एड्डेलु कर्नाटका अभियान ने क्या किया

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13 मई। कर्नाटक विधानसभा चुनाव में सिविल सोसायटी की भी अहम भूमिका रही, जैसा कि शायद ही कभी, या कभी-कभार होता है। तमाम चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों तथा एक्जिट पोल्स ने पहले ही संकेत दे दिए हैं कि जनादेश भाजपा के खिलाफ होगा। भाजपा की हार सुनिश्चित करने में कुछ न कुछ हाथ सिविल सोसायटी का भी रहा है।

भारतीय जनता पार्टी ने लंबे समय तक कर्नाटक पर राज नहीं किया, लेकिन हिंदुत्व के नाम से होनेवाले सांप्रदायिक षड्यंत्रों, जहरीले प्रचार और हिंसा की घटनाएँ वहाँ लंबे समय से हो रही हैं। आपरेशन कमल यानी खरीद-फरोख्त के जरिए भाजपा ने कर्नाटक में सरकार बनायी, तब से ऐसी घटनाओं में और तेजी आ गयी। गौरक्षा और धर्मान्तरण रोकने के नाम पर बेहद दमनकारी कानून बनाए गए और मुसलिम तथा ईसाई समुदायों को उत्पीड़ित और अपमानित करने के लिए इन कानूनों का जमकर इस्तेमाल किया गया। संघ परिवारी संगठन मुसलमानों के आर्थिक बहिष्कार के आह्वान, हिजाब विवाद, अल्पसंख्यकों को मारने-पीटने, हथियारों के साथ जुलूस निकालने जैसी गतिविधियाँ खुलेआम करते रहे और सरकार मूकदर्शक बनी रही। इसके अलावा चालीस फीसद कमीशनखोरी से कलंकित यह सबसे भ्रष्ट सरकार भी थी। जो कर्नाटक अपने संतों, साहित्य और संगीत के लिए तथा विज्ञान व तकनीक की संस्थाओं के लिए जाना जाता है, उसकी छवि पर इतने दाग कभी नहीं लगे थे जितने भाजपा-राज में लगे।

इस सब से स्वाभाविक ही कर्नाटक के बौद्धिकों, जन संगठनों, आंदोलनकारी समूहों और सरोकारी नागरिकों का चिंतित होना स्वाभाविक था और उन्होंने भाजपा सरकार की विदाई के लिए खुलकर साथ आना तथा मुखर होना स्वीकार किया। अमूमन ऐसे मामलों में सैद्धांतिक सहमति तो बन जाती है लेकिन व्यावहारिक तथा रणनीतिक आमराय बन पाना बहुत कठिन होता है। लेकिन एड्डेलु कर्नाटका (जागो कर्नाटका) नाम से सिविल सोसायटी की जो साझा पहल हुई उसकी खूबी यह थी कि मतदाता जागरण का निराकार आह्वान करने या भाजपा हराओ की सामान्य अपील करने के बजाय भाजपा को हराने की अपनी रणनीति तैयार की गयी। यह साझा रणनीति कहती थी कि अपना वोट बँटने न दें, बर्बाद न होने दें, उसी उम्मीदवार को वोट दें जो भाजपा को हराने में सक्षम दीखे। कई जगह छोटे दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों को चुनाव मैदान से हट जाने के लिए मनाने में भी एड्डेलु कर्नाटका को कामयाबी मिली।

इस अभियान को पूरे कर्नाटक में एक ओर बुद्धिजीवियों, लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, कलाकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का समर्थन मिला तो दूसरी ओर कर्नाटका राज्य रैयत संघ दलित संघर्ष समिति जैसे संगठनों का भी। इस अभियान से जीएन देवी, देवानूरा महादेवा, पुरुषोत्तम बिलिमाले, तारा राव, दू सरस्वती, रहमत तारिकेरे और एआर वसावी जैसे विख्यात लोग जुड़े हुए थे। इस अभियान को स्वराज इंडिया के योगेन्द्र यादव का भी साथ मिला। इन सब ने तय किया था कि भाजपा को हराने के लिए बड़े पैमाने पर एक नागरिक अभियान जरूरी है, जिसका किसी दल से वास्ता नहीं होना चाहिए, लेकिन भाजपा की विदाई सुनिश्चित करना जिसका साझा मकसद हो। अभियान ने किसी भी राजनीतिक दल से किसी प्रकार की कोई मदद नहीं ली। भाजपा को हराने के लिए यह एक स्वतंत्र अभियान था जिसके तहत पुस्तिकाएँ निकाली गयीं, परचे बाँटे गए, बयान जारी किए गए, बैठकें-गोष्ठियाँ-वर्कशाप-सभाएँ समेत करीब सौ विधानसभा क्षेत्रों में जनसंपर्क के कार्यक्रम किए गए, गीत और वीडियो जारी किए गए और यह सब भाजपा के पैसा-बहाऊ प्रचार की काट करने में सहायक सिद्ध हुआ।

चूँकि कांग्रेस ही भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी पार्टी थी इसलिए भाजपा विरोधी अभियान का लाभ उसे मिलना ही था, और नतीजों से जाहिर है कि मिला है। लेकिन एड्डेलु कर्नाटका में शामिल व्यक्तियों और समूहों ने यह स्पष्ट कर दिया था कि उनके भाजपा विरोधी अभियान का यह अर्थ नहीं है कि कांग्रेस की सरकार आने के बाद वे गलत चीजों पर आवाज नहीं उठाएँगे। सभी मुद्दों पर उनका रुख और संघर्ष कायम रहेगा। भाजपा को हराने का अभियान लोकतंत्र और संविधान को बचाने के तकाजे से जुड़ा है।

कर्नाटक में सिविल सोसायटी का अभियान रंग लाया। क्या अन्य राज्यों में भी ऐसी पहल हो सकेगी?

(इनपुट gaurilankeshnews.com से साभार)

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