उज्ज्वल आलोक की आठ कविताएँ

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पेंटिंग - कल्याणी राज

1. हस्ताक्षर 

दो-चार इंच की
टेढ़ीमेढ़ी लकीर
खींचकर खुश हो जाते हो
गर्व करते फिरते हो कि
मेरे हस्ताक्षर में इतनी ताकत है
जिस कागज पर खींच देता हूँ
वह दस्तावेज बन जाता है
पर सच कहूँ
तुम्हारी तरह
बौना है तुम्हारा हस्ताक्षर
ठीक वैसे
जैसे डायनोसोर के सामने मच्छर
हस्ताक्षर करना सीखना है
तो सीखो दसरथ मांझी से
पहाड़ चीर कर
लंबी लकीर कैसे खींचते हैं
सीखो लौंगी भुइँया से
धरती की छाती पर
हस्ताक्षर कैसे करते हैं
सोचा है तुमने कभी
तुम्हारे हस्ताक्षर में
थी कौन-सी कमी कि
ये हस्ताक्षर इतने बड़े हो गए
हस्ताक्षर करने वाले
कोई माउंटेन मैन तो
कोई कैनाल मैन हो गए

अदना-सा रोड़ा हो
उसके रास्ते का तुम
डरो कि वह पहाड़ काट देता है
मुख्यधारा में आने से रोकनेवालों
डरो कि वह
अपने हिस्से की धारा
अपनी ओर मोड़ लेता है

2. नटुआ नाच

चौक-चौराहे पर कभी-कभी
दो खम्भों पर तनी होती है एक डोर
डोर ऐसी कि पृथ्वी भी खो दे संतुलन
तनी उस डोर पर एक लड़की
लगातार बनाए रखती है संतुलन
ठीक वैसे ही
जैसे परिवार में रखना पड़ता है
समाज में बनाना पड़ता है
जीवन की डोर
दो खम्भों के बीच खत्म नहीं होती
जैसे-जैसे संबंध बढ़ते हैं
अनंत विस्तार लिये फैलती चली जाती है
दर्शक यहां भी करते हैं
उसके गिरने और न गिरने का इंतजार
डरे हुए वे होते हैं जो करते हैं उससे प्यार

3. बिजूका

ठिठुरती हुई घनी रात हो
या कड़कती धूप वाली सुबह
लू वाली दोपहरी में भी
खड़ा रहता है
दोनों हाथ फैलाए
खेतों के बीच में
एक प्यारा बिजूका
ठीक उसी तरह
जैसे क्रूस पर टाँग दिए गए थे
ईशा मसीह
पर सच कहूँ
बचपन में मैं
बिजूका से डर जाया करता था
अब मसीहा से डर जाता हूँ
भले ही वह किसी भी रूप में हो
मसीहा मुझे डराता है
मुझसे निरर्थक काम करवाता है
उजालों में मोमबत्ती जलवाता है
आपदा में खर्च करवाता है
मरने पर भोज मांगता है
पर बिजूका
मेरे श्रम का सम्मान करता है
विषम से विषम परिस्थिति में भी
दोनों हाथ फैलाए खड़ा रहता है
खेतों के बीच में
मेरी फसल को बचाने के लिए।

4. जीने के लिए श्रम करना

जहाँ विनाश की बात हो
मैं कविता लिखता हूँ
जहाँ मानवता की बात हो
मैं कविता लिखता हूँ
कुछ लोग मेरे लिखने पर ही ही… ही ही हॅंसते हैं
कहते हैं तुम्हारे मूर्ख छंदों की आवश्यकता किसे है?
तुम्हारे लिखने से किसी के सिर में जूं नहीं रेंगते
तिलचट्टे क्या ख़ाक उड़ेंगे?
पत्नी कहती है- हे भगवान! पगला गए हो
चुपचाप फुसफुसाते हो, यूं ही बड़बड़ाते हो
छंदों की समझ है नहीं, फिर भी कविता बनाते हो
किसी को मतलब हो न हो अपना माथा भिड़ाते हो
देखो फलां पड़ोसी को
उसने आंखों में आंसू और
पॉकेट में रुमाल रखना छोड़ दिया है
भाव भरे अपने मन को
किसी और ओर मोड़ दिया है
उजड़ता है घर किसी का तो
उसकी आत्मा भी पीड़ित होती है और वह
गुस्से में सोशल मीडिया पर गरियाता है
कोई पुराना पोस्ट साझा कर जाता है
फिर गुस्से को शांत कर वह
सुबह से शाम तक लाइक शेयर निहारता है
कहता है लाइक शेयर से डॉलर पे डॉलर आता है
व्हाट्सएप, टिक टॉक, यूट्यूब से
आदमी करोड़पति बन जाता है
तुम भी कुछ उद्यम करो
जीने के लिए कुछ श्रम करो
मैंने कहा- हे भाग्यवान!
कविता लिखना भी
अपने जीने के लिए श्रम करना है
मेरा नहीं लिखना
निश्चित ही मेरा मर जाना है।

पेंटिंग- बी प्रभा

5. फैल रहा है खून

एक तरफ दुनिया प्रगति में रत है
पुल, पटरियाँ और सड़कें
गाँव शहर सब जोड़ रहे हैं
नए एक्सप्रेस वे और नई एक्सप्रेस ट्रेनें
समय से आगे निकल रही हैं
विमान बुन रहे हैं आसमानी धागे
बाँध रहे हैं देश-महादेश, द्वीप-महाद्वीप

इसरो, नासा, जैक्सा, ईसा जैसे कई संस्थान
ग्रहों उपग्रहों पर भी बढ़ा रहे हैं मैत्री के हाथ
चमत्कार और सपनों की तरह
संचार के तार
तोड़ रहे हैं दीवारें सारी लगातार

कुछ लोग मनुष्य को बचाने के लिए
प्रयोग पर प्रयोग कर रहे हैं
कुछ लोग मनुष्यता को बचाने के लिए
धर्म में कुछ न कुछ खोज रहे हैं

वहीं दूसरी ओर
कुछ लोगों के मन में
भरे हुए हैं सड़े-गले मवाद
जो नहीं चाहते दुनिया हो आजाद
हैजा, प्लेग, फ्लू, कोविड से
बड़ी है यह महामारी
जिसके आगे हार जाती है
मानवता सारी
इस महामारी में व्याप्त है
घाव से रिसता खून
मन में भरते मवाद

तिरानवे की मुंबई में
गूँजे थे बम के धमाके
ताज, ओबरॉय और नरीमन में
गूँजी थीं गोलियाँ
मनुष्य के खून से हो रही थीं होलियाँ

अलकायदा के आतंकवादी
उड़ा ले गए चार विमान
दो टकराए वहाँ जाकर
जहाँ न्यूयॉर्क के ट्विंस भाई
छू रहे थे आसमान
शेष दो ने वाशिंगटन डीसी में आकर
ले ली मनुष्यता की जान

पाकिस्तान के पेशावर में
रूस के बेसलान में मारे गए
बंधक बने बच्चे नादान

अल्जीरिया में गाँव जला
बाली में फूटा था बम
इलेवन एम की दुर्घटना में
जाने कितनों का निकला था दम

यजीदी और जजीरा कस्बों में
मानवता हुई थी त्रस्त
जान गॅंवाने वालों की संख्या हुई सहस्र

पेरिस के कॉन्सर्ट हॉल में
मास्को के थियेटर में
बंद हुआ जब फाटक
बिना किसी स्टार के
शुरू हुआ तब नाटक
नाटक के हर फ्रेम में थी दहशत भरी हुई
गिर रही थीं लाशें धड़ाधड़
थी संवेदना मरी हुई

लंदन, स्टॉकहोम, बार्सिलोना, बर्लिन में
जब हत्यारा ट्रक चलाता है
पल में तोड़ सैकड़ों नियति
जीवन कुचल जाता है

अफगान राजधानी की सड़कों पर
ठीक उसी तरह फैल रहा है खून
काँप रही है सारी दुनिया
देख आँसू, चीख-पुकार सुन

जिसके नाम पर फैलाते हो
तुम सारी दुनिया में आतंक
क्या मालूम है तुम्हें
वह भी काँपता है
स्कूल से वापस न आए बच्चों के प्रश्नों से
माँओं के गीले आँचल से
पिता के टूटे चश्मे से

6. गाय

एक रोज
शहर के बाजार में
एक बूढ़ा किसान
बेच रहा था गाय
दाम इतना कम
होरी भी खरीद ले आराम से
पर गाय की कीमत नहीं मिली
एक दिन किसान मर गया
तभी एक पंडित आया
दान में गाय पाकर
उसने उस पर भगवा चढ़ाया
टीका लगाया, फूलों से सजाया
लोगों को ग्रहों का डर दिखाकर
सोना-चाँदी, नगद चढ़वाया
धर्म आस्था के बाजार में
एक वैद्य आया
रोगों का डर दिखाकर
गोबर बेचा, गोमूत्र बेचा
खूब धन उगाया
तभी एक नेता आया
गाय ले शहर घुमाया
धर्म का डर दिखाकर
दंगा उकसाया, वोट बनाया
सोचता हूँ
जब गाय से सत्ता तक मिलती है
किसान यूँ ही क्यों मर जाता है?

7. गाय और मैं

मॉर्निंग वॉक के दौरान पार्क में
आज एक गाय से मिला, देखा
रंग-बिरंगे फूल-पत्तियाँ चबा रही थी
मैंने पूछा
“जब तुम इतने रंग खाती हो
कैसे सफेद दूध पाती हो?”
वह बोली
“जब तुम
सभी रंग मिलाओगे
ठीक से पचाओगे
सफेद रंग ही पाओगे”
“जब भी तुम
प्रिज़्म की दृष्टि अपनाओगे
सफेद में भी
सात रंग फरकाओगे”

8. दीवारें

जब भी मैं लंबी यात्रा करता हूँ
किसी न किसी की हद बताता हूँ
चीन में भी की है मैंने
लगभग इक्कीस बाइस सौ मील की
लम्बी यात्रा
बर्लिन में भी चला था मैं
एक सौ पचपन किलोमीटर
मैं ही हार्डियन बन
रोम के उत्तर में बसा था
लगभग एक सौ बीस किलोमीटर
बेबीलोन की छप्पन मील यात्रा
कैसे भूल सकता हूँ मैं
कीचड़ जमाकर जलाया गया था मैं
छोटी-छोटी यात्राएँ तो मैंने
हजारों लाखों की हैं
अभी फिर कर रहा हूँ
गुजरात में
गरीबों को उसकी हद बताने के लिए
विकास के सामने
उसका चेहरा छुपाने के लिए
मुझे अच्छा लगता है चलना
लेकिन वहाँ
जहाँ किसी कोने में
मेरा साथी मुझे मिले
और हमदोनो मिलकर
उठाते हों सर पर
छत का भार
वरना भारहीन दौड़ता हूँ तो
बस अपराध करता हूँ

4 COMMENTS

  1. ये कविताएं वर्तमान समय का दस्तावेज़ हैं। कविताएं इतनी सघन बुनावत से रची गई हैं कि पाठक के सामने दृश्य उपस्थित करती हैं। बिना किसी अमूर्तन के दृश्य को उकेर देना इन कविताओं की शक्ति है। भाषा की आंतरिक संगति में लय का रचाव लगातार बना हुआ है। अच्छी कविताओं के लिए कवि उज्ज्वल आलोक सर को हार्दिक बधाई। आपकी काव्य प्रतिभा निरंतर निखरती रहे, यही शुभकामनाएं हैं।

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