— ध्रुव शुक्ल —
आज़ादी के बाद यह सुनते-सुनते कान पक गये कि — जनता ही देश की मालिक है। वह चुनाव पद्धति से अपने नेता चुन देती है। नेता जनता का काम चलाने के लिए कुछ मुट्ठी भर प्रशासक चुन लेते हैं। जनता सहित सबकी निगरानी और अपराधों की सजा देने के लिए न्यायालय स्थापित हैं। आये दिन यही दिखायी देता है कि नियम बनाने वाले और उनके अनुसार राजकाज चलाने वाले अपनी भूल-ग़लतियों और लापरवाहियों के कारण न्यायाधीशों के आगे निरुत्तर खड़े दिखायी देते हैं, उनकी डांट खाते हैं। न्याय की गति बिलम्बित है। सब अपनी-अपनी भूमिका में आखिर हैं तो देश की जनता ही, यानी जनता ही जनता का राज्य चला रही है। कभी यह अनुभव होता है कि जो राजकाज संभालने लगते हैं वे जनता नहीं रह जाते, शायद कुछ और हो जाते हैं! उनके आगे बाकी बचा देश जनता कहलाने लगता है!
जो जनता अभावग्रस्त है उसकी आवाज़ उठाने का धंधा करने के लिए सैकड़ों राजनीतिक दलों के विचारशून्य नेता, जो जनता के बीच से ही आते हैं, वे भी जनता ही तो हैं और अपनी जनता का हवाला देकर जाति, संप्रदाय और मज़हब के नाम पर सत्ता पाने की सौदेबाजियां करते रहते हैं। जो कुछ संतुष्ट और खूब खाती-पीती जनता है, वह अपने लिए चुनी हुई चुप्पियां साधकर चुप बैठी रहती है और जो अंगुलियों पर गिनी जाने वाली अमीर जनता है वह किसी भी राजनीतिक दल की सत्ता को अपने पक्ष में साधकर अपने मुनाफे का रास्ता बनाती चलती है। अब तक देश के जीवन में दारिद्र्य कम नहीं हुआ और कोई बड़ा सुख-शांतिमय बदलाव भी नहीं आया, दुख का अज्ञान, आलस्य और अशांति ही बढ़ी है। बस राजनीतिक झण्डे बदलते हैं पर झंझट कम नहीं होती। सब यही कहते रहते हैं कि जनता सब कुछ देख रही है।
मन में आया कि ख़ुद अपने आपको भी तहेदिल से जनता का हिस्सा मानकर सब कुछ देखने वाली जनता मालकिन से ही बात करना चाहिए कि वह तमाशबीन क्यों बनी हुई है। वह जब ख़ुद ही मालिक है तो कुछ करती क्यों नहीं?
आखिर जनता ही तो है जिसके बीच से नेता चुनकर आते हैं। जनता जात-पांत के भेद और मज़हबी पाखण्ड को छोड़ नहीं पाती तो उसके नेता उसी की मजबूरी का इस्तेमाल करके अपनी सत्ता बनाये रखने की रणनीतियां बना लेते हैं और सफल भी हो जाते हैं। जनता के बीच से ही वे तरह-तरह के ठेकेदार, व्यापारी और बिचौलिए आते हैं जो कच्चे पुल और सड़कें बनाते हैं, ग़ैर ज़रूरी चीजों की दूकान सजाते हैं और हर तरह के जीवन की गुजर-बसर में टांग अड़ाकर जनता और राजकाज के बीच दलाली करते हैं। ये सब भी जनता ही तो हैं और जनता इन्हीं से अपना काम चला रही है।
स्कूलों के परीक्षा-प्रश्नपत्र आउट करने वाले लोग जनता ही तो हैं और इन प्रश्नपत्रों को अपने बच्चों के लिए ख़रीदकर झूठी परीक्षा में बिठाने वाली जनता ही है। गुण्डे- लफंगे भी जनता हैं। जनता को जनता से ही बेखबर बनाये रखने वाले मीडिया हाउस में कुतर्क रचने वाली एंकर सुंदरियां भी किसी लोक की अप्सराएं तो नहीं, वे भी जनता ही हैं। जनता ही तो है जिसके बीच से ही लड़कियों की स्मगलिंग करने वाले, बच्चों का यौन शोषण करने वाले, अकाउण्ट हैक करने वाले, जान से मारने की सुपारी लेने वाले, अन्न की जहरीली खेती करने वाले, मिलावटी और नकली सामान बेचने वाले आते हैं। अपनी मौत का सामान अगर जनता ही जनता से ख़रीदने और बेचने की आदत डाल चुकी है तो फिर वह किसी को दोष कैसे दे सकती है? चुपचाप देखती ही रह सकती है।
जाहिर है कि जनता से कुछ छिपा नहीं है और जनता ही आपस में एक-दूसरे से छिपकर अपना काम चलाने की आदत डाल चुकी है। शायद यही कारण हो कि वह सबके दिलों से दूर उन राजनीतिक दलों को चुनने के लिए विवश होती है जो एक-दूसरे पर दोष लगाकर अपने पापों के घड़े फोड़ते रहते हैं और जनता के दोष छिपाकर उसकी झूठी महिमा का बखान करते रहते हैं। वे उसे जनता जनार्दन कहकर उसका झूठा स्वाभिमान बढ़ाते हैं। वे जनता को दरिद्र नारायण कहकर उस जलाश्रित नारायण का अपमान करते हैं जो अनादिकाल से सबको समृद्धि का अवसर दिए हुए है, वह तो दरिद्र नहीं। नारायण नहीं जानता कि किस जनता की सरकार किस जनता को लूटकर दरिद्र बना रही है।
दरअसल हमारे समय की राजनीति जनता के मन में यह प्रश्न ही नहीं उठने देना चाहती कि देश की जिम्मेदारी किसकी है? जबकि पूरी जिम्मेदारी प्रत्येक जन-गण-मन की है। राष्ट्रगीत में भारत भाग्य विधाता जनता ही है।
2. आखिर देश क्या है?
क्या देश सिर्फ दूकान है कि जब चाहे खोल दी, जब चाहे बंद कर दी? देश सिर्फ घर भी नहीं है कि जब चाहे ख़रीद लिया, जब चाहे बेच दिया, जब मन आये सो किराये पर उठा दिया। देश नौकरी भी नहीं है कि करके छोड़ दी, छुट्टी पा ली। देश दिल नहीं है कि लुट गया। दिल्ली भी नहीं है कि लूट ली। दिल्लगी भी नहीं है कि जब चाहे सो कर ली। देश कबसे अपना है ? क्या देश कोई सपना है? क्या देश केवल जपना है, तपना है, खपना है?
आखिर देश क्या है? क्या नदी की हिलोर है, लोगों का शोर है या कोई सीनाजोर है? क्या सागर की पछाड़ है, बाघ की दहाड़ है या कोई ऊॅंचा पहाड़ है? स्वर है, ताल है, लय है या कोई भय है? क्या देश कोई राग है या सिर्फ़ भागमभाग है? क्या वह हड़कम्प है, हड़ताल है? भूकम्प है, तूफ़ान है, बाढ़ है, अकाल है? क्या देश सिर्फ़ महंगी दाल है या किसी का दलाल है? क्या देश माया है, ममता है, मन का मलाल है? देश किसका धर्म है, देश किसका मर्म है, देश किसका कर्म है, देश किसकी शर्म है? देश किसका बल है, क्या कोई राजनीतिक छल है?
क्या देश सिर्फ़ सुख है या अनंत व्याधि है? समय है, सदी है, काल है या कोई भ्रमजाल है? क्या देश सिर्फ़ कुदरत का कमाल है? आचार है, विचार है या सिर्फ़ चुनाव प्रचार है? वह किसका पुण्य है, किसका पाप है या केवल प्रलाप है? क्या वह सिर्फ़ सिरजनहार है? क्या वह सिर्फ़ पालनहार है या केवल संहार है? देश किसके बागों की बहार है, वह किससे दुश्मनी है और किससे प्यार है? क्या वह सिर्फ़ हिन्दू है? क्या वह सिर्फ़ मुसलमान है या सबके जीवन की तान है? देश किसका मकान है, किसकी दुकान है,क्या वह केवल लूट का सामान है? क्या वह देव है, दानव है या सिर्फ़ मानव है? पशु है, पक्षी है, फूल है, फल है या सिर्फ़ कूड़ा-करकट है, कोई मरघट है?
3. कर्नाटक में लोकतंत्र का फूल खिला है
कर्नाटक में गांधी मार्ग को अपनाती राजनीतिक विनम्रता और लोकतंत्र के प्रति सद्भावपूर्ण जनबोध ने अपने हाथ उठाकर मतान्ध राजनीतिक अहंकार को पराजित किया है। लोगों के द्वारा अपने मताधिकार से दिया गया यह उदाहरण दूसरे राज्यों में अपने प्रतिनिधियों को चुनने की कसौटी बनेगा। यह जीवंत प्रमाण जनता को अपने अधिकार और कर्तव्य के प्रति जागरूक करके उस नागरिक दायित्व को निभाने की सामूहिक इच्छा जगायेगा जिसमें बिना किसी भेदभाव और तिरस्कार के सब अपनी प्रेमपूर्ण गुजर-बसर कर सकें।
जन-गण-मन में बात चली है,
सबको पता चला है
कर्नाटक में लोकतंत्र का फूल खिला है
4. ओ मेरे भारत के जन
(रवीन्द्रनाथ टैगोर को याद करते हुए)
भटक गये हैं देश के बादल
सूख रहा है देश का जल
बांझ हो रही देश की धरती
पशु-पंछी सब यहां विकल
बदल गये हैं बीज देश के
बिलख रहे हैं यहां किसान
हुनरमंद असहाय देश के
दो रोटी में अटकी जान
बिखर गया है देश का आंगन
और मर रहे देश के गांव
भूल गये अपनी पगडण्डी
ठिठक गये हैं देश के पांव
बिगड़ गयी है देश की बानी
डूब रहा है देश का मन
जहरीली है हवा देश की
टूट रहे हैं देश के तन
अकड़ रहे हैं देश के नेता
पकड़े परदेसी का हाथ
देश बंट गया जात-पांत में
कोई नहीं है सबके साथ
बेच रहे जो देश के साधन
लूट रहे जो देश का धन
उनको कब तक क्षमा करोगे
ओ मेरे भारत के जन