ये फैसले क्या न्याय व्यवस्था में हमारे भरोसे को पुख्ता करते हैं?

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— रामस्वरूप मंत्री —

मेरठ, मलियाना, मुजफ्फरनगर, गुजरात के नरोदा और दाहोद, सभी जगहों के दंगों के आरोपियों को एक-एक कर छोड़ा जा रहा है। बिलकिस बानो के सामूहिक रेप और वहां हुए दंगों के आरोपियों को भी सजा के बाद छोड़ दिया जाता है। रिहाई के बाद इनका एक हीरो की तरह भगवा ब्रिगेड द्वारा स्वागत किया जाना भी कहीं ना कहीं न्यायप्रिय लोगों के मन में न्यायपालिका के प्रति उनके भरोसे को डिगाता है। आखिर सामूहिक नरसंहार, सांप्रदायिक दंगों के आरोपियों को बाकायदा निर्दोष साबित करने के लिए आए न्यायालयों के ये फैसले क्या न्यायपालिका से लोगों का भरोसा खत्म नहीं करेंगे? हालांकि केंद्र की और भाजपा शासित राज्यों की सरकारों की हरकतों से लोगों ने मान लिया है कि अब अदालतों में भी सच की सुनवाई मुश्किल है। इसलिए अब जरूरी है की जनता सड़कों पर लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म किए जाने की कोशिशों के खिलाफ लामबंद हो।

1947 के बाद से देश में हजारों साम्प्रदायिक दंगे हुए हैं जिनमें हजारों लोग मारे गये हैं और लाखों परिवार तबाह हुए हैं। दंगों में हुए जानोमाल के नुकसान के जख्म तो वक्त के साथ भरने भी लगते हैं, लेकिन इंसाफ न मिलने और हत्यारों व बर्बर अपराधियों को बार-बार बचा लिये जाने के जख्म कभी नहीं भरते हैं।

वैसे तो अधिकांश दंगों में पुलिस-पीएसी और प्रशासन की भूमिका सन्दिग्ध रही है या खुल्लमखुल्ला बहुसंख्यक दंगाइयों के पक्ष में रही है, लेकिन कुछ ऐसी शर्मनाक घटनाएँ रही हैं जो “दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र” होने का दम भरने वाले इस देश की शासन व्यवस्था पर हमेशा एक भद्दे कलंक की तरह बनी रहेंगी। इनमें से एक है मलियाना की घटना जिसका एक और शर्मनाक अध्याय हाल में लिखा गया है।

पिछले तीन दशकों के दौरान चले “न्याय के नाटक” के दौरान 800 से भी ज्यादा सुनवाइयों के बाद मेरठ के जिला न्यायालय ने इस सामूहिक हत्याकाण्ड के सभी 40 अभियुक्तों को “पर्याप्त सबूतों के अभाव में” बरी कर दिया। मलियाना मामले में मूल रूप से 93 अभियुक्त शामिल थे। बाद के 36 वर्षों में कई अभियुक्तों की मृत्यु हो गई, जबकि कई अन्य का “पता नहीं लगाया जा सका” और अब इन बचे हुए 40 को भी छोड़ दिया गया है। फिर वही कहानी दोहरायी जा रही है कि मलियाना के 72 मुसलमानों को “किसी ने भी नहीं मारा!”

न्याय के नाम पर इस भद्दे मजाक की शुरुआत तो 36 साल पहले फर्जी एफआईआर लिखे जाने के साथ ही हो गयी थी!

22 मई को मेरठ के हाशिमपुरा मुहल्ले में पीएसी पहुँची और बड़ी संख्या में लोगों को ट्रकों में भरकर ले गयी और घरों और दुकानों में लूटपाट करके आग लगा दी। उठाये गये कुछ लोगों को मेरठ और फतेहगढ़ की जेलों में भेज दिया गया, लेकिन 42 मुसलमानों को गाजियाबाद के मुरादनगर में ऊपरी गंगा नहर और उत्तर प्रदेश-दिल्ली सीमा के नजदीक हिंडन नदी के पास ले जाकर गोली मार दी गयी और उनके शवों को पानी में फेंक दिया गया। इस बीच मेरठ और फतेहगढ़ जेल में बन्द 11 लोगों की पिटाई से हिरासत में मौत हो गयी।

अगले दिन पीएसी पास के मलियाना में पहुँची। कई चश्मदीद गवाहों ने कहा है कि 44वीं बटालियन के कमाण्डेण्ट आर.डी. त्रिपाठी समेत वरिष्ठ अधिकारियों के नेतृत्व में पीएसी ने 23 मई, 1987 को दिन के लगभग 2:30 बजे मलियाना में प्रवेश किया और 72 मुसलमानों को मार डाला। पीएसी की टुकड़ी के साथ बंदूकों और तलवारों से लैस सैकड़ों स्थानीय लोग भी थे। कत्लेआम मचाने से पहले इलाके में आने-जाने के सभी पाँच रास्तों को बन्द कर दिया गया था। प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार, “हर तरफ से मौत बरस रही थी। हत्यारों ने बच्चों और महिलाओं सहित किसी को भी नहीं बख्शा।”

जब खुद पुलिस इस बर्बरता में शामिल थी तो एफआईआर लिखे जाने का तो सवाल ही नहीं उठता था।

जिस ढंग से यह मुकदमा चल रहा था और जिस ढर्रे पर ऐसे तमाम हत्याकाण्डों के मुकदमे चलते रहे हैं, उसमें देरसबेर सब बरी हो जाते तो कोई हैरानी नहीं होती। लेकिन इस वक्त आनन-फानन में लाया गया यह फैसला आरएसएस और भाजपा सरकार के दबाव में हुआ है, यह सन्देह करने के पर्याप्त आधार हैं। यह उसी सिलसिले की एक और कड़ी है जिसके तहत गुजरात में बिलकिस बानो बलात्कार और हत्याकाण्ड के अभियुक्तों को बरी किया गया और देशभर में मुसलमानों के खिलाफ अपराधों में लिप्त लोगों को छोड़ा और बचाया जा रहा है। इस सब के जरिए भाजपा अपने समर्थकों को क्या संकेत दे रही है यह समझना कतई मुश्किल नहीं है।

मलियाना का मुकदमा 36 साल से घिसट-घिसटकर चल रहा था लेकिन अभी जब अचानक यह फैसला सुनाया गया तब तक कानूनी कार्यवाही ही पूरी नहीं हुई थी।

36 पोस्टमार्टमों पर सुनवाई नहीं हुई थी और दण्ड विधान की धारा 313 के तहत अभियुक्तों से जिरह भी नहीं हुई थी। यहाँ तक कि गवाहों से पूछताछ भी पूरी नहीं की गयी थी। 10 से भी कम चश्मदीद गवाहों को अदालत में पेश किया गया था जबकि कुल 35 गवाह मौजूद थे। सरकारी वकील के मुताबिक सबको बरी किये जाने का आधार यह था कि पुलिस ने अभियुक्तों की पहचान परेड तक नहीं करायी थी।

अप्रैल 2021 में वरिष्ठ पत्रकार क़ुरबान अली और पूर्व आईपीएस अधिकारी विभूति नारायण राय ने इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर करके 23 मई 1987 की घटनाओं के लिए विशेष जाँच टीम गठित करने और निष्पक्ष तथा त्वरित सुनवाई कराये जाने की अपील की। इस याचिका के अनुसार एफआईआर सहित मुकदमे के कई खास दस्तावेज रहस्यमय ढंग से गायब हो चुके हैं और पुलिस तथा पीएसी के लोग पीड़ितों और गवाहों को बार-बार धमकाते रहे हैं।

हाशिमपुरा हत्याकाण्ड के मुकदमे में 2018 में आए फैसले में 16 पुलिसकर्मियों को दोषी पाया गया था और उसमें मारे गये 42 मुसलमानों के परिवारों को 20-20 लाख रुपये मुआवजा मिला था। लेकिन मलियाना के हत्याकाण्ड में तो पुलिस का नाम भी नहीं आया। इलाहाबाद हाईकोर्ट ने उत्तर प्रदेश सरकार को जवाबी हलफनामा दायर करने का आदेश दिया था। हालाँकि जनहित याचिका अभी भी हाई कोर्ट में लम्बित है लेकिन अब मेरठ की अदालत द्वारा सभी अभियुक्तों को बरी किये जाने के बाद पूरी सम्भावना है कि राज्य सरकार उच्च न्यायालय से यह मामला बन्द करने के लिए कहेगी।

इसी तरह 2002 के गुजरात दंगों के दौरान हुए नरोदा कांड के सभी 67 आरोपियों को अहमदाबाद की सेशन कोर्ट ने बरी कर दिया। 21 साल बाद आए फैसले में कोर्ट को आरोपियों का दोष साबित करने के लिए पर्याप्त सबूत नहीं मिले। 28 फरवरी 2002 को अहमदाबाद शहर के पास नरोदा गांव में हुई सांप्रदायिक हिंसा में 11 लोग मारे गए थे।

अदालतों और जाँच आयोगों की रिपोर्टों में दफना दिये गये अनेक मामलों की तरह मलियाना, नरोदा, हाशिमपुरा या बिलकिस बानो मामले भले ही बन्द कर दिये जायें, मगर  इस देश के इंसाफपसन्द लोग कभी भी ऐसे झूठे फैसलों को स्वीकार नहीं करेंगे। ये मामले एक बार फिर हमें याद दिलाते हैं कि किसी भी रंग के झण्डे वाली चुनावबाज़  पार्टियाँ न तो साम्प्रदायिक दंगों को रोक सकती हैं और न ही उनके आरोपियों को सज़ा दिला सकती हैं। जनता का आन्दोलन ही इसके लिए दबाव बना सकता है और सच्चे सेकुलर आधार पर समाज के नवनिर्माण का रास्ता खोल सकता है।

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