वह पत्रकारिता की ॲंधेरी कोठरी में एक रोशनदान की तरह थे

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स्मृतिशेष : शीतला सिंह

— राम जन्म पाठक —

फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह का 95 वर्ष की उम्र में निधन हो गया। पत्रकारिता जगत में लंबी पारी खेलने वाले शीतला सिंह किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं। बाबरी मस्जिद विध्वंस के आंदोलन के समय जब हिंदी अखबार भगवा रंग में डूबे हुए थे, तब शीतला सिंह अपने अखबार “जनमोर्चा” के मार्फत अफवाहों और झूठ से लोहा ले रहे थे। यह अकारण नहीं था कि कमलेश्वर ने जब अपना मशहूर उपन्यास “कितने पाकिस्तान” लिखा तो उसमें शीतला सिंह को एक जीवित पात्र के रूप में किंवदंती बना दिया। बाद में शीतला सिंह ने भी ‘अयोध्या : रामजन्म भूमि – बाबरी मस्जिद का सच’ नामक किताब लिखी, जो उस दौर का भरोसेमंद दस्तावेज़ है।

शीतला सिंह पाला बदलने वाले और चोला बदलने वाले संपादक नहीं थे। उनका अखबार जनमोर्चा कोई बहुत बड़ा, बड़ी पूंजी से चलने वाला अखबार नहीं था। उसके पीछे कोई बड़ी सत्ता नहीं थी और ऐसा भी नहीं था कि उसका कोई बहुत ज्यादा सरकुलेशन था। एक मझोली हैसियत का अखबार, जो फैजाबाद से निकलकर आसपास चार पांच जिलों में जाता था। हां, एक दौर ऐसा जरूर था जब इन पांच छः जिलों में हर चौराहे नुक्कड़ गली में ‘जनमोर्चा’ दिखाई पड़ता था। जनमोर्चा की प्रसिद्धि की जो बड़ी वजह थी वह थी उसकी जनवादी लोकतांत्रिक चेतना के प्रति प्रतिबद्धता। और सहकारिता पर आधारित उसका जीवन यापन।

जनमोर्चा सहकारिता पर आधारित भारत का एकमात्र अखबार है। बाद में यह अखबार इलाहाबाद और बरेली जैसे शहरों से भी निकला लेकिन वहां इसके पीछे निजी पूंजी और स्वामित्व था। वहां बहुत ज्यादा कामयाब भी नहीं हो पाया। अक्सर जनमोर्चा अपने धनाभाव के कारण बंद होने के कगार पर पहुंचता रहा लेकिन जैसे तैसे शीतला सिंह इसका प्रकाशन जारी रखे रहे।

वीपी सिंह ने जब अपना एक दल बनाया और उसका नाम जनमोर्चा रखा तो उन्हें यह जानकर बड़ी हैरत हुई कि इस नाम का एक अखबार फैजाबाद से निकलता है। यह जानकर वीपी सिंह इतने उत्साहित हुए कि वह फैजाबाद में शीतला सिंह के कार्यालय में उनसे मिलने चले गए।

वीपी सिंह के जनमोर्चा का तो बाद में कुछ पता नहीं चला लेकिन शीतला सिंह और ‘जनमोर्चा’ एक दूसरे के पर्याय बने रहे। शीतला सिंह में युवकोचित उत्साह था। वह जनमोर्चा का विस्तार चाहते थे लेकिन पूंजी उनके लिए हर वक्त एक समस्या बनी रहती थी। अपने इसी अति उत्साह में उन्होंने इलाहाबाद से जनमोर्चा निकालने की योजना बना डाली। यह शायद 90-91 की बात है। इलाहाबाद के कुछ लोगों ने उन्हें आश्वस्त किया था कि वह पूंजी लगाएंगे और अखबार निकलेगा। शीतला सिंह ने उन दिनों इलाहाबाद में अड्डा जमा लिया। इसी बीच मैं भी उनके संपर्क में आया। थोड़ी बहुत बातचीत के बाद उन्होंने मुझसे अखबार से जुड़ने के लिए कहा और मैं नया-नया पत्रकारिता का रंगरूट था तो मैंने भी हामी भर दी। बड़े जोशोखरोश से अखबार के लोकार्पण की तैयारी होने लगी।

लेकिन ऐन वक्त यह हुआ कि जो सज्जन उसमें पूंजी लगाने वाले थे उन्होंने अपना हाथ पीछे खींच लिया। और इधर शीतला सिंह ने अपने अति उत्साह में कमलेश्वर को दिल्ली से लोकार्पण के लिए अतिथि के तौर पर बुला लिया। कमलेश्वर, शीतला सिंह के परम मित्रों में थे और उनकी बात टाल नहीं सकते थे। वह इलाहाबाद पहुंच भी गए। शीतला सिंह पसीना -पसीना। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि कमलेश्वर को बुला लिया है। अब किस मुंह से उन्हें जवाब दें और इलाहाबाद के लोगों को क्या बताएं।

अंत में यह तय हुआ कि कोई संगोष्ठी या सेमिनार करा दिया जाए और कमलेश्वर जी का उसमें उपयोग कर लिया जाए। शीतला सिंह ने मुझसे कहा कि इस शहर में मुझे कोई ज्यादा लोग जानते नहीं, कैसे यह सब हो पाएगा। मैंने उनसे कहा कि चिंता मत कीजिए हम लोग संभाल लेंगे। इलाहाबाद के प्रेस क्लब में हमने छोटा सा कार्यक्रम रख दिया। मशहूर कहानीकार दूधनाथ जी के पास मैं गया और उन्हें अध्यक्षता के लिए मनाया। संचालन करने वाला कोई नहीं था तो उसका जिम्मा मैंने ही संभाला। संगोष्ठी का विषय मैंने ही तय किया “अखबार’, पूंजी और समाज”।

कमलेश्वर जी आए और झूम के बोले। दूधनाथ जी ने भी पत्रकारिता पर बहुत अच्छा वक्तव्य दिया। संगोष्ठी पूरी तरह कामयाब रही। ढेर सारे लोग शहर के सुनने आए।

बाद में शीतला सिंह ने धन्यवाद जताया कि उनकी इज्जत रह गई। शीतला सिंह से मेरा यह लघु-परिचय आगे भी बना रहा। इलाहाबाद में जनमोर्चा शुरू हुआ तो कुछ समय मैंने वहां काम किया। लेकिन उनसे मेरा परिचय मेरे ‘जनसत्ता’ में आने पर भी बना रहा। दिल्ली आते थे तो ‘जनसत्ता’ भी आते थे।

इधर लंबे समय से उनकी कुछ खोज खबर नहीं मिल रही थी। अब यह खबर आई तो सुनकर मैं अवाक रह गया। आज के इस खूनी दौर की खूनी हो चली पत्रकारिता में शीतला सिंह की मौजूदगी एक आश्वस्ति की तरह थी। उनके न रहने से वह खित्ता सूना हो गया है। वे पत्रकारिता की ॲंधेरी कोठरी में एक रोशनदान की तरह थे।

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