(राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारी विचार ने भी अंतरराष्ट्रीय राजनीति को किस तरह, पुरअसर तरीके से, प्रभावित और प्रेरित किया, यह जानने के लिए, गहन अध्ययन, चिंतन और मनन से उपजे, समाजवादी नेता एवं चिंतक मधु लिमये द्वारा 19 सितंबर 1981को मुंबई के एक खचाखच भरे सभागृह में दिए गए व्याख्यान का ये अंश पठनीय और विचारणीय है क्योंकि वर्तमान भारतीय राजनीतिक परिदृश्य पर ऐसे हुक्मरानों की काली छाया मंडरा रही है जो अपने भक्तों के माध्यम से इस क्रांतिकारी विचारधारा का अपनी काली करतूतों से, जी-जान लगाकर विरोध कर रही है और दुनिया की महफिल में भारत को शर्मसार कर रही है।)
इस व्याख्यान में मधुजी ने कहा कि,
“…..हमारा राष्ट्रीय स्वतंत्रता का आंदोलन भी एक क्रांतिकारी विचार का प्रतीक था क्योंकि विश्व की साम्राज्यशाही का भारत आधार था। स्वयं अंग्रेज हिंदुस्तान को अपने साम्राज्य का कौस्तुभ मणि मानते थे।
महात्मा गांधी के नेतृत्व में, इस साम्राज्य को हिलाने वाला जो आंदोलन शुरू हुआ,–असहयोग का, सिविल नाफरमानी का,–इससे आजादी के पहले ही भारत एक क्रांतिकारी विचार का वाहक बन गया था, और जितने उपनिवेश थे, वहाँ वहाँ राष्ट्रीय चेतना जगने लगी थी। वे सभी देश भारत के स्वतंत्रता आंदोलन की तरफ आशा से देखते थे और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन से प्रेरणा लेते थे।
इस आंदोलन के जो नेता रहे हैं, महात्मा गांधी के अलावा जवाहरलाल नेहरू वगैरह—उनका सीमित, संकीर्ण राष्ट्रीय दृष्टिकोण नहीं था। उनकी दृष्टि में भारत का स्वतंत्रता आंदोलन एक महान विश्वव्यापी साम्राज्यशाही विरोधी आंदोलन का एक हिस्सा था, इसलिए मिस्र के साथ हमारे अच्छे रिश्ते थे। उनके प्रतिनिधि कांग्रेस अधिवेशनों में उपस्थित रहते थे। फिलीपींस के आंदोलन के साथ हमारा अच्छा रिश्ता था। अफ्रीका के लोगों के साथ हमारे गहरे ताल्लुकात थे।
जवाहरलाल जी ने दूसरा कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद,1936 में पहली बार अखिल भारतीय कांग्रेस का वैदेशिक कार्यालय खोला, उन्होंने हमारे नेता स्वर्गीय डॉ राममनोहर लोहिया को 26 साल की उम्र में, वैदेशिक विभाग का सचिव नियुक्त किया।
उस जमाने में डॉ राममनोहर लोहिया ने विश्व के जितने प्रगतिशील आंदोलन थे, उनके साथ राष्ट्रीय कांग्रेस के रिश्ते स्थापित किये थे। इतना ही नहीं, फिजी, मॉरीशस जैसे देशों में जो प्रवासी भारतीय हैं, ओवरसीज इंडियंस, उनकी संस्थाओं के साथ भी लोहिया जी ने नाता-रिश्ता जोड़ा और आज तक इन देशों के साथ अपने अच्छे रिश्ते रहे हैं।ब्रुसेल्स में एक संस्था स्थापित हुई थी- लीग अगेंस्ट इम्पीरियालिज़्म- उसके साथ भी जवाहरलाल जी का संबंध रहता था।
तो मैं कहना चाह रहा था कि जिस तरह फ्रांस की राजनीति ने समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे का संदेश दिया, पूंजीवादी प्रणाली का श्रीगणेश किया; रूस की राज्य क्रांति ने जारशाही का नाश करके श्रमिक एकाधिकारशाही की स्थापना की, कम्युनिस्ट विचारों के विस्तार की शुरुआत रूस में की, उसी तरह भारत के आजादी के आंदोलन ने साम्राज्यशाही के वर्चस्व से मुक्त दुनिया का निर्माण करने का एक महान संदेश केवल हिंदुस्तान की जनता को ही नहीं, हिंदुस्तान के बाहर जो सारे उपनिवेश थे, उनको भी दिया।
लेकिन हमलोगों का दुर्भाग्य रहा कि जिस संयुक्त हिंदुस्तान की मुक्ति की कल्पना हमलोग करते थे, वह परिकल्पना ही रही, धरातल पर नहीं उतरी और हमलोगों को आजादी की एक जबरदस्त कीमत चुकानी पड़ी। दूसरे देशों ने तो महान त्याग किया, बलिदान दिया। अल्जीरिया जैसे देश में, वियतनाम जैसे देश में, आबादी के लगभग एक-एक, दो-दो, तीन-तीन प्रतिशत लोग मर गए, शहीद हो गए।आजादी की लड़ाई में इतना बलिदान, इतनी कुर्बानी, इतनी शहादत तो हमने नहीं दी, लेकिन आजादी की हमने एक दूसरे ढंग से कीमत चुकाई। मुल्क का जब बंटवारा हुआ तो आपलोग जानते हैं कि जितने बड़े पैमाने पर शरणार्थी एक इलाके से दूसरे इलाके में, एक देश से दूसरे देश में गए, उतने पहले कभी नहीं गए थे, विश्व इतिहास में। इतने बड़े पैमाने पर शरणार्थी हो गए और उस समय जो दंगे हो गए, उनमें पांच-छह लाख आदमी मारे गए। इतना ही नहीं, इसके बाद सुरक्षा की दृष्टि से हिंदुस्तान की स्थिति में एक गुणात्मक परिवर्तन आया। स्वतंत्रता के नेता इन दूरगामी परिणामों का सही अनुमान नहीं लगा पाये।
मेरे कहने का मतलब है कि शक्तिशाली, संयुक्त आजाद हिंदुस्तान स्थापित होता तो हमारी सुरक्षा की समस्याएं बिलकुल अलग रहतीं, हमारी वैदेशिक नीति इतनी जकड़ में नहीं आती।….”
— प्रस्तुति : विनोद कोचर