारागर्दी के नाम पर उन तीनों को गिरफ्तार कर लिया गया। मजिस्ट्रेट ने एक साल की कैद की सजा देकर जेल भेज दिया। उनकी जमानत करवाने वाला कोई नहीं था। मधु जी ने रामसिंह और ललित कुमार के दोस्त के नाते एक याचिका सर्वोच्च न्यायालय को भेजी। इस नृशंस दुनिया में उन बेचारे असहाय लड़कों का दूसरा कौन दोस्त हो सकता है? सर्वोच्च न्यायालय के रजिस्टर पर मुझे पता चलता है कि जल्दी ही इस याचिका पर सुनवाई होगी।
मधु जी लिखते हैं कि हॉल में ही विधि मंडल की जेल संबंधी समिति की जाँच रपट पेश हुई है। उसके अनुसार बिहार की गया जेल में 6 साल से एक बंदी को रखा गया था, न उस पर मुकदमा दायर किया गया था, न उसको जमानत पर रिहा किया गया था। कभी उसको मजिस्ट्रेट के सामने खड़ा किया गया था, पुलिस उसके खिलाफ जारी किया गया वारंट ले जाती है। मजिस्ट्रेट उस पर आगे की तारीख लिखता है और दस्तखत करता है। उसके आधार पर जेल के अधिकारी उसे जेल में बंद रखते हैं। यहां स्वामी और महात्मा अध्यात्म की चिंता नहीं करते। संपत्ति के अधिकार की रक्षा कैसे करें इसकी चिंता करने में वे व्यस्त रहते हैं। मनचाही फीस लेकर बड़े-बड़े वकील संपत्ति संबंधी मुकदमों में विवाद करते समय स्वतंत्रता तथा जनतंत्र के महत्त्व का बखान करते हैं। उसी समय जेल की चहारदीवारों के अंदर रामसिंह, ललित कुमार और रामचंद्र अपने फूटे नसीब को दोष देते हुए आंसू बहाते हैं और जैसे-तैसे समय बिताते हैं।
मधु जी कितने संवेदनशील थे उन्होंने लिखा “ऐसे अन्याय का प्रतिकार करने का दूसरा ढंग अहिंसा के पुजारियों को, गांधी और लोहिया के शिष्यों को मालूम है, क्या वह मालूम नहीं होगा तो अधिकारों की रक्षा के बारे में बकबक करना बंद होना चाहिए। हर जेल यात्रा के बाद रिहाई के वक्त मैं ज्यादा दुखी होकर जेल से बाहर आता हूं। बहुत समय से मेरी यह हालत हो रही है।”
इसी तरह मेरे केस में भी मधु जी ने 31 मार्च, 1984 को सुप्रीम कोर्ट में संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत हैवियस कार्पस याचिका भेजी।
केस इस प्रकार था कि 2 फरवरी, 1978 को ईरान का शाह भारत के दौरे पर दिल्ली आया हुआ था। उनके खिलाफ दिल्ली, जे.एन.यू. के छात्रों ने प्रदर्शन किया था, ईरान का शाह निरंकुश तानाशाह था। 16 ईरानी छात्रों को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया उनकी जमानत करवाने वाला हिंदुस्तान में कोई नहीं था। अगर उऩकी सूची बन जाती और वापस ईरान भेज दिए जाते, तो शाह का अमानुषिक अत्याचारी विभाग उन्हें हवाई अड्डे पर ही गोली मारकर हत्या कर सकता था। कानून की धारा 110/111 तथा 112/117 में गिरफ्तार 16 ईरानी छात्रों की जमानत मैंने ले ली। मैं दिल्ली विधानसभा का सदस्य तथा मुख्य सचेतक था। ईरान में तख्ता पलट जाने पर वो छात्र वापस ईरान चले गए परंतु केस चलता रहा। 1980 में जज ने जमानती के रूप में जुर्माना न भरने के आरोप में शुरू में आठ साल की सजा मौखिक रूप से मुझे अदालत में सुनाई, परंतु जब मैंने कहा नागरिक अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाला तथा सिद्धांततः जुर्माना न भरने पर तथा मेरा केस बी.एम. तारकुंडे, आर.के.गर्ग, प्राणनाथ लेखी बिना फीस के लड़ेंगे तो जज ने डर के मारे 6 महीने की सजा देकर तिहाड़ जेल भिजवा दिया। मधु जी को सायंकाल पता चला, उनकी एक आंख पर पट्टी बंधी हुई थी, उन्होंने तभी हाथ से हैवियस कार्पस तैयार कर रात्रि 9 बजे भारत के मुख्य न्यायधीश यशवंत राव चंद्रचूड़ के निवास स्थान पर मशहूर सुप्रीम कोर्ट की वकील नित्या रामकृष्णा के हाथों उनके घर पर भिजवा दी। मुख्य न्यायाधीश ने मधु जी के कानूनी नुक्तों को देखकर अगले दिन के लिए केस लगा दिया। अगले दिन मुख्य न्यायाधीश यशवंत राव चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति आर.एस. पाठक, न्यायमूर्ति वी. खालिद की पीठ के सामने मेरे केस की सुनवाई हुई। मधु जी ने सुप्रीम कोर्ट में अपने मित्र की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की रक्षा पर बहस की। मुख्य न्यायधीश का चैंबर वकीलों से भरा था। मधु लिमये के तर्कों को सुनकर कोर्ट में सन्नाटा छा गया। हालांकि कोर्ट के आदेश से मेरी रिहाई हो गई, परंतु मधु जी इतने से संतुष्ट नहीं थे।
एक अन्य मामला बागपत के माया त्यागी हत्याकांड से जुड़ा था। जून 1980 में वहां के एक नृशंस थानेदार ने तीन निर्दोष लोगों की गोली मारकर हत्या कर दी थी। उस दरोगा का उस इलाके में आतंक था। मधु जी लोक दल के महामंत्री तथा चौ. चरणसिंह अध्यक्ष थे, वह चौ. चरणसिंह के प्रभाव वाला इलाका था। मधु जी को पता चला। मधु जी के नेतृत्व में वहां आंदोलन शुरू हो गया, प्रदर्शन में मधु जी के साथ मैं भी गिरफ्तार हो गया। गिरफ्तार करके हमको मेरठ जेल में बंद कर दिया गया।
जेल में मधु जी से एक सीख मिली। सायंकाल जेल कपांउड में सत्याग्रहियों की सभा होती थी। मधु जी ने मुझसे पूछा कि कितने लोग हैं, अहाता दूर तक भरा था, मेरे मुंह से हजारों लोग निकल गया। मधुजी ने कहा, गिरफ्तार कितने लोग हुए थे। मुझे अपनी गलती का एकदम अहसास हो गया। तब मधु जी ने हँसते हुए कहा कि तुम समाजवादियों की यह फितरत है कि विरोधियों की भीड़ की गिनती में तुम दो बिंदी घटा देते हो, और अपनी गिनती में एक बिंदी बढ़ा देते हो।
नागरिक आजादी के सवाल को वे हमेशा प्राथमिकता देते थे। सुप्रीम कोर्ट के जजों की सीनियारिटी समाप्त करने के विरोध में 1973 में विट्ठलभाई पटेल हाउस के लॉन में एक सभा हुई, जिसमें सीनियारिटी के शिकार जज तथा कई मशहूर वकीलों के साथ मधु लिमये भी एक वक्ता थे। सभा में मौजूद उस समय के नामवर संविधान विशेषज्ञ नानी पालकीवाला, जजों और महँगे वकीलों को फटकार लगाते हुए मधु लिमये जी ने कहा,
कि आप लोग संपत्ति के अधिकार के संबंध में तो सक्रिय होते हो परंतु नागरिक अधिकारों के बारे में आपको कोई चिंता नहीं। मधु जी ने उन महँगी फीस वाले वकीलों को कहा कि कम से कम एक केस बिना फीस लिये नागरिकों अधिकारों की रक्षा के लिए भी तो लड़ो, उसका असर यह हुआ कि एक सप्ताह के बाद दिल्ली की तीस हजारी कोर्ट में दिल्ली विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के विरुद्ध एक प्रदर्शन करने के कारण केस चल रहा था, जिसमें बाद में केंद्रीय मंत्री बने अरुण जेटली भी शामिल थे। पालकीवाला साहब छात्रों की वकालत करने जिला अदालत चले आए, अदालत में हल्ला हो गया, बेचारे जूनियर जज ने घबराहट में बिना बहस सुने रिहा करने के आदेश जारी कर दिए।
मैंने अपने जीवन में उन जैसे सिद्धांतों पर डटे रहनेवाले बहुत कम लोग देखे हैं। 1977 में बांका से चुनाव जीतकर मधुजी दिल्ली के वेस्टन कोर्ट के संसद सदस्यों के अस्थायी निवास पर टिके थे। जनता पार्टी की सरकर बन रही थी। जनता पार्टी के घटकों जनसंघ, सोशलिस्ट पार्टी, पुरानी कांग्रेस तथा सी.एफ.डी. तथा चंद्रशेखर जी के कोटे से तीन मंत्रियों का चयन होना था। सोशलिस्ट कोटे से मधु जी ने सोशलिस्ट पार्टी के साठ प्रतिशत सिद्धांत के अनुसार मधु दंडवते, जॉर्ज फर्नांडीज, पुरुषोत्तम कौशिक के नाम प्रस्तावित कर दिए। मुझे बुरा लग रहा था।
मैं चाहता था कि मधु जी मंत्री बनें, और मैं ही क्यों, मोरार जी देसाई, जो प्रधानमंत्री बन गए थे वे भी चाहते थे, परंतु मधु जी मंत्री नहीं बने।
हालांकि उस समय यह त्याग, जनसंघ घटक के नाना जी देशमुख तथा चंद्रशेखर जी ने भी किया था।
मोरार जी देसाई के बाद चौधऱी चरण सिंह प्रधानमंत्री बने, मेरा चौ. साहब से सीधा संबंध था। आपातकाल में दिल्ली की तिहाड़ जेल के एकांत सेल में, मैं और मेरे साथी रवीन्द्र मनचंदा केवल उनके साथ रहे थे। जब वो प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने मुझे कहा कि तुम अपने नेता को क्यों नहीं कहते कि वे विदेश मंत्री का भार संभाल लें। मैंने चौधरी साहब से सहज रूप में कह दिया कि मधु जी तो मोरारजी भाई के मंत्रिमंडल में भी नहीं गए तो चौधरी साहब ने कहा क्या मतलब है जी तुम्हारा, मैं क्या मोरारजी देसाई से कम हूं। मैंने कहा कि नहीं चौधरी साहब, उनको बनना ही नहीं है।
ईमानदारी, सादगी में चौ. साहब बेजोड़ व्यक्ति थे। वो भी मधु जी की बेहद इज्जत करते थे। लोकदल में चौधरी साहब से मधुजी का नीतियों को लेकर अलगाव हो गया। मधु जी ने कर्पूरी ठाकुर, चौ. देवीलाल जैसों के साथ मिलकर लोकदल (कर्पूरी ठाकुर) बना लिया। चौ. साहब आदतन, किसी के घर आते-जाते नहीं थे, अलगाव होने के बावजूद वे मधु जी के घर आते थे। तथा कहते थे कि भाई यह तो मेरे से भी ज्यादा ईमानदार है।
(जारी)